शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

Turning points of present time cinema ...



1. what is new changing trends in Indian cinema ?

Ans-  Simple story telling is very new for Indian cinema. All kind of stories are welcomed by audience and film Industry.

2.what is the main change in Indian cinema during last three decades ?
Ans – Still Indian Cinema has no any big change. They do not come up with the standards of the world cinema. But Indian cinema is trying to come out of narrow path of formula cinema.

3.what is your point of view on contribution of Indian cinema to the  Indian ?
Ans – Lyrics, Romance, entertainment and interaction of Indian languages are the greatest contribution of Indian cinema to the  Indians.

4.what is the impact of Indian cinema on global audience ?

Ans – Yes, It has a large audience but it has accepted as below standard cinema. Again I would repeat that publicity of language is the biggest contribution of Bollywood cinema.

5.which type of change you want to see in  Indian films during next ten years ?

Ans-  Indian cinema should fallow Iranian film makers. They should search their roots in Indian culture. I hope that they will understand the power of originality and find the way to use their cultural and economic faculties. 


{It is a part of an interview taken from me by a student of Mass Media from Kolkata.} 

राजकमल चौधरी के लिए ; Rakamal chaudharee ke liye

राजकमल चौधरी के लिए

उसे आदमी और आदमी में फर्क कर के जीना था
इसीलिये एक की नजर में वो हीरा आदमी था
 तो दूसरे की नजर में कमीना था !

धूमिल (१९६० से १९७०)

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

Vichar

सब को रोटी, कपड़ा और मकान बिना श्रम किये आदमी होने के कारन मिलना चाहिए.  इसके बाद आदमी को  श्रम करना चाहिए; अपने और मानवता के विकास के लिए!
चार्ल्स चैपलीन 

सोमवार, 23 अगस्त 2010

पोस्ट कार्ड [ post card ]

धन्यबाद प्रभात जी, माया मृग जी कि आप ने लिखा.. पढ़ा और पसंद किया . कई बार कवितायेँ पढ़ने के बाद कुछ कहने की जगह कुछ विचारने की मनोदशा होती है . आपलोगों का पढ़ना मुझे पिछले २५ साल के सतत सृजन को खुद ही टाइप कर लेने के लिए  प्रेरित कर रहा है . प्रकाशन, संगठन और साहित्यिक राजनीति मैं भी कर सकता था लेकिन मुझे लिखने से लगाव था. अगर प्रकाशक द्वारा  सिर्फ  एक किताब की रायल्टी बिलकुल  (बिल्कुल) सही दे दी जाये तब भी लेखक की जिन्दगी लिख कर गुजर सकती है. कीमत कम होगी, किताबें पढने वालों के लिए लिखी जायेंगी तो प्रकाशक को भी पचास गुना ज्यादा फायदा होगा जैसा मराठी, कन्नड़ , बंगला या अंगरेजी सहित तमाम आदि आदि  भाषओं में है. मगर हिंदी में परिदृश्य अलग है . हिंदी के लेखक से पचहत्तर साल की उम्र तक प्रकाशक ये उम्मीद करता है की तुम इस बात पर प्रसन्न रहो की तुम्हारी किताब छाप दी  गई है ! हाँ !
समय बदल गया है ; कोई विकल्प निकल आएगा जैसे की एक अद्भुत विकल्प ब्लॉग है .
पुनः धन्यबाद !

मैं बिहार हूँ... दुनिया की अदालत में हाजिर -नाजिर... .( Mai Bihar hun ..duniya ki adalat mein hajir -najir..) मैं बिहार हूँ /! जहाँ सबसे अधिक बौद्ध 'विहार' बने / जिस जमीन के हर हिस्से पर बुद्ध के कदमों की छाप है/ जहाँ बुद्ध ने सर्वाधिक चातुर्मास बिताये/ जहाँ से सदियों पुरानी न्याय प्रणाली ने एक नया मोड़ लिया कि मारनेवाले से ज्यादा अधिकार बचाने वाले का होता है ; (शिकारी देवदत्त को रक्षक सिध्दार्थ को घायल हंस लौटा देना पड़ा) / यही से न्याय और अहिंसा क उपदेश पूरी दुनिया में फैला !

मैं बिहार हूँ... दुनिया  की  अदालत  में  हाजिर -नाजिर...


 मैं बिहार हूँ !

जहाँ सबसे अधिक बौद्ध 'विहार' बने
जिस जमीन के हर हिस्से पर बुद्ध के कदमों की छाप है
जहाँ बुद्ध ने सर्वाधिक चातुर्मास  बिताये
जहाँ से सदियों पुरानी न्याय प्रणाली ने एक नया मोड़ लिया कि मारनेवाले से ज्यादा अधिकार बचाने वाले का होता है ;
(शिकारी देवदत्त को रक्षक सिध्दार्थ को घायल हंस लौटा देना पड़ा)
यही से न्याय और अहिंसा क उपदेश पूरी दुनिया में फैला !

