शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

निर्देशक की डायरी ११


निर्देशक की डायरी ११  
पुरानी डायरी का एक पेज ..
(२-८-१९९६, बिड़ला होस्टल, बनारस)
कि ऐसी चीखती कविता बनाने में लजाता हूँ . मुक्तिबोध 

लुत्ती १                                          अनुपम 
एक ही धरती पर 
एक ही देश में 
तुम अरबों खरबों घोंटने 
घोंटाने में परेशान दिखते हो
कोई पाई दो पाई के लिए 
हैरान होता है 

शत प्रतिशत बेईमानी के बाद की तलछट के लिए मारामारी 
जारी है एक आत्महंता समर्पण

एक ही धरती पर 
एक ही देश में 
हम किस संस्कृति में जी रहे हैं 
किस देश काल में 

हर दिन आपात काल का मातम क्यों 
इस हिन्दुस्तान में इतना अधिक इण्डिया क्यों ?

(संभवतः साहित्य अमृत में प्रकाशित. )

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

कवियों की पृथ्वी

कवियों की पृथ्वी 
बहुत छोटी है मित्र,

मै उस पृथ्वी पर रहना पसंद करूँगा 
जिसपर कवि/ कवी दोनों रहते हैं 
कोई भी मंच
संगठन 
समूह
बंधन 
अंटता नहीं मेरी चेतना में 

सबसे संवाद जरूरी तो नहीं !

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

व्यवस्था , अनुपम


                              व्यवस्था                      अनुपम 

 १.
ग्लोब पर चढ़ी हुई है एक चींटी
ग्लोब में घुसा हुआ है एक तिलचट्टा
एक झिंगुर लिख रहा है नए नक़्शे
पढ़ रही है एक मक्खी,

गुबरैले चला रहे है चक्की.

चल रही है व्यवस्था !...
 २.
शांत रहो ..अभी व्यस्त है वैज्ञानिक
मानवनाशी बम बनाने में -
एक सुरक्षित कंडोम तक जो नहीं बना सके !
व्यस्त है प्रधानमंत्री !
सीमा विवाद सुलझाने में .....
सभी व्यस्त है !... तुम अपनी भूखी चीख दबाओ !
दर्द पी जाओ ...
चलने दो व्यवस्था ...
3.
बम चाहे जहाँ भी फूटे
मेरे सीने में गड्ढे बढ़ते ही जाते हैं,

अमेरिका चाहे ईराक को लूटे
मेरे घर में वस्तुएं घटती ही जाती हैं.
कुवैत हो की इरान,
अफगानिस्तान या हिन्दुस्तान
भय का अंधकार
बढ़ता ही जाता है.
                                                       
  4.
चोरों ने तय किया - वे अपना संविधान बनायेंगे,
अपनी सहूलियत के लिए इस संसार में
वे अपना चोर-संसार बनायेंगे
उसकी अपनी नैतिकताएं होंगी
अपने आदर्श ; सबसे बढ़कर ये कि उसमें
जो नहीं होंगे चोर
उनके लिए भी काफी जगह होगी ....
5.
खुश है लोग
लोकल ट्रेन में ठसे हुये हैं ,
मगर खुश हैं!
पाँवों तले रौंदे जाने के बावजूद खुश हैं
तीसरी दुनियां के देशों में --
यह बात पसंद नहीं आती 'बुश' को (उस को...)
कि अभी तक लोग 
खुश हैं...

6.
हीक भर नरक के बाद
पीक भर स्वर्ग!
कमाल के दाता हो !
7.
बड़ी बड़ी होर्डिंगों पर
नगर के चौराहों पर औरत के जिस्म के
भीतर का आदमी
नाच रहा है
आदमी के भीतर की औरत
तालियाँ बजा रही है
सबकुछ
बहुत ठोस
भीतरी सूक्ष्म तल पर बदल रहा है.

8. 
सवाल ये नहीं है कि पुरुष औरत को देह समझता है
औरत भी यही समझती है
और पुरूषो कि मिलीभगत से चल रहा है कारोबार ;
देह एक प्रोडक्ट -
एक प्रोडक्ट को बेचने के लिए देह --
देह साबुन ,देह तौलिया ,देह चादर ,
देह जूस, देह चॉकलेट, देह पेट्रोल, देह मिसाइल

देह ही देह से भरी है विश्व-बाजार की फाइल !

