मंगलवार, 22 नवंबर 2011

शोषक भैया

अज्ञेय की एक कविता

शोषक भैया

शोषक भैया !
पी लो
मेरा रक्त मीठा है,
 ताज़ा है,
सुहृद है

 पी लो शोषक भैया

मै कुछ न कहूँगा
पी लो,
लेकिन तुम अपना मेदा देखो

क्योंकि उसका क्या करोगे
कि तुम्हारा और मेरा जो सम्बन्ध है
वही तुम्हारा काल है.

सोमवार, 21 नवंबर 2011

गुरिल्ला सिनेमा का घोषणा पत्र और गुरिल्ला सिनेमा की तैयारी - का पुनर्प्रकाशन




  • गुरिल्ला सिनेमा का घोषणा पत्र!


    अनुपम


    अच्छा सिनेमा! इसलिए क्योंकि मै जानता हूँ कि सिनेमा धर्म और राजनीति से ज्यादा तेजी से समाज को मोटिवेट कर सकता है. गढ़ों और मठों की संगठित शक्ति को परास्त करने का, ढहा देने का शक्तिशाली माध्यम बन सकता है सिनेमा. इसलिए ऐसे बुद्धिजीवी जो राजनीति  और धर्म से परहेज करते हों वे सिनेमा को अपनी ताकत बना सकते हैं. सिनेमा से समाज को सुंदर बना सकते हैं.
    कवि और नाटक कार हमारे यहाँ एक ही व्यक्ति हुआ करता रहा है. सिनेमा को नाटक की सहजता से बनाने का समय आ गया है. ५ डी कैमरा का उपयोग करके बहुत सस्ते में फिल्म बनाई जा सकती है. लागत इतना कम आएगा की आप दो चार थियेटर में दिखा कर भी अपना पैसा निकाल सकते है और क्षेत्रीय सिनेमा का स्तर उठा सकते हैं. मै जानता हूँ की छोटे शहरों में बड़े सिनेमा के सपने देखनेवाले क्रिएटिव लोग हैं.
    उपलब्ध लोकेशन के हिसाब से सिनेमा लिखिए, वही से कलाकार लीजिये, रिहर्सल करिए, और फिल्म बनाइये. कवियों, कहानीकारों, नाट्यकर्मियों, चित्रकारों में फिल्म परिकल्पना की सहज प्रतिभा होती है. दो चार शॉर्ट फ़िल्में बनाकर हाथ साफ़ करना चहिये. महज डेढ़ लाख में ५ डी कैमरा आ जायेगा. कहानी तो वही कहनी है बस दृश्य और ध्वनि की भाषा में कहना है. निर्देशक का काम अपने मातहत टेक्नीशियनों को अपनी फिल्म समझा देना ही है.
    तो बनाइये अपने शहर में एक अच्छा सिनेमा.

गुरिल्ला सिनेमा की तैयारी ३ , २७-११-२०११ 
सिनेमा जीवन के समान है . जीवन की छवि है और जीवन से सौ गुना जीवंत है. सिनेमा अनंत है. उनमे ही एक कड़ी है गुरिल्ला सिनेमा. आपके अनुभव, परिवेश, संस्कार और सम्बन्ध सरोकार निजी हैं, इन्हें क्षेत्रीय स्तर पर छोटे छोटे ट्रूप अति लघु बजट की फिल्म और अति उत्कृष्ट कथानक बनाकर अपनी रचनात्मक भूख शांत करेंगे  .  यहाँ न कोई हीरो होगा न जीरो होगा. सब साथी होंगे. सृजन के साथी!
एक शिक्षक, समाज चिन्तक, वैज्ञानिक, डाक्टर ही नहीं एक सामान्य मजदूर के दिमाग  में हो सकता है एक  बढ़िया सिनेमा. यानि उसके जीवनानुभवों में भी. उसे वहां से निकाल कर तराश कर प्रगट( विजुअलाइज) करने की जरूरत है.
" ये इल्तिजा ए मोहब्बत नहीं जरूरत है." ( बशीर बद्र )
निर्माण :
उपलब्ध लोकेशन के हिसाब से साहित्य के या नई कहानी से कथानक का चयन.
(चित्रात्मक उपन्यासों और कहानियों में बनी बनाई स्क्रिप्ट मिल जाती है.)
चरित्रों से मिलते जुलते चेहरों का अभिनेता के रूप में चयन, कास्टिंग.
नाटक की तरह जबर्दश्त एक महीने का रिहर्सल. संवाद और मूवमेंट, गति का पूर्ण अभ्यास. 
अपने शहर के चित्रकला, पेंटिंग के छात्रों से कला निर्देशन, छायाकार आदि का चयन. 
५ डी, ७ डी कैमरे से शूटिंग , एडिटिंग.
अपने आसपास कही भी आपको एक डबिंग, रिकार्डिंग  स्टूडियो मिल जाएगा, गीत संगीत का काम अपने शहर या स्थान के कलाकारों, संगीतज्ञों को दे दीजिये. 
ये छोटे समूह बड़ा सिनेमा बना सकते हैं. 
मै जानता हूँ की तमाम छोटे, बड़े शहरों में लोगों के सपनो में बड़ा सिनेमा भ्रूण के रूप में प्रगट होता है.
 उसे बन्धुवत सहयोग की जरूरत है.
सबका शुभ हो. सृजन हो.
पुनः - अपने विचारों और सपनों को य्न्मुक्त करिए!
शुभ दिन !