मैं बिहार हूँ !
जहाँ सभ्यता की शुरूआत में श्रीराम महर्षि विश्वमित्र से विद्या लेने आये
जहाँ महर्षि विश्वमित्र के नेतृत्व में धरती पर पहला शोध- संस्थान स्थापित हुआ
जहाँ रावण का साम्राज्य सबसे पहले विस्थापित हुआ ( पूतना महाज्ञानी, महाराजा, महाबली,महाकवि  दुष्ट रावण की जिला कलेक्टर थी )
जहाँ से नालंदा विश्वविद्यालय सदियों तक संसार में रोशनी क प्रसार करता रहा !

मैं बिहार हूँ ... करूणा की स्त्रोतस्विनी !
मेरी एक बेटी सीता है जो रावण की लंका में तबतक दुःख सहती रही जबतक राम के सैनिक सबकी मुक्ति के लिए नहीं आ गए.
मेरी एक बेटी सुजाता थी जिसने उपवासी सिध्दार्थ को खीर खिलाया ;मध्यम मार्ग सुझाया:
 (वीणा के तारों को इतना मत खीचो की तार टूट जाएँ ; इतना ढीला भी मत छोडो की बजे ही नहीं !)
मेरी एक बेटी भारती महापंडित मंडन मिश्र की संगिनी थी
जिसने शंकराचार्य के शास्त्रार्थ के घमंड को तोड़ा था , उन्हें कल्याण - पथ पर मोड़ा था !
(मेरे पति को परास्त कर आप आधा ही जीते है श्रीमान ! यही उसने कहा था  )

मैं बिहार हूँ !
प्रेम और भाईचारे का तरफदार!
इतिहास के गहरे अंधकार में मैंने ही पहली बार पौरुष को जाति-पांति से ऊपर स्थपित किया था
वीरत को सम्मानित किया था / अरे! मैंने ही तो अज्ञात कुलशील धीवर सुत कर्ण को अपना 'अंग'(राज्य) दिया था
गुण - कौशल को ताज पहनाया था / मैंने ही सबसे पहले इन्सान की कद्र की और संसार के  इतिहस  में पहली बार आम आदमी को राज्य का भागीदार बनाया / प्रजातंत्र का फॉर्मूला दिया; वैशाली गणराज्य बनाया !

मैं बिहार हूँ जिसने  महावीर को पारसनाथ की पहाड़ियों में जन्म दिया
जहाँ सिक्खों के अंतिम गुरु गोविन्द सिंह जी पैदा हुये
मैं शेरशाह सूरी की भी माँ हूँ जिसके राज्य में घरों में ताला नहीं लगता था
जहाँ महात्मा गाँधी के विचारों के रूप में अहिंसा और रामराज्य ने एकसाथ पुनर्जन्म लिया

..................
मेरा एक बेटा  कुंवर सिंह था जिसने फिरंगियों का रंग उड़ा दिया :

मैं बिहार हूँ जहाँ से जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया और
फिरंगी मानसिकता को जड़ से हिला दिया !

मैं बिहार हूँ जहाँ तीनों मौसम आते है;
जहाँ अब हर मौसम में शामिल रहता है पतझड़ !
मैं बिहार हूँ - फसलों के काटे जाने के बाद की उदास धरती !
मुझे अपने बेटों के चौड़े कन्धों और मजबूत इरादों का इंतजार है ; वे लौटें और मेरी गोद हरी बना दें !

मुझे धरती की सबसे सुंदर परी बना दें !

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

vichar

ज्ञान विज्ञान को संस्कृत से जन भाषा में ले  आने  वाले कुछ मध्यकालीन कवियों के ख़याल ---

देसिल बयना  सब जन मिठ्ठा
ते तैसिय जम्पओं  अवहट्टा .( संभवतः - विद्यापति )

भाखा बहता नीर है संस्कृत कूप समान !  (कबीर)

पाओस आल ..

पाओस आल ....

जाल खोलते हैं मछुआरे
 पाल खोलते हैं मछुआरे
पहली मछली की तड़पन से साल खोलते है मछुआरे !

बीज ढो रहे हैं बनिहारे
बीज बो रहे है बनिहारे
इस मौसम में किस मौसम के बीज हो रहे हैं बनिहारे ?

घास गढ़ रहे हैं घसियारे
घास पढ़ रहे हैं घसियारे 
बरसा से सरसी धरती कि साँस पढ़ रहे है घसियारे .....

पाल खोलते हैं मछुआरे

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

डर के आदिम वायरस

डर के आदिम वायरस

डर लगता है कि गुरुवार को दाढ़ी बनाऊंगा तो
गुरुग्रह नाराज हो जायेंगे
सोमवार को पिताजी बुरा मानेंगे :
मंगलवार को हनुमान जी
शनिवार को शनि देव !

