गुरुवार, 25 अगस्त 2011

कवि सुदामा पाण्डेय धूमिल...


निर्देशक की डायरी - 8
कवि  सुदामा पाण्डेय धूमिल

साथ के दशक के सबसे प्रभावी कवि धूमिल को किसी आलोचक ने नहीं,सड़क, चौराहों के उनके यारों, दिलदारों ने समझा, अपनाया और सर माथे बिठाया. धूमिल की आलोचना इतिहास की विवशता है,मजबूरी है. धूमिल जिन्दगी भर आलोचकों के सर पर पेशाब करते रहे.
 आज आम आदमी के सामने सरकार जिस तरह मेमना हो गई है और लगता है, लोकपाल बिल लागू हो जायेगा  ; हिंदी विभाग धूमिल को कोर्स में शामिल करने को मजबूर हो गया वरना गली की  गाली- गलौज की भासा में सत्य उकेरने वाले इस नव-कबीर को संस्कृतनिष्ठ भासा और छिन्न भावों के शुद्धतावादी गढ़ में कौन पंक्ति देता?

हम दायें हाथ की नैतिकता से 
इस कदर मजबूर हैं कि तमाम उम्र गुजर जाती है 
मगर गांड़ हमेशा बायाँ  हाथ ही धोता है.'

 जो आम आदमी के सवालों को उठाये उसे सत्ता भी विरोधी पक्ष का मानती है और विरोधी भी. धूमिल जो कविता को एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं, कविता के बारे में कहते हैं - 

'कविता घेराव में 
अकेले आदमी का आत्मालाप है.'

और कुछ इस तरह के आत्मालाप करते है कवि धूमिल -

"क्या आजादी
 उन तीन थके रंगों का नाम है
 जिन्हें एक पहिया ढोता है
 या इसका कुछ खास मतलब होता है !"

धूमिल ( संसद से सड़क तक ) में ये सवाल पूछ रहे हैं और खुद ही जवाब भी दे रहे हैं  किसी दूसरी कविता में -

"और जनतंत्र एक छोटे से बच्चे के 
हाथ की जूजी है."

अष्टेकर ने धूमिल की कविताओं पर शोध करते हुए इस जूजी शब्द पर विशेष शोध किया और ढूंढ़ निकला कि जूजी लिंग के बाल्यावस्था को कहते हैं. बच्चे जब कपडा पहनना नहीं चाहते, दो, तीन साल की उम्र, और अपने लिंग के साथ खेलते है; वस्तुतः लिंग कहना अन्याय है. नूनी, जूजी, लिंग यानी किड, बेबी, जवान. तो तीन चार साल के बच्चे के जेनीटल पार्ट को जूजी कहते हैं. और धूमिल कहते है की इसी को जनतंत्र कहते है. आजादी के दश वर्ष के भीतर ही जनतंत्र भ्रष्टतंत्र में बदल चुका था. इस निराशा और आक्रोश के स्वरों से धूमिल की कवितायेँ बनी हैं. उनमे आम आदमी के लहू की ऊष्मा है --

"एक आदमी आटा गूंथता है 
दूसरा बेलता है 
एक तीसरा है जो न पकाता है न बेलता है 
बस रोटी से खेलता है
मै पूछता हूँ - ये तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है !"

धूमिल ने हिंदी भासा के शुद्धतावाद पर आम बोलचाल की भाषा की सादगी से हमला बोल दिया.
धूमिल को भासा के भदेस का कवि भी कहा जाता है. हाँ, सुदामा पाण्डेय धूमिल ने गली, चौराहों की भासा के बारूदी प्रहार से हिंदी की अकादमिक एरिया में एक बड़ा भ्रंश कर दिया और उसकी सांसों में संजीवनी भर दी ! मेरा नमन बनारस के नव कबीर को.


शनिवार, 20 अगस्त 2011

गम रोजगार के ...

इस दौर में चन्द्र है
सविता है,
मानो या मत मानो
पोस्टर ही कविता है. ( मुक्तिबोध ) 
(मै मुक्तिबोध से सहमत हूँ और सोसिअल नेटवर्क साइट्स या ब्लॉग मेरे लिए वे पेड़ और दीवारें है जहाँ मै अपने विचारों के लाल नीले पोस्टर चिपकाता हूँ. यह कविता 'गम रोजगार के' १९८९ में लिखी गई थी और कई बार सुनी सुनाई गई और अख़बारों,पत्रों में प्रकाशित हुई. आज समीचीन लगी. लीजिये . अब जाम आपके हाथ में है.)

गम रोजगार के 
चेहरों के समुद्र में 
हर चेहरे में समुद्र जितनी लहरें !

आजकल 
एक स्वर समान है युवा कंठों में ; किस
खूंटे में है दाना 
किस गुड़बी में पानी 

किस शहर में एक नौकर
 की जगह 
खाली ?

