सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

Kitaab

केवट ने कहा- सुनो सिद्धार्थ! नदी  अपने उद्गगम,प्रवाह(बहाव) और अवसान तीनों ही स्थलों पर एक ही साथ एक ही समय में होती है; यही है अतीत, वर्तमान और भविष्य,  ऎसा नदी ने मुझसे कहा है. यही  है बचपन, जवानी और मृत्यु !
सिद्धार्थ
लेखक: हरमन हेस

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

Vichar

संसार के पुनर्नवीकरण में शायद यह होगा कि तमाम झूठी भावनाओं और वितृष्णा से मुक्त होकर युवक और युवती एक दूसरे को ढूंढेंगे, विपरीतों कि तरह नहीं, बन्धु- बांधवों कि तरह, पड़ोसी की तरह, और मनुष्यों कि तरह मिल जायेंगे !
रायनर मारिया रिल्के , लैटर्स टू ए यंग पोएट (एडिनबरा, १९४५),पेज .23

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

फिल्मों का एक सार्थक सिलसिला शुरू हो सकता है

मनोज बाजपेयी ने अपना एक आलेख मुझे पोस्ट किया था जिसमें कुछ उद्धरणों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. उन्होंने लिखा था कि नसीर भाई कहते है कि सिनेमा सिर्फ हेयर स्टाइल बदल सकता है बाकी कुछ नहीं. अगर ऐसा ही है तो एक सवाल पूछना चाहूँगा कि नसीर भाई ने और मनोज जी ने कितनी बार हेयर स्टाइल बदलवाया है? वैसे तो इस तरह के आधिकारिक बयान का ये अधिकार नहीं रखते क्योकि सिनेमा इनकी विधा नहीं है, ये सिनेमा विधा के एक औजार हैं. फिल्म पर इस तरह कि टिपण्णी का अधिकार निर्माता, निर्देशक या फिल्म थिंकर को ही होता है. लेकिन समय समय पर अभिनेता लोग अपनी कुंठा व्यक्त करते रहते हैं. कभी धर्मेन्द्र ने भी कहा था कि मै नहीं समझता कि अनुपमा देखकर किसी डॉक्टर के चरित्र में कोई परिवर्तन हुआ होगा?
फिल्म में अभिनेता की भूमिका पर बात करेंगे लेकिन जरा ठहरकर इन अभिनेताओं के मनोविज्ञान को समझा जाये.
नसीर ने सार्थक फिल्मो में काम किया है . सार्थक सिनेमा से समाज परिवर्तन की जो उम्मीद उन्होंने की होगी शायद उसके नहीं पूरा होने की झुंझलाहट में वे ऐसी बात कह गए! नसीर भाई बम्बई  देव आनंद बनने के लिए आये थे; ये उन्होंने अपने एक लम्बे साक्षात्कार में खुलासा किया है. शायद संयोग से नया सिनेमा के अदाकार बन गए. मनोज जी भी सभवतः अमिताभ बच्चन बनने आये होंगे मगर अबतक ऐसा कुछ नहीं हो पाया. वस्तुतः इस तरह के कलाकार कहीं बीच में खड़े नजर आते हैं. कुछ निर्देशक भी सार्थक सिनेमा को ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल करते हैं और मौका मिलते ही मुख्यधारा की निरर्थक फिल्मो में गर्क हो जाते हैं. लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है की जो अपनी फिल्मो और स्टारडम से हेयर स्टाइल बदलवाने की क्षमता रखते हैं वे फिल्मों को समाज परिवर्तन का माध्यम मानते है. थोड़े ही समय पहले गजनी से आमिर खान ने हेयर स्टाइल का करिश्मा दिखाया था.
मनोज जी ने एक और उद्धरण रखा है -" शत्रुघ्न सिन्हा कहते है की फिल्मों में सिर्फ एक प्रतिशत लोगों को सफलता मिलती है".
मेरे ख्याल से एक अभिनेता के लिए फिल्म में सफलता का मतलब है सितारा बन जाना.स्टार बनते ही अभिनेता का व्यक्तित्व महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सामान्यतया फिल्म में अभिनेता का महत्त्व प्रोप्स से थोड़ा ज्यादा माना जा सकता है. फिल्म अभिनेता का नहीं निर्देशक का माध्यम है. अमरीश पूरी के शब्दों में फिल्म में एक्टर कठपुतली से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता. रूस के फ़िल्मकार आंद्रेई तारकोवस्की से किसी ने पूछा की आप अपने अभिनेताओं के साथ कैसे काम करते है? उन्होंने कहा कि मै उनके साथ काम नहीं करता, उन्हें पगार देता हूँ .
वस्तुतः हिंदी में सार्थक सिनेमा किसी आंतरिक प्रेरणा से नहीं शुरू हुआ, यह सरकारी सहयोग की सुविधा के लालच में शुरू हुआ  नहीं तो १९७० की जगह इसे १९५० तक शुरू हो जाना चाहिए था. इसीलिए यह बुरी मौत भी मरा. नसीर भाई के शब्दों में "मेरी सबसे बड़ी नाराजगी इस बात को लेकर है की समान्तर सिनेमा इतनी लज्जाजनक मौत मरा है .इसके तथाकथित कर्णधारों की लुंज-पुंज प्रतिबद्धता मुझे और भी विचलित करती है. आखिर सार्थक सिनेमा को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बतानेवाले अक्सर आसानी से मौका मिलते ही अन्य लुभावने लेकिन अर्थहीन विकल्पों की तरफ आकर्षित क्यों हो जाते हैं ?"
आज भी सार्थक सिनेमा फिल्म संसार में पैठ बनाने का ही माध्यम बना हुआ है. इतनी बड़ी भाषा में न जाने कितने सारे दर्शक वर्ग हैं. हमारे अग्रणी फ़िल्मकार, कलाकार, चिन्तक जन अगर सुनियोजित ढंग से पहल करें तो बिखरी हुई कड़ियों को जोड़कर एक सार्थक सिलसिला शुरू हो सकता है. वास्तव में हमें अपनी जड़ें तलाशने के लिए फ़्रांस जाने कि जरूरत नहीं है, हमारे अपने सिनेमा में ही हमारी स्टाइल मिलेगी.