सोचता हु दाढ़ी छोड़ दूँ इन देवताओं कि ख़ुशी के लिए;
हाँलाकि मुझे नहीं लगता कि आसमान के पीछे बैठकर
वे लोग यही सब देख रहे हैं ! ?


हमारे सामूहिक मन में डर के आदिम वायरस हैं,
जो हमारे बच्चों तक आसानी से चले जाते हैं .

सोमवार, 16 अगस्त 2010

झोपड़पट्टियाँ...एक पटकविता

 

   एक्ट वन , एक्सटेरियर, मॉर्निंग, झोपड़पट्टियाँ.....

सुबह -सुबह शराब पीकर एक औरत दुनिया की बादशाहत  कर रही है
 सूरज की आंच में ये बस्ती चिता की तरह दहक रही है
इस आग में आग है , पानी है, मछलियाँ हैं
 मुर्ग- मुस्सलम है
 मटन है, कबाब है, शबाब है
 नमस्ते है, प्रणाम है, वणक्कम है, आदाब है
 यहाँ भी जिंदाबाद है
 जिन्दगी आबाद है
जिन्दगी की सभी आजादियाँ यहाँ सस्ते में मिलती हैं.

 आसपास की अट्टालिकाएँ सुबह की धूप में बच्चों की तरह खेल रही हैं
 और यहाँ जिन्दगी सबसे बड़ा हादसा झेल रही है --
फिर से सुबह हो गई है और एक और दिन सूरज के नीचे बिताना है ......

एक्ट टू, एक्सटेरियर,मिड डे, झोपड़पट्टियाँ...

तपते फुटपाथ पर जो लेटे है ; वे  भी भारत के बेटे हैं
 माँ बैठी है बगल में पानी लेकर
गोदने की बिंदिया बता रही है की वह किसी आदिवासी गाँव से उखाड़कर आ गिरी है इस झोपड़पट्टी में ...
यहाँ भी उसे अभी तिरपाल भर जगह नहीं मिली है
आठ नौ महीने का स्वस्थ गदराया आदिवासी बच्चा बेसुध सोया है
नाले के ऊपर के फुटपाथ  पर माँ के पास
 ईंटों के चूल्हे पर खाना भी बन रहा है
 एक बालक बची आंच पर मूंगफलियाँ भून  रहा है

 औरतें नहा रही हैं सूरज के तेजाबी किरणों के शॉवर में
 कुर्ती- पेटीकोट के बाहर समूचा जिस्म सांवला हो गया है ...
ऐसा लग रहा है कि पैदाइश से ही ये एक लम्बी चिता में जलाये जा रहे हैं
 एक जवान होती हुई लड़की आईने में अपना रूप संवार रही है
 आईना जैसे सूरज हो गया है
 अपने सहने की ताक़त से ,जलने की जुर्रत से उस लड़की की चमड़ी आईने को मरहम दे रही है
 जिसे सूरज अपनी चौंध से फोड़ डालना चाहता है
 अगल -बगल उसके दो किशोर साथी बैठे हैं
 लड़की ने पसीने और धूल से झोल बने बालों को पुरानी रूमाल से कस लिया है
 ये लो वह तैयार हो गई और तीनों  फुटपाथ पर बैठी माँ से उसका हाल  पूछने आये हैं

 मैं भी वहीँ खड़ा हूँ
 यह देश आजाद नहीं हुआ है इस बात पर अड़ा हूँ .......


एक्ट थ्री , एक्सटेरियर, इविनिंग, झोपड़पट्टियाँ.....

आपने कभी यहाँ शाम को उतरते देखा है ?
जब दिन भर की धूप और धूल धोकर बालों में फूल सजाये जाते हैं
 तवे पर तवे भर की रोटियाँ बनती हैं
बोटियाँ छनती हैं
बोतलें खुलतीं हैं
 बच्चे खेलते हैं
 गजरे वाले बालों के चेहरे की चमड़ी में दमड़ी भर का पाउडर मला जाता है
कालिख को सफेदी से छला जाता है

एक दूसरा बाजार सजता है
 हर तार बजता है
मैं उस बाजार में एक आवारा दर्शक की तरह घुसता हूँ 
अनजान पते पूछता हूँ ...
नशे में धुत्त एक बूढ़े को नौजवानों ने धुन दिया है
आतंक ने यहाँ भी अपना जाला बुन दिया है
 पिंजरे में गाती रंगीन चिड़िया और चौखट पर बैठी बुढ़िया को कोई डर नहीं है...
ईश्वर आसमान में क्यों टंगा है ?
 उस बेचारे के पास भी तो घर नहीं है !

