सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

लिखने भर की रोशनी..

पहाड़  की तलहटी में
सागर किनारे
हमारे तलवों तले गर्म थी रेत
कि
फूट पड़ा  एक झरना
हमें सराबोर करता
सागर में मिल गया

तुम्हे इतना जान गया हूँ  कि
जानने का गुमान नहीं रहा
फ़िर भी बची हुई है गहराई तुम्हारे होने की
(तुम्हारे रूप में एक अरूप है;)
जो सागर और नदी
फूल और बारिश
आग और चन्दन सब है.

एक "हूँ" में हम हरसिंगार की तरह
खिलते हैं

एक छोटी छुअन में भी
नमक-पानी की तरह घुलते हैं,
(हल्दी-नमक में गलते अचार में
घरपन की खूशबू है.)

तुमने मुझे लिया
अपनी हजार शाखों
अनन्त टहनियों में फूलों की तरह.

वनतुलसी की खूशबू में
आदिम पवित्रता की भावना है,
वन है और तन है!

चौराहे के स्ट्रीट लैम्प की तरह
तुम्हार चेहरा उगा हि रहता है
चौबीसों घन्टे, बारहो मास.

मुझे लिखने भर की रोशनी चाहिये....