9.
चिड़िया पक्षी गाय
बकरी दीमक चींटे
पानी खरीदने खड़े होंगे एजेंसियों में
जहाँ यंत्र स्तनों से प्रति लीटर
नापकर दूहेंगे पानी

वे एक बटन दबायेंगे
एक बूंद कम पानी भर जायेगा
वर्तन में , बूंद बूंद से
भरता रहेगा उनका समुद्री उदर....
10 .
पहले थोडा गेहूँ डालो
चक्की चला दो
फिर थोडा कंकड़ डालो
चक्की चला दो
एक झक्कास पैकेट में बंद करो
बाजार में पंहुचा दो .
चक्की चलती रहेगी!
     11.
एक जैसी इमारतें
एक जैसे कमरे
एक जैसे चेहरे
एक जैसी भाषा
एक जैसा अंदाजे-बयां

एक जैसी मौत
एक जैसी कब्र

यानि ऊब ही ऊब
बहुत खूब!
12.
भाषा से नफ़रत
शब्द से नफ़रत
शब्द में जीने वाले मन से नफ़रत
मन को रखने वाले तन से नफ़रत

'खांखर" शब्द को क्यों रख दें आंग्ल में ?
उसे वहां भी क्यों न रहने दें - जहाँ है ?

पंछियों का बदलें भूगोल
बदल दें जलवायु !
सभी पेड़ एक ऊंचाई के
सभी फूल  निर्गंध ...
13.
वे भविष्य में एक गोली दागेंगे
जिसकी आवाज वर्तमान में सुनाई देगी
और लहूलुहान होगा अतीत
फिर हमारे संग्रहालय ,पुस्तकालय  और सभी तरह के आलय
जिसमें हम अपना इतिहास रखते हैं -- जला दिए जायेंगे !
वहां लटका दी जाएँगी उनके नाम कि तख्तियाँ
हमारे हजारों साल के इतिहास को मेटकर वे अपना दो हजार साल का
इतिहास पढ़ाएंगे ; हमारी अगली पीढ़ियों को
आधुनिक बनायेंगे !
14.
पूरब के दिल में इस तरह एक सन्नाटा
फैल रहा है - जैसे पुराना बड़ा कमरा हो, जिसमें
बरसों से कोई नहीं रह रहा हो...
15.
अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस गया,
तुम निकल सकते हो
वह बाहर निकलना नहीं जानता था
तुम जानते हो

अभिमन्यु !
अपने जाने हुए को
समूचा दाव पर लगा गया :
हमें
बाहर निकलने का रास्ता दिखा गया!

सोमवार, 5 सितंबर 2011

लेकिन पत्रकार भाइयों ! मेरा नाम हैं बम्बई फिल्म इंडस्ट्री !


लेकिन पत्रकार भाइयों ! मेरा नाम हैं बम्बई फिल्म इंडस्ट्री ! 
निर्देशक की डायरी १०
पूरी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री पिछले १५ साल से गिड़गिड़ा रही है की हम हिंदी फिल्म इंडस्ट्री या भारतीय फिल्म इंडस्ट्री या बम्बई फिल्म इंडस्ट्री कहे जाना पसंद करते हैं. बम्बई फिल्म इंडस्ट्री, कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री, मद्रास फिल्म इंडस्ट्री और लाहौर फिल्म इंडस्ट्री, यही चार पुराने नाम और शहर हैं जहाँ से भारत में सिनेमा बनना शुरू हुआ. बम्बई फिल्म इंडस्ट्री को कब कुछ महामूर्ख पत्रकारों ने बॉलीवुड जैसा नितांत नकलची नाम चिपका दिया, आज अनुसन्धान का विषय है. १९३२ में जब कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री बाकि सबसे ज्यादा और बेहतर सिनेमा प्रोड्यूस कर रही थी तो उसने अपने आप को टॉलीवुड कहना शुरू कर दिया. "The term "Bollywood" has origins in the 1970s, when India overtook America as the world's largest film producer. Credit for the term has been claimed by several different people, including the lyricist, filmmaker and scholar Amit Khanna, and the journalist Bevinda Collaco." 
 इंटरनेट पर उपलब्ध उपरोक्त सूचना ये बता रही है की इस शब्द को दो महानुभाओं एक गीतकार और एक पत्रकार ने प्रमोट किया. गीतकार हों या पत्रकार इनका चरित्र लगभग एक जैसा ही होता है. गीतकार भावों को गुनगुनाते हैं और पत्रकार सूचनाओं को. कुछ चलताऊ विचारों के सिवा इन दोनों तरह के चरित्रों में समानता देखी जा सकती है. इन्हें बिकाऊ सामान बनाना है. इन्हें जल्द जुबान पर चढ़ने वाला अल्फाज़ चाहिए, बिना प्रयत्न भेजे में धसकने वाले विचार चाहिए. ऐसे में बॉलीवुड सुविधाजनक है. भले ही इसके पीछे हॉलीवुड की नक़ल की दरिद्र मानसिकता जाहिर होती है. १९७० में हॉलीवुड से संख्या में ज्यादा फिल्में बना लेने के कारण कुछ लोगों ने ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में इस शब्द का सप्रयास प्रवेश कराया. 
मै फिर से बम्बई फिल्म इंडस्ट्री शब्द को प्रतिष्ठित देखना चाहता हूँ. समूचे भारत में जो सिनेमा बनता है जिसे इंडियन सिनेमा कहा जाना उचित है. बम्बई फिल्म इंडस्ट्री को हिंदी फिल्म इंडस्ट्री कहने के पीछे साफ़ तर्क ये है कि यहाँ सबसे ज्यादा हिंदी सिनेमा बनता है और दुनिया में वह इसी के लिए ख्यात है लेकिन यहाँ सिर्फ हिंदी सिनेमा ही नहीं बल्कि हिन्दुस्तान की हर भाषा का सिनेमा बनता है. हिन्दुस्तानी इंग्लिश या हिंगलिश भी उन्ही में एक है. ऐसे में इसका ओरिजिनल और पुराना नाम बम्बई फिल्म इंडस्ट्री ही मुझे सबसे ज्यादा आत्मीय लगता है. 
शहरों के बदलते नाम भी मुझे ऐसा अहसास दिलाते हैं जैसे किसी दोस्त ने बोलचाल के चिर परिचित नाम से बुलाये जाने से इंकार कर दिया हो और अब चाहता हो कि उसे स्कूल के नाम से बुलाया जाये.
" अब मै कोलकाता हूँ, मुझे कलकत्ता मत बोल जाहिल !"
"अब मै मुंबई हूँ   ........
अब मै चेन्नई हूँ.....