ऐसा घर जहाँ वह खुश रह सके

जहाँ कोई किसी को नुकसान न पहुंचाए
 जिन्दगी की धज्जियाँ न उड़ाये........

vichar

जीवन ऐसे जियो जैसे अभिनय , अभिनय ऐसे करो जैसे जीवन .जे. कृष्णमूर्ती

रविवार, 15 अगस्त 2010

जश्ने -आजादी के बाद .... पार्क के अंधियारे में जहाँ दिन के उजाले में जश्ने - आजादी का उत्सव मनाया गया था वहां रात के अंधियारे में एक बूढा आदमी चवों के बल बैठा कुछ चुन रहा था कीचड़ में कागज के तिरंगे झंडे बिखरे थे ; बच्चे जिन्हें खेलकर ऊब गए थे और बड़ों के लिए जो फगुआ का मेला हो गया था

जश्ने -आजादी के बाद ....

पार्क के अंधियारे में जहाँ दिन के उजाले में
जश्ने - आजादी का उत्सव मनाया गया था
वहां रात के अंधियारे में
एक बूढा आदमी चवों के बल बैठा कुछ चुन रहा था
कीचड़ में कागज के तिरंगे झंडे बिखरे थे ; बच्चे जिन्हें खेलकर
 ऊब गए थे और बड़ों के लिए
जो फगुआ का मेला हो गया था .
मेरी अँगुलियों में फंसे सिगरेट के धुएं को ताड़कर बूढ़े ने अपनी नाक , चश्मा
और आँखे मेरी तरफ भेदी ....
अरे ! यह तो गाँधी है !
मैं विदेशी सिगरेट बुझाने की जगह खोजने लगा ....
'लाओ मुझे दे दो!' गाँधी ने कहा . 'तुम ये भीगे हुये झंडे सम्हालो !'

पूरे शहर में डस्टबिन खोजने के बाद हम स्टेशन पहुचे .
स्टेशन पर हर डस्टबिन पान की पीक से रंग हुआ था .
'नौजवान तुम पानी लेकर आओ !' गाँधी ने कहा और तत्परता से सफाई में जुट गए .
अनाउंसर मुक्तिबोध की कविता सुना रहा था  --
"जो है उससे बेहतर चाहिए
सारी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए .....
गाँधी भी साथ गुनगुना रहे थे.
मैं गीले झंडे और सिगरेट का टुकड़ा लिए खड़ा था - तो इन का क्या करूँ ?
रद्दी कागज के टुकड़ों से थूक पोंछकर साफ करते बूढ़े ने बिना विश्राम या  विराम लिए कहा -
'तुम झंडे सम्हालो ! मैं सफाई कर लूँगा, और सुनो !
 इनसे लगी हुई मिट्टी भी सम्हाल कर रखना !
उसके हर कण में शहादतों की दास्तानें हैं !

मुझे याद नहीं की घर लाकर उन्हें कहाँ रख दिया ....

शनिवार, 14 अगस्त 2010

आजादी

आजादी
क्या उन तीन थके रंगों का नाम है
जिसे एक पहिया ढोता है
या इसका कुछ और मतलब होता है !
सुदामा पाण्डेय धूमिल (संभवतः १९६० की रचना  )

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

यक्ष - प्रश्न ...१.

यक्ष - प्रश्न ...१.
ईश्वर ! तू  सामंती सोच का अवतार है ?
शोषण का तरफदार है ?
आखिर तुम में करुणा क्यों नहीं हैं ?
या तो गरीबी की औलाद है
शोषित है , बेजुबान है ?

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कविता पर बहस शुरू करो

क्योंकि कविता अब उतनी ही देर सुरक्षित है
जितनी देर कसाई के ठीहे और गंड़ासे  के बीच
बोटी ,
 इसलिए कविता पर बहस शुरू करो और
 शहर को अपनी तरफ घुमा लो!
                                   सुदामा पाण्डेय धूमिल

बुधवार, 11 अगस्त 2010

बोल -बचन ; सन्दर्भ - हिंदी साहित्य.....जीवन भर नामवर जी ने लिखा कम और बोला अधिक है. मेरी सलाह है किअब उनसे बोलने के लिए न कहा जाये. उनसे लिखने का आग्रह किया जाये . उनका लिखा हुआ हर शब्द साहित्य की निधि है . उनके एक शब्द की तुलना एक ग्राम युरेनियम से किया जाये तो भी कमतर होगा .

