रविवार, 12 सितंबर 2010

Manoj sochate hain kyonki dimaag sahi sochane ke liye bana hai...मनोज सोचते हैं क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है ..

कॉमन मैन - एक  
मनोज सोचते  हैं  क्योंकि  दिमाग  सही  सोचने  के  लिए ही   बना  है ..

मनोज सोचते हैं 
क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है 
मनोज कोई नेता नहीं हैं 
अभिनेता नहीं हैं 
पीले नहीं है 
हरे नहीं हैं 
नोट की गड्डियाँ मुह में भरे नहीं हैं 
आम इन्सान हैं 

मनोज मुरारी मोहनियावाले 
छोटे है
सांवले हैं बावले हैं-
गाड़ी चलाते है 
साहबों की गाड़ियों के लिए ड्राइवर सप्लाई करते हैं 
खाली समय में पेंटिंग करते हैं 
 चित्र बनाते हैं 
(बम्बई की कालोनियों के छोटे उद्यानों (पार्क) में बच्चों की कल्पनाओं को मनोज ने ही दीवारों, फर्श और सीवरों पर साकार किया है )
और दुनिया के चित्र को चितवते हैं --
'अन्टार्क्टिका में मिथेन  की बारिश हो रही है 
ध्रुव के अँधेरे में अँधेरी जितने बड़े - बड़े बर्फ के पहाड़ टूट कर समुद्र में पिघल रहे हैं '
मनोज की पैनी नजर उस सुदूर भविष्य पर है जहाँ सब जल रहे हैं-  
बाबा कहते थे सब भसम (भष्म ) हो जायेगा, 
अगर दो मीटर पानी बढ़  जाये तो पृथ्वी का क्या होगा ?
सब डूब जायेगा ..रिलायंस भी और हुसैन की गैलरी भी ..

मनोज कोई उद्योगपति नहीं हैं 
एक अदना इंसान हैं 
आप व्यंग्य से कह सकते हैं की महान हैं ! लेकिन सवाल ये है की दिमाग सही सोचने के 
लिए ही बना है न की नजर बंद कर देने के लिए ?

मनोज बी.ए., एम्. ए . नहीं हैं 
पी. एच. डी. नहीं हैं,  चौथी तक पढ़े है
लेकिन  
आधारभूत पढाई की नसों में घोले जा रहे धर्म के विष से सांवले से बैगनी हो गए है- 
"मुझे तो याद भी नहीं की जवान - जहान होने तक हमें धर्म और जाति का कुछ पता चला था ..
और यहाँ महानगर में क्यों कराई जाति है बच्चों से धार्मिक  प्रार्थनाएं ? "

कभी आप मिलिए मनोज से और कहिये की आप अपने वे अनुभव सुनाएँ जिनको कवि ने भी नहीं दर्ज किया !
मनोज पर्यावरण को बचाना चाहते हैं वह चाहे बच्चों के सुकोमल मन का हो या पृथ्वी का !
मैंने मनोज को सात बंगला के उस नीम के पुराने  पेड़ के बारे में बताया जिसकी आजकल चल पड़ी है ,
उसे खूब विज्ञापन मिल रहे हैं 
वह सड़क के ठीक किनारे है हॉट प्वाइंट पर 
सब नजरें उसकी डालियों से टकराती हैं 
डालियों पर दुनिया भर के विज्ञापन लटके हैं 
तने पर भी कील ठोककर दर्ज किये गए हैं घर बैठे हजारों कमाने के सुअवसर, दर्द और नपुंसकता के समाधान..

"विज्ञापन के एवज में एजेंसियां और विज्ञापनदाता नीम को खाद पानी देते होंगे ?
सूखी डालियाँ छंटवा देते होंगे ?
अडोस - पड़ोस दंतुवन बंटवा देते होंगे ? इसीलिये और पेड़ों की तुलना में उसकी चल पड़ी है! है न ?
मनोज इसी तरह के काव्यात्मक सवाल पूछते हैं और गंभीर हो जाते हैं -
  सरकार इलीगल पेड़ों की छंटाई पर अड़ी है" मनोज तुक मिलाते हैं . 
पेड़ कैसे एलीगल होंगे भला ?
वे तो एक आदमी के खड़े होने भर जमीन लेते हैं और सैकड़ो को छाँव देते हैं !

किसान और बाजार के बीच
 अब छोटे- मोटे दलाल नहीं रिलायंस है जो केले खरीदकर पका रहा है 
खून जलाकर पीले केले खिला रहा है,
 खा रहा है हर महीने बिजली के बिल में चार से आठ सौ रुपये ज्यादा 
क्या है इसका इरादा ?
क्या पेड़ लगवाएगा ?
ओजोन की मरम्मत करवाएगा ?
पृथ्वी को बचाएगा ?
एजुकेशन का नवीनीकरण करेगा ?
या सिर्फ अपना   खाली खोपड़ा ( दिमाग ) भरेगा ?

माफ़ करना भाइयों !
मनोज नेता नहीं है
अभिनेता नहीं हैं 
कॉमन मैन हैं, 
आम आदमी हैं मगर सोचते हैं क्योकि .......



