मंगलवार, 28 सितंबर 2010

vichar

फेसबुक से मुझे पता चला की मेरी पुस्तक भारतीय सिने-सिद्धांत को हजारों लोगों ने पढ़ा और लाभ उठाया है. उसे लिखने में मुझे सात साल लगे और प्रकाशित होने में तीन साल, उसके बाद सात साल और गुजर चुके हैं और मंशा रहते हुये भी मै दूसरी किताब नहीं दे सका. सारा वक्त रोजी रोटी में चला जा रहा है. मेरी जरूरतें बहुत कम हैं जो किसी वजीफा से भी पूरी हो सकती है.फ़िलहाल अगर कहीं पढ़ाने का काम भी मिले तो मैं हिंदी की जोरदार सेवा कर पाउँगा. उम्र निकली जा रही है.किसी बड़े दल या कद की छाया भी नहीं है.टीवी, सिनेमा के काम में समय और मन अपना नहीं रहता. दोस्तो, बंधुजनों, आदरणीयों! क्या करूँ?