बोल -बचन ;  सन्दर्भ - हिंदी साहित्य
विभूति-छिनाल प्रकरण पर मोहल्ला लाइव पर मैंने विष्णु खरे का आलेख पढ़ा -लेखक होने के वहम ने इस कुलपति की सनक बढ़ा दी है .लगे हाथ उनका दूसरा आलेख भी पढ़ डाला - इन्‍हें कैसे मिल गया भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार. तीसरी तरफ तेजस्वी पत्रकार अविनाश दास ने मुहीम चला रखा है -शर्मनाक है कि नामवर सिंह इस मसले पर चुप हैं!
इन तीनों मुद्दों को अगर एक ही सन्दर्भ में देखा जाये तो ये हिंदी साहित्य से सम्बंधित हैं . गौर करने पर  हिदी साहित्य की वर्तमान स्थिति दिन के उजाले की तरह स्पष्ट हो जाती है . हिंदी साहित्य पिछड़ों  का पक्षधर साहित्य होने की जगह पिछड़ा साहित्य हो गया है.
नामवर  जी हिंदी साहित्य के अग्रणी नेता हैं और वे इस मुद्दे पर चुप हैं. पत्रकार उनको खोदे जा रहे हैं है लेकिन सन्तप्रवर की चुप्पी नहीं टूट रही है.  विभूति जैसे सामंती मिजाज के आदमी की  साहित्य में इतनी दमदार पैठ नामवर जी के सहयोग के बिना मिल ही नहीं सकती.प्रतिभाहीन लोग प्रतिभाशाली लोगो के सहयोग के बिना खड़े ही नहीं रह सकते . दूसरी तरफ भारत भूषण अग्रवाल पुरष्कार से तमाम कच्चे कवियों, अकवियों को बिगाड़ने के पीछे भी उनकी बराबर भूमिका रही है . 
 अगर एक वाक्य में कहा जाये तो नामवर जी उस किसान की तरह किं-कर्तब्य -विमूढ़ से खड़े है जिसके सामने उसकी बोई हुई फसल लहलहा रही है . ज्ञानचतुर्वेदी ने हाल ही में कहीं लिखा है की नए लेखकों की फसल कहीं खर-पतवार तो नहीं?
 जी हाँ! बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होए .
जीवन भर नामवर जी ने लिखा कम और बोला अधिक है. मेरी सलाह है किअब उनसे बोलने के लिए न कहा जाये. उनसे लिखने का आग्रह किया जाये . उनका लिखा हुआ हर शब्द साहित्य की निधि है . उनके एक शब्द की तुलना एक ग्राम युरेनियम से किया जाये तो भी कमतर होगा . 
वैसे भी बोल बचन की मठाधिसी का समय ख़त्म हो चूका है .

मंगलवार, 10 अगस्त 2010

vichar

 हर लेखक के जीवन में एक दिन आता है जब वह खुद अपने को पहचान पाता है ,जब उसे अपना मुख्य विषय मिल जाता है .इस विषय के साथ उसे बाद में गद्दारी नहीं करनी चाहिए. सच्चा लेखक  अपने ह्रदय का आदेश मानते हुये विश्व मत का विरोध करने से कभी नहीं झिझकता. रसूल हमजातोव

रविवार, 8 अगस्त 2010

छिनाल या छिनार का अर्थ होता है कुलटा, बदकार,पुंश्चली,व्यभिचारी.यह एक स्त्रीलिंग शब्द है जो छिः नार अर्थात स्त्री को पुरुषों के बनाये नियमों का उल्लंघन करने पर उसे तिरस्कृत करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता था, है