बचपन में
पिता के कन्धों पर 
बैठ
घूमा करते थे 
गाँव, बधार  ;

कब उतरेगा 
पितृ -कन्धों से बोझ 
कब

मिलेगी मुक्ति 
पैतृक अन्न से

किस डाल बनेगा 
घोसला 

कौन सी लहर नाव साबित होगी ?

चेहरों के समुद्र
में
हर चेहरे में 
समुद्र जितनी लहरें ...!

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

जश्ने -आजादी के बाद ....


जश्ने -आजादी के बाद ....
पार्क के अंधियारे में जहाँ दिन के उजाले में
जश्ने - आजादी का उत्सव मनाया गया था
वहां रात के अंधियारे में
एक बूढा आदमी चवों के बल बैठा कुछ चुन रहा था
कीचड़ में कागज के तिरंगे झंडे बिखरे थे ; बच्चे जिन्हें खेलकर
 ऊब गए थे और बड़ों के लिए
जो फगुआ का मेला हो गया था .
मेरी अँगुलियों में फंसे सिगरेट के धुएं को ताड़कर बूढ़े ने अपनी नाक , चश्मा
और आँखे मेरी तरफ भेदी ....
अरे ! यह तो गाँधी है !
मैं विदेशी सिगरेट बुझाने की जगह खोजने लगा ....
'लाओ मुझे दे दो!' गाँधी ने कहा . 'तुम ये भीगे हुये झंडे सम्हालो !'

पूरे शहर में डस्टबिन खोजने के बाद हम स्टेशन पहुचे .
स्टेशन पर हर डस्टबिन पान की पीक से रंग हुआ था .
'नौजवान तुम पानी लेकर आओ !' गाँधी ने कहा और तत्परता से सफाई में जुट गए .
अनाउंसर मुक्तिबोध की कविता सुना रहा था  --
"जो है उससे बेहतर चाहिए
सारी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए .....
गाँधी भी साथ गुनगुना रहे थे.
मैं गीले झंडे और सिगरेट का टुकड़ा लिए खड़ा था - तो इन का क्या करूँ ?
रद्दी कागज के टुकड़ों से थूक पोंछकर साफ करते बूढ़े ने बिना विश्राम या  विराम लिए कहा -
'तुम झंडे सम्हालो ! मैं सफाई कर लूँगा, और सुनो !
 इनसे लगी हुई मिट्टी भी सम्हाल कर रखना !
उसके हर कण में शहादतों की दास्तानें हैं !

मुझे याद नहीं की घर लाकर उन्हें कहाँ रख दिया ....

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

मित्र-प्रसंग ; ओ दिलदारा आ जा रे ...


निर्देशक की डायरी ७ 
मित्र-प्रसंग ; ओ दिलदारा आ जा रे ...
'मुस्कुराने कि बात करते हो दिल जलाने कि बात करते हो 
दोस्तों से वफ़ा कि उम्मीदें किस ज़माने कि बात करते हो.'