डॉ. अनुपम 



गुरिल्ला सिनेमा की तैयारी -  २                            डॉ. अनुपम, 21-11-2011
स्टेप 1, स्क्रिप्टिंग :
इन तमाम वर्षों में फिल्म पर अनुसन्धान के दौरान जो भी मैंने चिंतन मनन किया है वह सब जल्द ही पुस्तकाकार उपलब्ध हो जाएगा. 
गुरिल्ला सिनेमा का कांसेप्ट मेरे २५ साल के निरंतर अध्ययन मनन और फिल्म दर्शन का परिणाम है.संसार की सभी भाषाओँ में बनने वाली फ़िल्में मैंने देखी हैं और अंग्रेजी तथा हिंदी के दुर्लभ ग्रंथों का अध्ययन किया है.गुरिल्ला सिनेमा वह अमोघ अविष्कार है जिससे मै सहज सृजनात्मक लोगों, आम लोगों के हाथ में सिनेमा नामक जादू को पकड़ा दूंगा. कल्पना करिए कि हर छोटे बड़े शहर से पांच दस ऐसी फिल्मे बनकर आईं हैं, जैसा हम देखना चाहते हैं.
 तकनीकी विकास ने मुझे रास्ता सुझा दिया की  दूसरी किस्म की फिल्म इंडस्ट्री किसी एक शहर में नही बल्कि पूरे देश में होगी.
दूसरी फिल्म इंडस्ट्री क्रिएटिव लोगों के दिमाग में होगी. 

उदहारण के तौर पर - किताबों के बड़े प्रकाशक दिल्ली में हैं तो क्या किताब लिखने के लिए दिल्ली में रहना जरूरीहै ? जिस तरह किसी भी स्थान पर रहकर आप किताब लिख सकते हैं, चित्र बना सकते हैं, उसी तरह अब समय आ गया है कि आप अपनी फिल्म बनाइये.फिल्म बनाना आज से ज्यादा आसान कभी नहीं था. आप एक किताब की तरह अपनी फिल्म स्क्रीन पर लिख सकते हैं. इस दूसरी फिल्म इंडस्ट्री के लिए सबकुछ नया होगा, यहाँ तक कि इनके प्रदर्शन और वितरण की भी अलग प्रणाली होगी, लेकिन पहले दस बीस फिल्मे तो बनें.
गुरिल्ला सिनेमा की विचारधारा को मानते हुए कई मित्र फिल्म बना रहे हैं. मै भी बना रहा हूँ. उच्च कोटि की कविता से जो आनन्द उठा सकते हैं, जिनका मानस इतना विकसित हो, वे मेरे प्रोडक्शन फेरीवाला से बन रही कविता फिल्म से खुश होंगे.गुरिल्ला सिनेमा की इस थियरी के बाद मै प्रैक्टिकल करने जा रहा हूँ.
 गुरिल्ला सिनेमा का तरीका ये है की यहाँ हर काम सहमति -असहमति लेकर किया जायेगा. स्क्रिप्ट से स्क्रीन तक सबकुछ शेयर किया जायेगा. इसी वाल पर हम स्क्रिप्टों का मेला भी आयोजित करेंगे या एक साईट बनायेंगे जैसे पेंटिंग की  या म्यूजिक की ऑनलाइन गैलरियां  हैं. तो स्क्रिप्ट और फिल्म की ऑनलाइन गैलरियां होंगी. 
कहानियां हैं तो उनके खास सुननेवाले भी हैं. दर्शकों के कई ऐसे दल हैं, प्रकार हैं और उनकी संख्या काफी हैं जिनकी पसंद का सिनेमा नहीं बन रहा. उस बाजार को लक्ष्य करिए.
 फ़िलहाल निर्भय होकर एक दूसरे  से स्क्रिप्ट शेयर करिए. एक दूसरे का साथ दीजिये और बनाइये एक अपने मन लायक फिल्म !

 बोलिए.. जय हो ढूंढीराज गोविन्द फालके! 
 जो हरिश्चंद्र बनाने के लिए ब्रिटेन जाकर गुलाम भारत में सिनेमा बिजनेस को ले आये.  हम इसे गाँव गाँव तक पंहुचा देंगे. भारत की हिंदी सहित २० मान्य भाषाओँ के अलावा १००० से ज्यादा बोलियों, बानियों में कहानियों का अक्षय भंडार है.  उसमे हाथ डालिए, जो भी कहानी हाथ आ गई उसको स्क्रिप्ट लिखकर परखिये. 
स्क्रिप्ट लिखना बहुत आसान है - जिस तरह से आप सोच रहे हैं, उसी को शब्द देते जाइए, वाक्य बनाना भी जरूरी नहीं. क्योंकि एशिया समेत पूरे विश्व में फिल्म गुरु और मेकर के रूप में ख्यात सत्यजित राय कहते हैं - फिल्म की स्क्रिप्ट सिर्फ एक परियोजना होती है इसका कोई साहित्यिक महत्त्व नहीं होता.
तो लिखिए सिर्फ अपने लिए, अपनी ख़ुशी के लिए एक स्क्रीनप्ले.