छिनाल या छिनार का अर्थ होता है कुलटा, बदकार,पुंश्चली,व्यभिचारी.यह एक स्त्रीलिंग शब्द है जो छिः नार अर्थात स्त्री को पुरुषों के बनाये नियमों का उल्लंघन  करने पर उसे तिरस्कृत करने के लिए इसका प्रयोग किया जाता था, है  . यह अत्यंत प्रभावकारी है और क्षण मात्र में स्त्रियों को अपमानित करने में सर्वथा समर्थ है.
यह शब्द पुरुषों की खीज से प्रसवित हुआ है. यह दिमाग की खाज का बायोप्रोद्क्त है.
अब ध्यान देना चाहिए की चोर और छिनाल शब्द एक साथ प्रयुक्त होते हैं बिलकुल चोली-दामन की तरह . ये ब्राह्मणवादी नजरिये से शूद्र शब्द हैं. इनका प्रयोग दमित,दलित या निचले वर्गों के लिए किया जाता रहा है. कृष्ण को छोड़कर किसी भी उदात्त चरित्र के वर्णन के लिए चोर-छिनाल शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है और कृष्ण के साथ ये शब्द निर्भीक हैं.
 इन शब्दों का अर्थ क्या है -- चोरी का मतलब है कोई वस्तु जो आपके पास नहीं है और आप दूसरे की इज़ाज़त के बिना उसे हस्तगत कर लेते है. छिनाल का अर्थ है अपनी कामुकता को स्वीकार करने वाली स्त्री . यह शब्द ऐसे पुरुषों के लिए भी प्रयुक्त होता है और कृष्ण के लिए प्रयुक्त हुआ .
अब देखा जाये तो मानव-शरीर में दो  अंग सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं - दिमाग और लिंग.दोनों नंबर एक है. पेट और गुर्दा और दिल आदि दो नंबर पर हैं. हाथ पाँव आदि तीसरे नंबर पर आते हैं.
किसी भी उदात्त चरित्र के वर्णन में कुछ निश्चित शब्दों का प्रयोग होता है -- वे धैर्यवान, वीर्यवान और शौर्यवान थे. धैर्य का सम्बन्ध दिमाग से , शौर्य का सम्बन्ध बहुबल से और वीर्य का सम्बन्ध लिंग से है. मुझे ये धैर्यवान और शौर्यवान समझ में आता है लेकिन  वीर्यवान नहीं समझ में आता . क्या किसी के पास सौ दो सौ लीटर वीर्य हो सकता है ? खैर !
 पुरुष की कामुकता को उसके शौर्य का अनिवार्य अंग मन जाता रहा है लेकिन स्त्रियों को उनके अस्तित्व को स्वीकार करने से वंचित किया जाता रहा है. आखिर क्यों? खाने, पीने, सोने और हगने - मूतने की तरह सेक्स भी शरीर का अनिवार्य फंक्शन है और सभी जीव जंतुओं में समान है . भारत को छोड़कर कही भी इतने सारे नैतिक  नियम कानून   सेक्स के आसपास नहीं मिलेंगे.
खासतौर से हिंदी साहित्य तो सामंतशाही और आधुनिकता के पाखंड में लिथड़ा पड़ा है.
 सिगरेट पीती हुई औरत को देखकर हिंदी का लेखक चौक जाता है. मर्दों की पसंदीदा गलियां देती किसी औरत को देखकर हिंदी के लेखक का हार्ट फेल हो सकता है. वह अब भी गहनों से लदी-फदी घूंघट की आड़ में छुई-मुई नार को खोज रहा है जिसे अपनी कामुकता का शिकार बनाने के बाद उसे छिनार कह सके .
छिः.......

vichar

उस शब्द को दुनिया में ले आना सही नहीं जो आपके दिल से होकर नहीं गुजरा हो. लेखक को अपने शब्दों और वचनों के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए. रसूल हमजातोव

शनिवार, 7 अगस्त 2010

हंस का योगदान

हंस का योगदान अभी समाप्त नहीं हो गया है, इसकी लौ मुंशी प्रेमचंद  ने जलाई थी . इसकी ज्योति हमेशा जलती रहेगी . राजेन्द्र यादव के नेतृत्व हंस ने  अपनी  यात्रा के  २५. साल पूरे किये लेकिन हंस की उम्र का आकलन प्रेमचंद जी से शुरू करके ही किया जाना चाहिए. हंस का प्रकाशन १९३० ई० में बनारस से हुआ .मुंशी प्रेमचंद के संपादकत्व में हंस पत्रिका हिंदी की प्रगति में अत्यंत सहायक सिध्द हुई और कथा साहित्य ,अनुसन्धान ,प्रयोग और विचार का एक बृहद मंच बन गई . मुंशी प्रेमचंद  के बाद जैनेन्द्र और शिवरानी    देवी, शिवदान सिंह चौहान, श्रीपत राय, अमृत राय, नरोत्तम नागर ने संपादन का नेतृत्व संभाला और ज्ञान की मशाल को आगे  बढाया.बालकृष्ण राव और अमृत राय के द्वारा १९६९ में इसका एक वृहद् संकलन रूप सामने आया जिसमें आधुनिक साहित्य और नवीन मूल्यों पर विचार किया गया.
 काफी लम्बे अंतराल के बाद वर्तमान संपादक ने इसकी लौ को पुनर्जागृत किया .
इस अथक श्रमदान के लिए बधाई!
.2.
हंस में राजेन्द्र यादव की एक कविता छ्पी थी- प्रेमिकायें पादतीं नहीं....
 कई साल तक इस महान कविता ने मुझे आन्दोलित रक्खा. हाल-फ़िलहाल मुझे बात समझ आई और मुझे राजेन्द्र जी को बता देना उचित लगा- आदरणीय! ज्यादा देर साथ रहने पर प्रेमिकायें भी कभी-कभी पाद देती हैं. इसका बुरा नहीं मानना चाहिये. वे भी आपकी हमारी तरह ही इनसान हैं. उन्हें माफ़ कर दीजिए और मस्त रहिए. कभी- कभी ऎसा हो जाता है. ध्यान नहीं देना चाहिये. पाद दबाने से कई प्रकार के रोग हो जाते हैं. गुदा, योनि और उदर के सारे रोग औरतों को इसीलिये होते हैं क्योंकि हजारों साल से हमने उन्हें जीने नहीं दिया है. खुलकर हंसना और खुला पादना जीवन की उन्मुक्त अभिव्यक्तियां हैं. इन्हें सहज मानिये. सबको पादने दीजिए. आमीन!

