बुधवार, 1 अक्तूबर 2008

दुश्मन दोस्त से
अनुपम
दिल से हँसे यारों जमाना हो गया
मुस्कुराना तो बहाना हो गया ।
हो गया तुमसे मिलन तो ये हुआ
ख़ुद से मिलने का ठिकाना हो गया।
जुस्तजू अब भी जरा सी रह गई
दिल गजल का कारखाना हो गया ।
हो गए तुम बावफा तो यों हुआ
चाँदनी में गुनगुनाना हो गया ।
चलो चलकर नदी लायें दूध की
तीरगी में रोना गाना हो गया ।
देवता अपने पहाडों पर गए
आदमी का ये जमाना हो गया ।
रात भर जिनके ख्यालों में रहे
सुबह से घर आना जन हो गया ।
तुम नही आए तो हमने ये कहा
जख्म गहरा और पुराना हो गया ।
तुमने तो एक फूल भेजा था सनम
मैं जुनूनी था दीवाना हो गया ।

गुरुवार, 31 जुलाई 2008

गजल के तीन शेर अनुपम

घर से निकल आए है घर ढ़ूंढ़ रहे हैं

इस शहर में हम अपना शहर ढ़ूंढ़ रहे हैं ।

कुछ गीत कुछ किताबें कुछ धड़कते अहसास

किस दिल में इन्हे रखें जगह ढ़ूंढ़ रहे हैं ।

आदत सी हो गई है कुछ ढ़ूंढ़ते रहने की

तुम मिल गए हो और तुम्हे ढ़ूंढ़ रहे हैं।