भारतीय दर्शक अब एक बेहतर दर्शक है.
 उसको बढ़िया सिनेमा परोसिये.
आदर का साथ -
डॉ. अनुपम



गुरिल्ला सिनेमा की तैयारी- १ 

क्योंकि मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं मिलते. मुक्तिबोध
बातचीत में ही विचारों के स्फुलिंग जनमते हैं. जे. कृष्णमूर्ति 
पढ़े लिखे लोगों को फिल्म संसार में आना चाहिए. भले घर की महिलाओं को फिल्म संसार में आना चाहिए. जिस से मनोरंजन उद्योग का स्तर ऊपर उठ सके और देश के बाहर हमें लज्जित न होना पड़े.दादा साहेब फालके
क्षेत्रीय सिनमा का विकास होना चाहिए. हमें अपना मनोरंजन खुद पैदा करना चाहिए. अनुपम 

preparation..skill..appreciation..exposure..yah sab to apani jagah par relevant hai hi ..par real problem film ki marketing aur uske business aspect ka hai.. Neel kamal

When our society is being headed towards nowhere. when we are really grasped by some introduced culture that we really can not grasp and when our society is degenerating towards a final darkness of hatred and jealousy, and left us just as mind controlled labors and more importantly when leadership of a country are impotent and surrendered themselves in front of power of wealth then this term “ Gurilla Cinema” may ignite us to walk few more ways with hope and human values. thank you... somnath day

(उपरोक्त विचारों के आलोक में इस प्रारूप की परिकल्पना की गई है. पारस मिश्र और सभी मित्रो को प्रेरणा के लिए धन्यवाद.)

प्रारूप परिकल्पना :
यह ठीक है कि सिनेमा एक स्वप्न से शुरू होता है लेकिन यह एक मेहनतकश कला है. निर्माण से प्रदर्शन तक ( आइडिया से आंसर प्रिंट) की (स्टेप बाई स्टेप) यात्रा एक एक कदम फूंक फूंक कर रखा जाये तभी सकुशल पूरी होती है. इसलिए इसको सीखना होगा. इसको प्यार करना होगा. सिर्फ हिंदी ही नहीं अन्य भाषाओँ की फिल्मे भी देखनी, समझनी होगी.

सिनेमा बनाने की तरफ बढ़ने के पहले हमें कुछ प्रश्नों का स्पष्ट समाधान कर लेना होगा. 
सिनेमा क्या है?
सिनमा क्यों बनाएं?
सिनेमा कैसे बनायें और प्रदर्शित करें?

इसे अगर सिनेमा की तरह ही तीन भाग में बांटें तो एक्ट वन - सिनेमा क्या है? एक्ट टू - सिनमा क्यों बनाएं? एक्ट थ्री - सिनेमा कैसे बनायें ?

पहले दो प्रश्नों का हल मिलते ही तीसरा प्रश्न अपना दरवाजा खुद खोल देगा. आमतौर से लोग तीसरे प्रश्न से समाधान पाना चाहते हैं और फिल्म लोक के काँटों में उलझ जाते हैं.
इन प्रश्नों के विषय में मै अपने मोटे विचार रक्खूँगा और इस ग्रूप में उसपर बहस को आमंत्रित करूँगा. 

सिनेमा क्या है? - 
सिनमा एक सामूहिक कला है जिसे समूह में सीखा, बनाया और दिखाया जाता है. 
सिनमा क्यों बनाएं?
क्योंकि आपकी क्षेत्रीय संस्कृति को आप ही स्क्रीन पर उकेर सकते हैं. सिनेमा समाज को सुंदर बनाने के लिए बनाइये. स्थानीय स्तर एक नए उद्योग का दरवाजा खोलने के लिए बनाइये. सिनेमा के माध्यम से अपने परिवेश को री क्रियेट करने करने के लिए बनाइये.
सिनेमा कैसे बनायें?
वैसे ही जैसे आप नाटक का आयोजन करते रहे हैं. मोटामोटी इसके तीन चरण हैं प्री प्रोडक्शन, प्रोडक्शन और पोस्ट प्रोडक्शन जिसके चार मुख्य कदम (स्टेप) हैं - स्क्रिप्टिंग, कास्टिंग, शूटिंग और एडिटिंग.

सिनेमा क्या है और सिनेमा क्यों बनाये सुनिश्चित कर लेने के बाद सिनेमा कैसे बनायें का रास्ता अपने आप खुल जायेगा. इसे खुद पर लागू किया गया एक नौ महीने का कोर्स माना जाये तो टेक्स्ट, ग्रूप, फिल्म सोसाइटी, एन ऍफ़ डी सी, नेट, वर्क शॉप आदि के सहयोग लेकर तीनो सवालों को क्षेत्रीय स्तर पर स्वयं हल करना होगा. 

आपके विचार आमंत्रित हैं. 

सादर,
डॉ. अनुपम

शनिवार, 19 नवंबर 2011

एक और कविता


एक और कविता 
                                                                                                  अनुपम                                                                                                
मैंने तुम्हे जल की तरह
अपनी आँखों में भर लिया .

सितार के सभी तार सुर में कर लिए 
मैंने तुम्हे अबीर रंग की तरह 
अपनी आँखों में भर लिया
तुम्हारी आवाज को स्वरों की तरह 
 कंठ से लगा लिया है.

गीत सुनाने से ठीक पहले एक आखिरी नजर 
मै साज और समाज को देखता हूँ 

सब सही है 
तानपूरा और तान, सब सही है!

तब मैंने तुम्हे अपनी आँखों में भंग की तरह भर लिया 
गुलाल की तरह तुम्हे दिशाओं में उछाल दिया
और समूचा आसमान 
अपनी आँखों में भर लिया

मैंने देह को अदेह कर दिया.

मैंने तो खुद की सुनी.
तुमने सुना?
और आपने बन्धु!

मेरे बन्धु!

