गुरुवार, 21 जून 2012

निर्देशक की डायरी २४


निर्देशक की  डायरी २४ 
अनुभव सत्य !
 स्क्रिप्ट पर मेहनत की जाये तो....

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को छोड़कर सारे विश्व में फिल्म लिखने के लिए लेखक नियुक्त (अपोइन्ट) हो जाता है. उसे फिल्म के रिलीज़ तक एक सैलेरी आती है. रिसर्च से लेकर लिखने, सुधारने, तराशने के लिए उसको हर मदद दी जाती है तो एक बड़ी फिल्म सामने आती है. सिर्फ एक फिल्म लिखकर बाहर के देशों में लेखक आजीवन आर्थिक रूप से आजाद हो जाता है. प्रोडक्शन को भी उसे एक निश्चित प्रतिशत रौयल्टी देने में ख़ुशी होती है. आपको अगर यह पता करना हो की एक फिल्म कितनी दफा और कितनी मेहनत से लिखी जाती है तो 'स्क्रिप्टो रामा . कॉम' पर जाकर हजारों पटकथाओं के तीन से ज्यादा ड्राफ्ट पढ़ सकते हैं. 
संगीतकार जोड़ी राजेश - रजनीश से बात करते हुए पता चला कि 'कास्ट अवे' कि स्क्रिप्ट २५२ बार लिखी गई. 
 हमारे यहाँ लेखक का इम्तहान लिया जाता है. उम्मीद की जाती है कि लेखक पूरी फिल्म अपने दम पर कर के ले आये और उसे एक कीमत पकड़ा कर चलता कर दिया जाता है. बड़ी बड़ी फिल्मों के जानदार लेखकों को आज भी हमारी फिल्म इंडस्ट्री दस बारह लाख से ज्यादा नहीं देती. एक दौर था जब हमारे यहाँ भी लेखकों पर, लिखने पर दिल खोल के खर्च किया जाता था. लेकिन वह इतिहास बन गया. 
लेखन को महत्त्व नहीं देने के चलते हमारे यहाँ ओरिजिनल फ़िल्में कम बनती हैं और हमारे निर्माता बाहर कि फिल्मों के कथानक और मेकिंग उठा लेते हैं. है तो यह बहुत शर्म की बात और इसकी भर्तस्ना होने के बावजूद हम शर्मसार नहीं हैं. या शायद आसान ढर्रे पर चले जाने की आदत हो गई है. और आदतों से शर्मिंदगी चली जाती है.
 दरअसल छोटी मंजिलें जल्दी मिल जातीं हैं, बड़ी मंजिलों के लिए ज्यादा चलना पड़ता है.  इस के कारण विश्व सिनेमा में हमारी वही जगह है जो हमारे सामने रिजनल सिनेमा की है. 
 जावेद अख्तर के प्रयत्नों से अब लेखकों को रौयल्टी मिलने की स्थिति बन गई है हालॉकि निर्माताओं को इसके फायदे समझने में थोडा वक़्त लग रहा है मगर अच्छे परिणाम उम्मीदें जगा सकते हैं. इंडस्ट्री में कुछ सफल कलाकार और प्रोड्यूसर लेखक को नियुक्त करने की पहल कर रहे हैं.
जिस दिन निर्माता लेखक को रानी मधुमक्खी कि तरह सम्हालना सीख जायेंगे, हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का भाग्य चमक जायेगा. स्क्रिप्ट पर मेहनत की  जाये तो कॉपी फिल्मों पर खर्च होने वाले बजट के आधे में ओरिजिनल और बेहतरीन फ़िल्में दर्शकों को वापस थियेटर तक ला सकती हैं. 

शुभकामनाओं के साथ !
डॉ. अनुपम ओझा