मेरे किसी दोस्त ने मुझे ये सन्देश भेजा था -" पिछले बीस साल मै तुम्हे घमंडी समझता रहा और तुमसे जलता रहा हूँ. आज मै कहना चाहता हूँ की तुम जरा भी घमंडी नहीं हो. तुम्हारी प्रतिभा का स्पार्क इतना अधिक है की लोग जल-भुन जाते हैं. "
 हँसी आ रही है और याद आ रहे हैं मिया ग़ालिब - 'हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमा क्यों हो ?' 
 वाह रे मेरे प्यारे दोस्त ! गर्व है मुझे तुम्हारी ईमानदार अभिव्यक्ति पर. लेकिन जिस इंसान को प्रतिभाशाली या घमंडी मानकर तुम जलते रहे वह तो लगभग मूढ़मति है . कम से कम लोक व्यवहार में तो मूर्ख ही है वरना बीस साल तक उसे पता नहीं चलता कि तुम ही उसकी जड़ में मट्ठा डाल रहे हो. 
मेरे मित्र ने सविस्तार स्वीकार किया कि साहित्य से लेकर सिनेमा तक हर जगह मेरे बारे में दुष्प्रचार करना उसका प्रिय कार्य था. दर्जनों लघुपत्रिकाओं से मेरी रचनाएँ निकलवाने के लिए उसने कोई कवायद छोड़ी नहीं और हमेशा सफल रहा क्योंकि मैं कही जाता नहीं था. प्रकाशक हों या प्रोडक्शन हाउसेज हर जगह मेरे मित्र ने मेरी कन्नी काटी अगैरह वगैरह . यह कन्फेशन इसलिए संभव हुआ क्योंकि मेरी तरफ से ऐसा कोई जवाब नहीं मिला. मेरे भाई! मै अपने स्वभाव में हूँ तो मैंने जो मेरे लिए स्वाभाविक है किया. मैंने प्यार किया और फुर्सत ही नहीं मिली कुछ और करने की. इसी को प्रतिभा कहा जाता है क्या?
मुझे ख़ुशी है कि जीते जी तुमने समझ लिया. बीस साल अगर तुमने अपनी प्रतिभा को निखारने में लगाया होता तो कुछ और बार होती. क्योंकि ध्यान से देखो तो तुम्हारा हर एक्शन मेरे हक में गया है. बीस साल तक तुम रोज मेरे बारे में सोचते रहे. तुम्हारे ख्याल से तुम मेरा नुकसान करते रहे लेकिन नकारात्मक ही सही तुम अपनी उर्जा मुझमे इन्वेस्ट करते रहे और अधिकतर वह मेरे पास आकर सकारात्मक उर्जा में ही बदल गई. अवरोधों ने मुझे श्रमिक बना दिया वरना मै भी अय्याश हो गया होता. तुम्हारी कृपा से आज बहुत दूर दराज के शहरों में मेरे दोस्त बने क्योंकि सभी तुम्हारी बातों में नहीं आये और उन्होंने खुद मुझसे संपर्क कर मुझे जानने कि कोशिश की और मित्र बन गए. तो सीधी बात ये है कि तुम मेरे दोस्त हो और अनजाने भी तुमसे मेरा नुक्सान नहीं हो सकता, ये मेरा हमेशा से मानना रहा है और आज भी है. ये मै हूँ . अगर इसको घमंड कहते है तो ये मेरा होने का घमंड है.
मेरा मित्र बहुत रसूख वाला है और अब मेरी मदद करना चाहता है . अच्छी बात है. तब भी स्वागत था अब भी है. आखिर तुम मेरे मित्र हो वरना कोई इस तरह दिल खोलकर थोड़े न रख देता है. आओ मेरे यार ! फिर से रात रात भर कवितायेँ पढेंगे, चर्चाएँ करेंगे, सपने देखेंगे और उन्हें हकीक़त में बदलेंगे. 
जब जागो तभी विहान !
 

शनिवार, 6 अगस्त 2011

एक और गीत का मुखड़ा और एक अंतरा ...


मै सच कह रहा हूँ पहली बार हो गया है
दीवाना हो गया हूँ मुझे प्यार हो गया है.

तू कह तो एक नयी कायनात बना दूँ
तू जैसे कह वैसे दिन रात बना दूँ.
ता आसमा अपना इख्तियार हो गया है.

दीवाना हो गया हूँ  मुझे प्यार हो गया है .

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

आरक्षण रिलीज होने वाली है ...

 आरक्षण रिलीज होने वाली है ...

निर्देशक की डायरी 6

प्रकाश झा फ़िलहाल एकमात्र मच्योर फिल्म मेकर हैं जो गंभीर मुद्दों पर सिनेमा  बना रहे हैं. वे एकमात्र सफल राजनितिक सिनेमा के भी महारथी हैं. इनकी तुलना पोलैंड के महान फ़िल्मकार पीटर बाग्चोह से की जा सकती है क्योंकि राजनितिक विषय के प्रति ऐसी अपार निष्ठा और निरंतर सक्रियता दोनों ही फिल्मकारों की एक जैसी हैं. हिप हिप हुर्रे, दामुल से आरक्षण तक की प्रकाश झा की लम्बी यात्रा पर मै एक विस्तृत आलेख लिखनेवाला हूँ लेकिन फ़िलहाल कुछ बातों का जिक्र जरूरी है. आरक्षण रिलीज होने वाली है और राजनितिक लोग घबरा गए हैं. फिल्म देखे बिना फिल्म पर सवाल उठाये जा रहे हैं. आखिर क्यों?
दुनिया की दूसरी बड़ी फिल्म इंडस्ट्री में नब्बे प्रतिशत या तो लव स्टोरी बनती है या एक्शन सिनेमा. इन फिल्मों से मनोरंजन होता है लेकिन ज्ञानवर्धन या जागरूकता जो की सिनेमा जैसे माध्यम के आवश्यक कर्तब्यों में है वह नहीं होता. इन फिल्मों से सत्ता को कोई खतरा नहीं महसूस होता लेकिन प्रकाश झा का सिनेमा मुश्किलें पैदा कर सकता है.यह अवाम को जगा सकता है जबकि सिनेमा का बहुधा इश्तेमाल अवाम को भुलाये रखने में ही होता है. 
आप कल्पना नहीं कर सकते हैं की कला सिनेमा का दौर ख़त्म हो जाने की कगार पर आया हुआ एक फिल्म मेकर अगर इस समय में भी सार्थक सिनेमा बना पा रहा है तो उसे क्या क्या संघर्ष आज भी करने पड़ते होंगे. 
सिर्फ शुभकामना ही नहीं साथ की जरुरत है जिससे प्रकाश झा अपनी इस फिल्म को रिलीज कर पायें और निरंतर सिनेमा बनाते रहें.