एक अधूरी कविता ......( An incomplete poetry) विचारों में मच्छर उड़ रहे हैं / जड़ताएं जड़ जमा रही हैं

विचारों में मच्छर उड़ रहे हैं
जड़ताएं जड़ जमा रही हैं
औधे मुह फसलें लटकीं हैं
 धरती बंजर हो रही है (और ऊर्वर हो रहा है आसमान...)

अजनबीयत की आत्मीयता से चिपचिपा रहा है महा नगर !

एक विचार को काटता है दूसरा विचार
एक भाव पर चढ़ बैठा है दूसरा भाव
एक गाँव पर दूसरा गाँव - शहर पर शहर ..देश पर देश ..
इस तरह पूरी पृथ्वी पर ढेर सारी पृथिव्यां !

अजीब सफोकेशन है, घुटन है, रेलमपेल है !

खुदरा खयालों के खंदक में , भावुकता के लहूलुहान पत्थरों में
मेरी अंगूठी का नगीना खो गया है ;
वह मेरी अपनी ही तीसरी आँख थी
जिसमे लहू जमकर सख्त हो गया था .

सपने में हम कोई और थे !

शीशे के चेहरे थे
पत्थर के सनम थे
फ्रायड का शिश्न्वाद था
वाचमैन के बेटे महादेव की नूनी में अटकी हुई
लोहे की अंगूठी थी , शनि का फेर था .

(रंगकर्मी रंग की शीशी घर भूल आये है ; ज़माने के सताए हैं !)

सपने में हम कोई और थे !
साफ आसमान में धूप नीली हो गई थी
पत्थर के घाट पर मिट्टी  के शिवलिंग का
रुद्राभिषेक हो रहा था ....
शिश्न-उदंड समय ने मन्त्रों पर मुग्ध होकर
 बार - बार सर हिलाया,
 होठ बिचकाए ,पलकें अधमुंदी , ध्यान लगाया -

ध्यान में वटवृक्ष के पत्ते गिर रहे थे
पत्तों के पहाड़ को गिरगिटों ने घेर रखा था
एक रंगीला नर ढेर पर तना था ...

ध्यान में अबूझ  था और वह ह्रदय कंपाता था !

बनियों की सभा में
गाँधी के पुतले पर
सिक्कों की माला पहनाई गई ;
गाँधी ने महादेव देसाई से माला पहनाने वाले बन्धु का नाम
डायरी में नोट करने का निर्देश  दिया ...
ये पैसे देश के काम आयेंगे

कुटीर उद्योग का सपना गोलियों से छलनी कर दिया गया !

भारत में भी एक अमेरिका है
भारत जिसपर खड़ा है
संत वेलेंतैन का कद गाँधी से भी बड़ा है ;
कान में फुसफुसाकर
वह चला गया पुलिया पर सूर्यास्त देखने झील में
झील !
 जो पौलीथीन खाकर एकदिन मर जाएगी ...

भवनों के पाओं तले
एक भिखारन ने अपना घर जमाया है
पीले दांतों में बीड़ी दबाये वह साफ - सुथरे कपड़े तहा रही है
गोद में नन्हा शिशु है ;
शिशु के हिस्से एक अदद छत नहीं --
क्या सीन है !

इस व्यवस्था में ढेर सारी खामियां हैं
झोल - झाल है
बवाल है ...

व्यवस्था के लिए तुम अनफिट हो
तुम उस समाज की बात करते हो जो हमारा उपभोक्ता है
हमें चाहिए जमीन और पानी; सत्तर के सिरों पर हल चलाकर भी
इसीलिए कवि जी!
हमारे साथ अनफिट हो ...

(दिमाग के भीतर घुसकर शोर करेंगे ; सृजनशील खोपड़ियों में खेती करेंगे !)

एक अकेली इंजीनियर लड़की ढेर सरे तारों के साथ
ठीक कर रही है एक पूरे शहर का कंप्यूटर कनेक्शन
सुखद आश्चर्य! क्या सीन है ! और ...

शीशे के कार्यालय के बाहर
एक बच्ची सड़क के किनारे  कूड़े में कुछ बीन रही है
पीला कुरता और धूसर नीली गंदली स्कर्ट भी
शायद वही से मिली हो ...
क्या सीन है .....

प्रतिमाएं टूट जाएँगी
जिनकी प्रतिमाए हैं वे पहले ही टूट चुके हैं
टूटी प्रतिमाओं की फूटी सूरतें पहचानना मुश्किल है
उन्हें कब्रों से निकालो ! उनकी प्रतिमाएं बनानी हैं

हमें सिर्फ प्रतिमाएं चाहिए
जिन्हें जब चाहें  माला पहनाएं
जब चाहे तोड़ दें

इस कविता को अधूरी ही छोड़ दें .....