Manoj sochate hain kyonki dimaag sahi sochane ke liye bana hai...

मनोज सोचते  हैं  क्योंकि  दिमाग  सही  सोचने  के  लिए ही   बना  है ..

मनोज सोचते हैं 
क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है 
मनोज कोई नेता नहीं हैं 
अभिनेता नहीं हैं 
पीले नहीं है 
हरे नहीं हैं 
नोट की गद्दियाँ मुह में भरे नहीं हैं 
आम इन्सान हैं 

मनोज मुरारी मोहनियावाले 
छोटे है
सांवले हैं बावले हैं-
गाड़ी चलाते है 
साहबों की गाड़ियों के लिए ड्राइवर सप्लाई करते हैं 
खाली समय में पेंटिंग करते हैं 
 चित्र बनाते हैं 
(बम्बई की कालोनियों के छोटे उद्यानों (पार्क) में बच्चों की कल्पनाओं को मनोज ने ही दीवारों, फर्श और सीवरों पर साकार किया है )
और दुनिया के चित्र को चितवते हैं --
"अन्टार्क्टिका में मीथेन की बारिश हो रही है 
ध्रुव के अँधेरे में अँधेरी जितने बड़े - बड़े बर्फ के पहाड़ टूट कर समुद्र में पिघल रहे हैं "
मनोज की पैनी नजर उस सुदूर भविष्य पर है जहाँ सब जल रहे हैं 
"बाबा कहते थे सब भसम (भष्म ) हो जायेगा, 
अगर दो मीटर पानी बढ़  जाये तो पृथ्वी का क्या होगा ?
सब डूब जायेगा ..रिलायंस भी और हुसैन की गैलरी भी .."

मनोज कोई उद्योगपति नहीं हैं 
एक अदना इंसान हैं 
आप व्यंग्य से कह सकते हैं की महान हैं ! लेकिन सवाल ये है की दिमाग सही सोचने के 
लिए ही बना है न की नजर बंद कर देने के लिए ?


मनोज बी.ए., एम्. ए . नहीं हैं 
पी. एच. डी. नहीं हैं,  चौथी तक पढ़े है
लेकिन  
आधारभूत पढाई की नसों में घोले जा रहे धर्म के विष से सांवले से बैगनी हो गए है- 
"मुझे तो याद भी नहीं की जवान - जहान होने तक हमें धर्म और जाति का कुछ पता चला था ..
और यहाँ महानगर में क्यों कराई जाति है बच्चों से धार्मिक  प्रार्थनाएं ? "

कभी आप मिलिए मनोज से और कहिये की आप अपने वे अनुभव सुनाएँ जिनको कवि ने भी नहीं दर्ज किया !
मनोज पर्यावरण को बचाना चाहते हैं वह चाहे बच्चों के सुकोमल मन का हो या पृथ्वी का .
मैंने मनोज को सात बंगला के उस नीम के पुराने  पेड़ के बारे में बताया जिसकी आजकल चल पड़ी है ,
उसे खूब विज्ञापन मिल रहे हैं 
वह सड़क के ठीक किनारे है हॉट प्वाइंट पर 
सब नजरें उसकी डालियों से टकराती हैं 
डालियों पर दुनिया भर के विज्ञापन लटके हैं 
तने पर भी कील ठोककर दर्ज किये गए हैं घर बैठे हजारों कमाने के सुअवसर, दर्द और नपुंसकता के समाधान..

"विज्ञापन के एवज में एजेंसियां और विज्ञापनदाता नीम को खाद पानी देते होंगे ?
सूखी डालियाँ छंटवा देते होंगे ?
अडोस - पड़ोस दंतुवन बंटवा देते होंगे ? इसीलिये और पेड़ों की तुलना में उसकी चल पड़ी है! है न ?
मनोज इसी तरह के काव्यात्मक सवाल पूछते हैं और गंभीर हो जाते हैं -
  सरकार इलीगल पेड़ों की छंटाई पर अड़ी है" मनोज तुक मिलाते हैं . 
पेड़ कैसे एलीगल होंगे भला ?
वे तो एक आदमी के खड़े होने भर जमीन लेते हैं और सैकड़ो को छाँव देते हैं !

किसान और बाजार के बीच
 अब छोटे- मोटे दलाल नहीं रिलायंस है जो केले खरीदकर पका रहा है 
खून जलाकर पीले केले खिला रहा है,
 खा रहा है हर महीने बिजली के बिल में चार से आठ सौ रुपये ज्यादा 
क्या है इसका इरादा ?
क्या पेड़ लगवाएगा ?
ओजोन की मरम्मत करवाएगा ?
पृथ्वी को बचाएगा ?
एजुकेशन का नवीनीकरण करेगा ?
या सिर्फ अपना   खाली खोपड़ा ( दिमाग ) भरेगा ?

माफ़ करना भाइयों !
मनोज नेता नहीं है
अभिनेता नहीं हैं 
कॉमन मैन हैं, 
आम आदमी हैं मगर सोचते हैं क्योकि .......