लहसुन का पेड़ एक कवि समय है.

निर्देशक की डायरी १८  

लहसुन का पेड़ एक कवि समय है.


अनुपम 


मुह है तो मुहावरा है - कवि आभा बोधिसत्व की इस उक्ति से मै सहमत हूँ.

 कवि समय उन मुहावरों या उक्तियों को कहते हैं जो कविता के भीतर सत्य मानी जाती हैं. जैसे मानसरोवर में हंसों का मोती चुगना, यमुना में कमल का खिलना आदि. ये 

यथार्थ नहीं हैं लेकिन कविता को अर्थ देने में सहयोगी हैं. भाषा के दायरे में ये यथार्थ हैं.

लहसुन का पेड़ भी एक कवि समय माना जा सकता है. क्योंकि 'लहसुन का पेड़' नहीं होता जड़ होती है लेकिन निरर्थक व्यक्ति या बात के लिए आजकल ये मुहावरा प्रचलन  में है .

पिछले डेढ़ दशक से 'बहन जी का ......' भी एक मुहावरे के रूप में प्रयुक्त हो रहा है, इसका प्रयोग चमचा टाइप लोगों के लिए होता है.


उसी तरह 'चूतियम सल्फेट' भी एक नया मुहावरा है. सुनकर लगता है की किसी रसायन का नाम है. लेकिन ऐसा कोई रसायन होता ही नहीं.बिना मतलब के लोगों के 
लिए इसका प्रयोग किया जाता है या फिर विशेष लोगों के लिए.

 

आप भी कुछ नए मुहावरे बताइये. 


रविवार, 13 नवंबर 2011

निर्देशक की डायरी 19


गुरिल्ला सिनेमा की तैयारी-  १ 

क्योंकि मुक्ति के रास्ते अकेले नहीं मिलते. मुक्तिबोध
बातचीत में ही विचारों के स्फुलिंग जनमते हैं. जे. कृष्णमूर्ति 
पढ़े लिखे लोगों को फिल्म संसार में आना चाहिए. भले घर की महिलाओं को फिल्म संसार में आना चाहिए. जिस से मनोरंजन उद्योग का स्तर ऊपर उठ सके और देश के बाहर हमें लज्जित न होना पड़े.दादा साहेब  फालके
क्षेत्रीय सिनमा का विकास होना चाहिए. हमें अपना मनोरंजन खुद पैदा करना चाहिए. अनुपम 

preparation..skill..appreciation..exposure..yah sab to apani jagah par relevant hai hi ..par real problem film ki marketing aur uske business aspect ka hai.. Neel kamal

When our society is being headed towards nowhere. when we are really grasped by some introduced culture that we really can not grasp and when our society is degenerating towards a final darkness of hatred and jealousy, and left us just as mind controlled labors and more importantly when leadership of a country are impotent and surrendered themselves in front of power of wealth then this term “ Gurilla Cinema” may ignite us to walk few more ways with hope and human values. thank you... somnath day

(उपरोक्त विचारों के आलोक में इस प्रारूप की परिकल्पना की गई है. पारस मिश्र और सभी मित्रो को प्रेरणा के लिए धन्यवाद.)

प्रारूप परिकल्पना :
 यह ठीक है कि सिनेमा एक स्वप्न से शुरू होता है लेकिन यह एक मेहनतकश कला है. निर्माण से प्रदर्शन तक ( आइडिया से आंसर प्रिंट) की (स्टेप बाई स्टेप) यात्रा एक एक कदम फूंक फूंक कर रखा जाये तभी सकुशल पूरी होती है. इसलिए इसको सीखना होगा. इसको प्यार करना होगा. सिर्फ हिंदी ही नहीं अन्य   भाषाओँ की फिल्मे भी देखनी, समझनी होगी.
  
सिनेमा बनाने की तरफ बढ़ने के पहले हमें कुछ प्रश्नों का स्पष्ट समाधान कर लेना होगा. 
सिनेमा क्या है?
सिनमा क्यों बनाएं?
सिनेमा कैसे बनायें और प्रदर्शित करें?

इसे अगर सिनेमा की तरह ही तीन भाग में बांटें तो एक्ट वन - सिनेमा क्या है? एक्ट टू - सिनमा क्यों बनाएं? एक्ट थ्री - सिनेमा कैसे बनायें ?

पहले दो प्रश्नों का हल मिलते ही तीसरा प्रश्न अपना दरवाजा खुद खोल देगा. आमतौर से लोग तीसरे प्रश्न से समाधान पाना चाहते हैं और फिल्म लोक के काँटों में उलझ जाते हैं.
इन प्रश्नों के विषय में मै  अपने मोटे विचार रक्खूँगा और इस ग्रूप में उसपर बहस को आमंत्रित करूँगा. 

सिनेमा क्या है? - 
सिनमा एक सामूहिक कला है जिसे समूह में सीखा, बनाया और दिखाया जाता है. 
सिनमा क्यों बनाएं?
क्योंकि आपकी क्षेत्रीय संस्कृति को आप ही स्क्रीन पर उकेर सकते हैं. सिनेमा समाज को सुंदर बनाने के लिए बनाइये. स्थानीय स्तर एक नए उद्योग का दरवाजा खोलने के लिए बनाइये. सिनेमा के माध्यम से अपने परिवेश को री क्रियेट करने करने के लिए बनाइये.
सिनेमा कैसे बनायें?
वैसे ही जैसे आप नाटक का आयोजन करते रहे हैं. मोटामोटी इसके तीन चरण हैं प्री प्रोडक्शन,  प्रोडक्शन और पोस्ट प्रोडक्शन जिसके चार मुख्य कदम (स्टेप) हैं - स्क्रिप्टिंग, कास्टिंग, शूटिंग और एडिटिंग.