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

भूमंडलीकरण -( Globalization )

     भूमंडलीकरण
                                                       
    १.
एक जैसी इमारतें
एक जैसे कमरे
एक जैसे चेहरे
एक जैसी भाषा
एक जैसा अंदाजे-बयां

एक जैसी मौत
एक जैसी कब्र

यानि ऊब ही ऊब
बहुत खूब!
२.
भाषा से नफ़रत
शब्द से नफ़रत
शब्द में जीने वाले मन से नफ़रत
मन को रखने वाले तन से नफ़रत

'खांखर"  शब्द को क्यों रख दें आंग्ल में ?
उसे वहां भी क्यों न रहने दें - जहाँ है ?

पंछियों का बदलें भूगोल
बदल दें जलवायु !
सभी पेड़ एक ऊंचाई के
सभी फुल निर्गंध .
३.
हीक भार नरक के बाद
पीक भार स्वर्ग!
कमाल के दाता हो !
४.
चोरों ने तय किया - वे अपना संविधान बनायेंगे,
अपनी सहूलियत के लिए इस संसार में
वे अपना चोर -संसार बनायेंगे
उसकी अपनी नैतिकताएं होंगी
अपने आदर्श ; सबसे बढकर ये कि उसमें
जो नहीं होंगे चोर
उनके लिए भी काफी जगह होगी ....
५.
पहले थोडा गेहू डालो
चक्की चला दो
फिर थोडा कंकड़ डालो
चक्की चला दो
एक झक्कास पैकेट में बंद करो
बाजार में पंहुचा दो .
चक्की चलती रहेगी!
६.
खुश है लोग
लोकल ट्रेन में ठंसे हुये हैं ,
मगर खुश हैं!
पाओं तले रौदे जाने के बावजूद खुश हैं
तीसरी दुनियां के देशों में --
यह बात पसंद नहीं आती बुश को (उस को...)
कि अभी तक लोग खुश हैं...
७.
सवाल ये नहीं है कि पुरुष औरत को देह समझता है
औरत भी यही समझती है
और पुरूषो कि मिलीभगत से चल रहा है कारोबार ;
देह एक प्रोडक्ट -
एक प्रोडक्ट को बेचने के लिए देह --
देह साबुन ,देह तौलिया ,देह चादर ,
देह जूस, देह चॉकलेट, देह पेट्रोल, देह मिसाइल

देह ही देह से भरी है विश्व -बाजार कि फाइल !
८.
वे भविष्य में एक गोली दागेंगे
जिसकी आवाज वर्त्तमान में सुनाई देगी
और लहूलुहान होगा अतीत
फिर हमारे संग्रहालय ,पुस्तकालय  और सभी तरह के आलय
जिसमें हम अपना इतिहास रखते हैं -- जला दिए जायेंगे !
वहां लटका दी जाएँगी उनके नाम कि तख्तियां
हमारे हजारों साल के इतिहास को मेटकर वे अपना दो हजार साल का
इतिहास पढ़ाएंगे ; हमारी अगली पीढ़ियों को
आधुनिक बनायेंगे !
९.
पूरब के दिल में इस तरह एक सन्नाटा
फैल रहा है - जैसे पुराना बड़ा कमरा हो, जिसमें
बरसों से कोई नहीं रह रहा हो !

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

व्यवस्था ....(system - 1, 2 )

व्यवस्था .....
               १.
ग्लोब पर चढ़ी  हुई है एक चीटीं
ग्लोब में घुसा हुआ है एक तिलचट्टा
एक झींगुर लिख रहा है नए नक़्शे
पढ़  रही है एक मक्खी ,

गुबरैले चला रहे है चक्की .

चल रही है व्यवस्था !...
          २.
शांत रहो ..अभी व्यस्त है वैज्ञानिक
मानवनाशी बम बनाने में -
 एक सुरक्छित कंडोम तक जो नहीं बना सके !
व्यस्त है प्रधानमंत्री !
सीमा विवाद सुलझाने में .....
सभी व्यस्त है !... तुम अपनी भूखी चीख दबाओ !
दर्द पी जाओ ...
चलने दो व्यवस्था ....

सोमवार, 2 अगस्त 2010

चींटियाँ ....

                                                                          चींटियाँ .....
.चींटियों ने पहले समझा की बचे रहना है पृथ्वी पर तो अपना घर बचाए रहना होगा 
बाबी के ऊपर आदमी ने घर बना लिया तो भी 
घर अपना छोड़ नहीं देना होगा ;
आदमी के जीने में अपना जीना बचाए रखना होगा!

बड़ा से बड़ा जलप्रलय पार किया जा सकता है, अगर 
गुथंगुथा होकर गेंद बन जाया जाये --
 चींटियाँ बुद्धिमान हैं !

इतने से भेजे से कितना सोच लेती हैं ! 


घर से निकल आये थे घर बना लिया
इस शहर को अपना शहर बना लिया .