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

kathopanishad

शून्य में से शून्य  निकालो तो शून्य बचता है, शून्य में शून्य डालो तो शून्य बचता है ... तो क्या चोरी या सीनाजोरी ? चुराने दीजिये चुराने वालों को. लेखन, सिनेमा, चित्र या कलाकर्म का आधारभूत उद्देश्य अपने और दूसरे की संवेदनाओं का विकास है. लिखना और सुनना और गुनना चलते रहना चाहिए! महत्वाकांक्षी लोग ही चोरी करते हैं, महत के आकांक्षी आगे बढ़ते हैं.
 एक और सृजनात्मक दिन के लिए शुभकामनाएं !

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

लिखने भर की रोशनी..

पहाड़  की तलहटी में
सागर किनारे
हमारे तलवों तले गर्म थी रेत
कि
फूट पड़ा  एक झरना
हमें सराबोर करता
सागर में मिल गया

तुम्हे इतना जान गया हूँ  कि
जानने का गुमान नहीं रहा
फ़िर भी बची हुई है गहराई तुम्हारे होने की
(तुम्हारे रूप में एक अरूप है;)
जो सागर और नदी
फूल और बारिश
आग और चन्दन सब है.

एक "हूँ" में हम हरसिंगार की तरह
खिलते हैं

एक छोटी छुअन में भी
नमक-पानी की तरह घुलते हैं,
(हल्दी-नमक में गलते अचार में
घरपन की खूशबू है.)

तुमने मुझे लिया
अपनी हजार शाखों
अनन्त टहनियों में फूलों की तरह.

वनतुलसी की खूशबू में
आदिम पवित्रता की भावना है,
वन है और तन है!

चौराहे के स्ट्रीट लैम्प की तरह
तुम्हार चेहरा उगा हि रहता है
चौबीसों घन्टे, बारहो मास.

मुझे लिखने भर की रोशनी चाहिये....

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

सपनों को गर्माहट देने में मददगार है बम्बई .

सपनों को गर्माहट देने में मददगार है बम्बई ...
जब सारा नगर सो गया था
मै अँधेरे से आँखें मिलाये जाग रहा था
अँधेरा मेरे कमरे में उजाला उलीच रहा था
सोये हुये नगर में मेरा कमरा रेल की भट्ठी बना हुआ था
जैसे की दुनिया के और भी नगरों में कवियों की आँखें
जागती आँखें
नींद की प्रहरी बनी होंगी ;
मै जाग रहा था
और जाग रही थी बम्बई .

करोडो-करोड़ लोगों को रोजी देने वाली ओ बम्बई !
तुम्हारी अभ्यर्थना में मैं चारण - कवि हो जाना चाहता हूँ!
क्यों नहीं ये पूरा देश तुम्हारी तरह कर्मशील हो जाता ?
क्यों नहीं तुम लोकल रेलवे लाइनों का जाल फैलाकर पूरे देश में फ़ैल जाती हो ?

मेरे सवाल पर मुस्कुराकर सर हिलाती है
 कल की तैयारी करती बम्बई ...

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

vichar

हमारा सामूहिक मन व्यक्ति पूजा को पसंद करता है. महात्मा गांधी उस मन के बहुत अनुकूल है. आज लालबहादुर शास्त्री का भी जन्म दिन है जिन्होंने कोई विशेष वेश-भूषा नहीं अपनाया लेकिन अपना काम किया. उनको भी नमन जिन्हें प्रचार तंत्र ने देव छवि नहीं बना दिया.