सिनेमा क्या है और सिनेमा क्यों बनाये सुनिश्चित कर लेने के बाद सिनेमा कैसे बनायें का रास्ता अपने आप खुल जायेगा.  इसे खुद पर लागू किया गया  एक नौ महीने का कोर्स माना जाये तो टेक्स्ट, ग्रूप, फिल्म सोसाइटी, एन ऍफ़ डी सी, नेट, वर्क शॉप आदि के सहयोग लेकर तीनो सवालों को क्षेत्रीय स्तर पर स्वयं हल करना होगा. 

आपके विचार आमंत्रित हैं.  

सादर,
डॉ. अनुपम 


शनिवार, 12 नवंबर 2011

यों ही याद आ गई डॉ. देव की ये नज्म -


यों ही याद आ गई डॉ. देव की ये नज्म - 

जिन्हें जमीन में फ़न बोने हैं 
उनको अश्कों से हाथ धोने हैं.
जिनको उड़ने का चाव होता है
उनके सीने में घाव होता है. 

आसमानों में जिनका घर होगा 
उनको ही टूटने का डर होगा
बसेरा छूट  गया है साथी !
वो बिना शक हरा शजर होगा .

और अब सामने वीराना है
कोई ठहराव न ठिकाना है
चंद पलाश के पत्तों के सहारे तुमको 
अपनी उम्मीद के घर जाना है.

जिन्हें जमीन में फ़न बोने हैं 
उनको अश्कों से हाथ धोने हैं

(डॉ. देव की एक नज्म से साभार )

गुरुवार, 10 नवंबर 2011

चार पंक्तियाँ


चार पंक्तियाँ 
भावनाओं का प्रदर्शन मत करो 
भेड़ियों के बीच भासन मत करो.

रौशनी को थाम लो और वक़्त को 
रणभूमियों में बज्र आसन मत करो .

अनुपम 

बुधवार, 9 नवंबर 2011

2 Gazalen

1
प्यार के नाम पर तुम आओगो
दिल की  बेचैनियाँ बढ़ाओगे .

तुम से पहले भी देखे हैं सनम
तुम भला क्या नया दिखाओगे.

कुछ उठाओगे लेकर जाओगे 
इस तरह दोस्ती निभाओगे.
2

बड़े ख़्वाब थे टूट गए
घर छोटे थे छूट गए.

स्वामी जी घबराए हैं
जबसे भांडे फूट गए.

बुरे यार ही साथ रहे
भले लोग तो रूठ गए. 

अनुपम 

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

बहुत सुंदर हो तुम


बहुत सुंदर हो तुम,  मेरी कविताओं से कुछ ज्यादा
मुझे मिलना मत कभी, जीने का एक भ्रम टूट जाएगा .
तुम्हारे न बोलने ने मुझे लिखना सिखा दिया
कुछ न कह के भी तुमने दिखना सिखा दिया.

जरा सा भाव जो तुम देते हो
तो मेरा भाव भी चढ़ जाता है.

तुम मेरे पास जब भी आते हो
रगों में रक्त दौड़ जाता है.

टूट कर बरस रहे है बादल
ऐसे में कौन कहाँ जाता है.

तुम कहीं आसमा से आये हो
ये तेरा हौसिला बताता है.

अनुपम

सोमवार, 7 नवंबर 2011

बुद्ध का घर

अगर मै मिट भी गया तो क्या बुरा है 
मेरे जैसों का यही हश्र होता है.
जबतक जिन्दा है सब वाह कहते है
हमारे मरने पर खूब जश्न होता है.
बड़े आदर्श पाले हो महाशय
इन्ही से आपका घर नष्ट होता है.
अंधेरो को हमेशा ही रौशनी की 
लहर से कष्ट होता है.
दिया अपना बुझा लो, अब दिये से
बुद्ध का घर भ्रष्ट होता है.

अनुपम 

जानदार लोगों की जरूरत होती है शानदार काम करने के लिए.


निर्देशक की डायरी १८ 
जानदार लोगों की जरूरत होती है शानदार काम करने के लिए.  

अनुपम 

कोई एक्टर जब फिल्म लोक में पैर रखता है तो उसे प्रोफेसनल बनाया जाता है और जब कोई स्क्रिप्ट यहाँ लेकर पहुंचता है तो उसे कमर्शियल बनाया जाता है. दोनों का एक ही मतलब है - भ्रष्ट करना. आज तो भ्रष्ट होना जैसे नैतिकता हो गई है. ऐसे में मै अकेला आदमी हूँ जो सिनेमा से कला की उम्मीद कर रहा है. फिल्म इंडस्ट्री भ्रष्ट आचार में लालू के बिहार की स्थिति में है. ऐसे में ढेर सारे नितीश कुमारों की आवश्यकता है. सहयोगी साथी मिले तो फिल्मे भी बनेंगी. वैसे तो यहाँ गली गली कास्टिंग काउच और कमर्शियल वाउच फैले हुए हैं.
अनचाहे समझौते आपकी आत्मा को क्षीण कर देते हैं. सपोज - एक लड़की एक्टर है लेकिन काम पाने के लिए जिस तिस के साथ सो जाये, तो आधी तो वही ख़त्म हो जायेगी.  स्क्रिप्ट के साथ भी ऐसा ही होता है. उसके साथ प्रोड्यूसर सोता है. पैसा उसकी ताक़त है. 
साहेबान, पैसे के जोर से बनने वाले सिनेमा से अलग हटना होगा एक दर्शक के रूप में भी और एक निर्माता के रूप में भी. 
सिर्फ रोजी रोटी से संतुष्ट हो जाने वाले लोगों से यह काम नहीं होगा. जानदार लोगों की जरूरत होती है शानदार काम करने के लिए.  

