बुधवार, 20 जुलाई 2011

उगने लगे शब्द/ From - जलतरंगों की आत्मकथा, published by kitabghar

उगने लगे शब्द 

अनुपम 
(बरसात में मै रामांटिक हो जाता हूँ. बहुत सुंदर कवितायेँ याद आती हैं . मेरे पहले और अबतक प्रकाशित एक मात्र संग्रह जलतरंगों की आत्मकथा की एक अति रोमांटिक कविता पब्लिश कर रहा हूँ. संग्रह १९९२ में किताब घर ने प्रकाशित किया था और ये कविता १९८८ में लिखी गई थी जब मैं जब मै महज १८ साल का था और मेरी तुलना एक कवि चित्रकार ने किट्स से की थी. एक नए कवि के लिए यह तो पुरष्कार जैसा था. लीजिये आप भी पढ़िए. )
मेरी अँगुलियों से लिपट गया है एक शब्द अंगूठी सा 
कहीं ये तुम्हारा नाम तो नहीं 
मेरे स्वर में बार बार गुनगुना रही है मुझे एक धुन 
कहीं ये तुम्हारी हँसी तो नहीं 
मैंने नहीं सुनी है तुम्हारी हँसी
नहीं जनता हूँ नाम 
तुम्हे देखते ही मेरी आँखों में उगने लगे शब्द 
झरने लगे शब्द 
तुम्हारे आसपास रंगीन बुलबुलों से बिखरने लगे शब्द
तुम्हारी अलकों में, माथे पर 
संवारने लगे शब्द 
मेरे शब्द ;
 
और शब्दों के घेराव में तुम्हारा रूप 
भोर के होठो से चुराई  गई 
अंजुरी भर धूप
तुम्हारा रूप कविता सा लगा 

तुम्हारी आँखें मेरे चुराए उन क्षणों सी 
जिनमें मेरे गीतों ने तुम्हारे होठों को
हाँ, तुम्हे ही तो पुकारा था
लौट गए थे तुम अनसुने 

दूर तक गूंजती रही तुम्हारी पदचाप 
दिक् कन्याओं की अलकों से झरी चांदनी उदास 
और मैं आकाश गंगा में एक नामहीन तारे सा गुम गया
तब भी
हाँ, तब भी मेरी कलम की नोक से झरे थे नीले फूल !

तबे मेरा कवि मन 
छली मन 
शब्दों की तरह बिखरा है रंगमंच पर एक सूनी प्रतीक्षा में 
शायद तुम - 

तुम उन्हें अपने पाँवों में पिरो लो !