लेकिन पत्रकार भाइयों ! मेरा नाम हैं बम्बई फिल्म इंडस्ट्री ! 

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011


उलाहना 
अब
अपरिचित होने की हद तक हम लोग 
संपर्क में नहीं हैं.
एक थे तुम,
एक था मै - एक थे हम !
तुम गए की दिल मेरा राह - राह हो गया. 
दिल तबाह हो गया... 

अनुपम 
(१९८८, बनारस )

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

इ फिल्मी लोग...


निर्देशक की डायरी ९ 
इ फिल्मी लोग...
लालू  प्रसाद यादव जिस अपमानजनक तरीके से संसद में 'फ़िल्मी लोग' इ फिल्मी लोग शब्द  का प्रयोग कर रहे थे और कुछ फिल्म कर्मियों का नाम तोड़ मरोड़कर ले रहे थे और उसपर सदन में जिस तरह की मनोरंजक प्रतिक्रिया हो रही थी, उस से फिल्म कर्मियों और कला, संस्कृति  के प्रति राजनितिक महकमे की ओछी सोच का पता चलता है. मेरे ख्याल से इतना ही काफी है उनपर और संसद पर मानहानि का दावा करने के लिए. समान नागरिक संहिता के तहत फिल्मी लोग किस दर्जे में आते हैं ? क्या वे सम्मानजनक सेवा का, मनोरंजन और ज्ञानवर्धन का काम नहीं कर रहे हैं ? 
कई फिल्म कर्मी सदन में भी हैं और कोई भी फिल्म कर्मी उतना फूहड़ मनोरंजन नहीं करता जितना की लालू सदन के भीतर कर रहे थे. नेता के रूप में अगर कैरियर ख़तम हो गया हो तो सिनेमा में उनको भाग्य आजमाना चाहिए. अन्ना हजारे की जाति का पता लगाने के बाद लालू बहुत खुश हो  गए हैं. अन्ना की तरह ही उन्होंने कभी कृष्ण से भी अपना जातिगत रिश्ता जोड़ लिया था. हालाकि कृष्ण बांसुरी बजाते हैं और ये १५ वर्ष तक बिहार पर बांस बजाते रहे. जातिगत रिश्ते की जगह अगर लालू ने भगवान कृष्ण से भावगत रिश्ता जोड़ा होता तो इनकी समझ में आया होता की कृष्ण दुनिया के पहले सर्वगुण संपन्न सोलह कलाओं में पारंगत कलाकार थे. और ये फिल्मी, नाटकवाले, गायक, कवि , लेखक सब उनकी जायज संताने हैं. हलाकि अपने १५ वर्ष के शासन काल में आपने बिहार से एक - एक कवि, कलाकार, संगीतज्ञ, चित्रकार, समाज सेवी, सबको उखाड़कर फेक दिया था. लेकिन अब आप क्या करेंगे ? समय बदल गया है.
 तुलसी बाबा ने कहा है - 
उघरही अंत न होही निबाहू , कालनेमि जिमी रावन राहू.
 तो अंत तो उघरना ही है. सच से कबतक मुह छुपायेंगे ?
 फिल्मी लोग तो ट्रांसपरेंट हैं. वे अपने ऊपर होने वाले गॉसिप को भी नहीं रोकते और आपलोग तो सच भी सुनने को राजी नहीं हैं.
ओम पुरी के सत्य वचन से संसद का अपमान हो जाता है तो क्यों नहीं आप लोग एक लिखित और मौखिक परीक्षा टीवी चैनल के सामने दे देते हैं, ( जिनको आप ही में से किसी नेता ने 'डब्बेवाले' शब्द से संबोधित किया है ) और प्रश्नावली तैयार करने का काम अपर प्राइमरी के बच्चो को दिया जायेगा. मंजूर हो तो बताइये.
 आखिर इम्तहान की घड़ी कभी न कभी तो आनी ही थी.