रविवार, 6 नवंबर 2011

वन्दौ प्रथम दुष्ट के चरना... सबसे पहले दुष्टों के चरणों में प्रणाम है.


निर्देशक की डायरी १७
वन्दौ प्रथम दुष्ट के चरना... सबसे पहले दुष्टों के चरणों में प्रणाम है.  
अनुपम 

चालाकी से धन कमाया जा सकता है ज्ञान नहीं. मूर्ख इसलिए मूर्ख रह जाते हैं क्योंकि  वे स्वीकार नहीं करते कि वे मूर्ख हैं. वे अपनी समझ पर नहीं सवाल उठाते, बल्कि अपनी नासमझी के लिए दूसरे को जिम्मेवार ठहराते हैं. जैसे अगर किसी की कविता, विचार या स्क्रिप्ट उनकी समझ में नहीं आये तो उनके हिसाब से ये उनकी समझ कि कमी का नतीजा नहीं है,  अगर ऐसा ही है तो तोता मैना की कहानियां ही श्रेष्ठ साहित्य है जो सबको समझ में आती हैं. मूर्खों में गजब का आत्मविश्वास होता है. अपनी समझ की कमी पर वे वैसे दाँत दिखा कर हे हे हे करते हैं जैसे इसके लिए दूसरा जिम्मेवार हो.
जीवन भर मूर्खों से मेरा पाला पड़ता रहा और अब भी इनकी आदत नहीं हुई. जब मैंने फिल्म पर पी एच डी ज्वाइन की तो पूरे  हिंदी विभाग ने ठहाका लगाया था. ५ साल बाद जब मेरी थेसिस छप के आई तो उसी विभाग ने दामाद की तरह स्वागत किया.
कल ही एक महा मूर्ख से टकराया. गिड़गिड़ा कर कई महीने तक उसने स्क्रिप्ट माँगा, अपनी गरीबी दिखाता रहा कि मेरे पास इतने ही पैसे हैं और ज्यों ही उसके हाथ में स्क्रिप्ट दे दी, उसकी बुद्धि खुल गई, अब उसे हर बात समझना है लेकिन विद्यार्थी कि तरह नहीं चालाक कि तरह. अब उसे किसी और को डाइरेक्टर लेना है या शायद खुद ही डाइरेक्ट करना चाहता है. लेकिन चालीस साल में अर्जित ज्ञान चालीस मिनट में घोल कर भी नहीं पिलाया जा सकता. बड़ा कोई डाइरेक्टर उसके साथ आएगा नहीं क्योंकि यहाँ सब सबको जानते रहते हैं. हालाँकि मै मूर्खों का एहसानमंद भी हूँ क्योंकि कई बार ये कुछ कर गुजरने के लिए मुझे प्रेरित करते है. तो इतनी ही इनकी सार्थकता है किसी क्रिएटिव माइंड के लिए. बंगला  के महान साहित्यकार विमल मित्र ने कहा था  कि दासुओं ( दुष्टों)  ने मुझे साहित्यकार बनाया. यानि लिखते रहने के लिए प्रेरित किया. तुलसी दास भी सबसे पहले इन्ही कि वंदना करते हैं -- वन्दौ प्रथम दुष्ट के चरना... सबसे पहले दुष्टों के चरणों में प्रणाम है.  
किसी भी आर्ट फिल्ड में लेट एज में पैसों के बल पर घुसने वाले लोग सबसे ज्यादा फजीहत कि स्थिति पैदा करते हैं. फिल्म इंडस्ट्री में ऐसे लोगों को वन टाइम प्रोड्यूसर कहा जाता है जो फिल्म प्रोड्यूस करने के बहाने फिल्म सीखना चाहते हैं और सिखाने वाले भी मिल ही जाते हैं. ये नॉन कामर्सियल गैर फिल्मी लोग प्रतिभा शाली लोगों के रास्ते में सबसे पहले आते हैं. ज्यादातर इनमे से दलाल होते हैं और एक फिल्म प्रोड्यूस करके अपनी छवि साफ़ करना चाहते हैं. हालाँकि अधिकतर असफल ही होते हैं लेकिन बाज नहीं आते. हम तो डूबेंगे सनम तुमको भी ले डूबेंगे...
मेरा भी सबसे ज्यादा समय ऐसे ही महात्माओं ने ख़राब किया लेकिन अब हमेशा के लिए मैंने इनके लिए दिल दिमाग के दरवाजे बंद कर दिए. किसी भी नए डाइरेक्टर को अपनी पहली फिल्म खुद प्रोड्यूस करना चाहिए या बड़े प्रोडक्शन हाउसेस में अपना प्रोजेक्ट प्रेजेंट करना चाहिए. किसी भी लोभ लालच में फिल्म इंडस्ट्री के हाशिये पर घूमते इन दलालों के चक्कर में नहीं आना चाहिए. मेरा तो बहुत वक़्त ख़राब हुआ लेकिन मेरे अनुभव पढ़कर किसी और का वक़्त बच जाए तो यह आलेख सार्थक होगा.

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

अच्छा सिनेमा!अच्छा सिनेमा!


निर्देशक की डायरी १७ 
अच्छा सिनेमा!अच्छा सिनेमा!
अनुपम
अच्छा सिनेमा! इसलिए क्योंकि मै जानता हूँ कि सिनेमा धर्म और राजनीति से ज्यादा तेजी से समाज को मोटिवेट कर सकता है. गढ़ों और मठों की संगठित शक्ति को परास्त करने का, ढहा देने का शक्तिशाली माध्यम बन सकता है सिनेमा. इसलिए ऐसे बुद्धिजीवी जो राजनीती और धर्म से परहेज करते हों वे सिनेमा को अपनी ताकत बना सकते हैं. सिनेमा से समाज को सुंदर बना सकते हैं.
कवि और नाटक कार हमारे यहाँ एक ही व्यक्ति हुआ करता रहा है. सिनेमा को नाटक की सहजता से बनाने का समय आ गया है. ५ डी कैमरा का उपयोग करके बहुत सस्ते में फिल्म बनाई जा सकती है. लागत इतना कम आएगा की आप दो चार थियेटर में दिखा कर भी अपना पैसा निकाल सकते है और क्षेत्रीय सिनेमा का स्तर  उठा सकते हैं. मै जानता हूँ की छोटे शहरों में बड़े सिनेमा के सपने देखनेवाले क्रिएटिव लोग हैं.
उपलब्ध लोकेशन के हिसाब से सिनेमा लिखिए, वही से कलाकार लीजिये, रिहर्सल करिए, और फिल्म बनाइये.  कवियों, कहानीकारों, नाट्यकर्मियों, चित्रकारों में फिल्म परिकल्पना की सहज प्रतिभा होती है. दो चार शॉर्ट फ़िल्में बनाकर हाथ साफ़ करना चहिये.  महज डेढ़ लाख में ५ डी कैमरा आ जायेगा. कहानी तो वही कहनी है बस दृश्य और ध्वनि की भाषा में कहना है. निर्देशक का काम अपने मातहत टेक्नीशियनों को अपनी फिल्म समझा देना ही है.
तो बनाइये अपने शहर में एक अच्छा सिनेमा.

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

निर्देशक की डायरी १६


निर्देशक की डायरी १६  

सुविचारित आर्ट सबको अच्छा लगता है
अनुपम 

जब से फिल्म इंडस्ट्री में आया हूँ, घुमा फिरा के मुझे एक ही सलाह मिलती है - किसी स्टार को कास्ट कर लीजिये, फिल्म बिक जाएगी, फिनांस आ जायेगा, मै ही प्रोड्यूस कर दूंगा.
अजी साहेबान! मै यहाँ लिख कर स्पष्ट बता रहा हूँ - मुझे नहीं चाहिए सितारों की बैशाखी. मै डाइरेक्टर्स सिनेमा का हिमायती हूँ. मेरी फिल्म मेरे नाम और काम के  बल पर बिकेगी और दिखेगी.मेरा इतिहास उठा कर देख लीजिये. मै 'जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा निकलता है' ( धूमिल ) और अपने आप को प्रोड्यूसर कहता है, डाइरेक्टर कहता है. अगर आप  एक इनबोर्न लीडर नहीं हैं तो आप डाइरेक्टर नहीं हैं. अगर आपके पास एक कवि का ह्रदय और एक कहानीकार का मस्तिष्क नहीं हैं तो आप चाहे जो हों, डाइरेक्टर नहीं हैं. 
अगर आप डाइरेक्टर हैं तो अपने बल पर फिल्म बना कर, चला कर दिखाइये. छोडिये सितारों की बैशाखी. इनका आजकल; कोई ईमान धरम नहीं है. आपमें दम है तो  हर प्रोजेक्ट से सितारे पैदा करिए. 
अब समय आ गया है की गड़े मुर्दे उखाड़े जाने चाहिए. डाइरेक्टर शब्द को गरिमा दिलाने वाले पचास के दशक से शुरू होकर ८५ में लुप्त हो गए 'न्यू वेला सिनेमा' को फिर से जगाना चाहिए.  इस महा बोरिंग हिंदी सिनेमा में एक अर्थपूर्ण, कलापूर्ण, बेहतरीन सिनेमा की कमजोर सी धारा हमेशा से बहती रही है. उसे मुख्यधारा बनाने का समय आ गया है. 
देखिये साहब, सिनेमा सिर्फ सौ साल का हुआ और आपका देश पचास एक साल का. अब शिक्षित लोगों की संख्या ज्यादा है.
 'न्यू वेला सिनेमा' के लिए फ़्रांस, इटली, जर्मनी और रूस समेत समूचे यूरोप और जापान और अमेरिका के लिए ५० का दशक सही था. नवीनता के लिए वह समाज तैयार था. हीरोगीरी से ऊब गया था. उसे नया चाहिए था हर जगह. 
अब हमें नया चाहिए. इस नए समय को साहस के साथ अपनी मुट्ठी में कस सकने वाले ओक्टोपसों  की जरूरत है. एक निर्देशक समय को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेता है और धीरे धीरे उसे मुक्त करता है ताकि उसका अर्थ सामान्य जन के मन की गति से मिल जाये.फिल्मकार ऑक्टोपस होता है न क़ि शिकार हो जाने वाली मछली? वह मगरमच्छ तो बिलकुल ही नहीं होता. उसे अगर टाइम एंड स्पेस पर अपनी पकड़ साबित करने के लिए स्टार का सहारा लेना पड़े तो वह नकलची है. 
ऐसे मच्छ वितरकों पर सारा दोष मढ़ हैं क्योंकि वितरक सबसे अंतिम कड़ी है और आमतौर से वह जवाब देने के लिए सामने नहीं होता. कोई सच्चे शेर के आड़े नहीं आता सिर्फ इन भेड़ बकरियों के.
 एक दमदार निर्देशक को एक कवि, वैज्ञानिक या समाजसेवी के दंभ और कर्तब्यों का निर्वाह करना चाहिए. उसे अपने खयाल का सम्मान करना चाहिए. सुविचारित आर्ट सबको अच्छा लगता है. और अच्छे क़ि समझ वितरकों, फिनान्सरों, प्रोड्यूसरों, सितारों सब को होती है . 

 

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

निर्देशक कि डायरी १५


क्योंकि कवितायें अपनी जमीन नहीं छोड़तीं. 
अनुपम 
कविता मेरा करियर नहीं है, कविता मेरा स्वभाव है, मेरा श्रम है, मेरे दुःख और आंसू , खुशियाँ और आनंद ये सब मेरी कवितायेँ हैं. और मेरी कविताओं की जन्मभूमि मेरा दिल- दिमाग है.
 बम्बई में भी मैंने खूब कवितायेँ लिखी हैं. मुझे मेरी जानी पहचानी जमीन की गंध जब भी जहाँ भी मिली हैं, मैंने कवितायेँ लिखी हैं. लेकिन वास्तव में मेरी सारी कवितायेँ तो मेरे गाँव की छत से ही उड़ान भरती हैं. कवितायेँ इतनी हैं की दो तीन चार संग्रह आ सकते हैं. रोज सोचता हूँ की कम से कम एक संग्रह प्रकाशन के लिए भेज दूँ. एक सेकेण्ड थॉट हाथ रोक देता है - अगर मै बनारस में इन्हें  अंतिम रूप दूँ तो ये और निखर जाएँगी. 
मै नॉस्टेलजिक जैसे मनोवैज्ञानिक शब्द से एक नजरिये के तौर पर सहमत हूँ लेकिन फ्रायड से ज्यादा मुझे अपने अनुकूल आचार्य रामचंद्र शुक्ल लगते हैं और हैं भी. फ्रायड से ज्यादा ठोस और जमीनी मनोवैज्ञानिक आधार चिंतामणि भाग 1 ,२ में परिलक्षित होता है. शुक्ल जी कहते हैं कि जो बीत गया उसे भूल जाओ एक कठोर और निरर्थक बात है. अतीत और स्मृतियों  का वैभव ही हमारी पूंजी है. हमारा रचनात्मक मन उसी से पुनर्सृजन करता है.
मै उस शिक्षा को लानत भेजता हूँ जो आपको आपकी जमीन से उखाड़ दे.
एक लेखक को तो सबसे पहले क्षेत्रीय होना चाहिए.
मै अपने प्राणों में अपने  परिचित परिवेश की गंध से ही जीवित हूँ. मुझे अपने उन बंधुओं पर आश्चर्य होता है जो जड़ समेत उखड़कर कहीं और बस जाते हैं. इसमें कोई बुराई नहीं हैं, सिर्फ कविताओं का साथ नहीं रह जाता. क्योंकि कवितायें अपनी जमीन नहीं छोड़तीं. 

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

निर्देशक की डायरी 14


 मेरी कवितायेँ वहां अंडे सेती हैं.   
 अनुपम 


सचाई ये है की मुझे बम्बई से कोई शिकायत नहीं, दरअसल मुझे बनारस से कुछ ज्यादा ही प्रेम है. कहते है की जो दस साल बनारस में रह जाए वह कहीं और नहीं रह सकता. मेरा अनुभव है की कम से कम चैन से नहीं रह सकता. बनारस एक रोग है, मोहब्बत है. बनारस एक आदत है जो मरे तक नहीं जाती. अपनी स्थानीयता में मै अपने आप को फणीश्वर नाथ रेणु और रसूल हमजातोव के नजदीक पाता हूँ.
बम्बई! मेरा कर्म क्षेत्र! इसने मुझे सबकुछ दिया. यहाँ पैर रखते ही मुझे काम, पैसा, नाम, पार्टियाँ, दोस्त सब मिले. हर वांछित शौक़ मेरा पूरा हुआ. दस साल मै यहाँ भी रह चूका हूँ लेकिन एक दिन के लिए भी अपने को बनारस से बाहर नहीं पाया. इस महासमुद्र में अपने भीतर बनारस लिए मै थक सा जाता हूँ. बोर होने लगता हूँ. यहाँ के सभी ५ स्टार ७ स्टार होटलों के कॉफ़ी शॉप से ज्यादा उन्मुक्त अस्सी चौराहे की चाय की टपरी लगती है. विजया की एक गोली शैम्पेन की पूरी बोतल पर भारी पड़ती है. एक साधारण गृहस्थिन का सौंदर्य अपनी गरिमा से इन सुंदरियों की चमक को धूमिल कर देता है. ये सभी पहाड़ मेरे भीतर विस्तार की वैसी अनुभूति नहीं जगाते जैसा गेहूं का एक छोटा सा खेत कर देता है.

दरअसल मै एक मैदानी आम आदमी हूँ जिसे पहाड़ सिर्फ दर्शन भर ही रिझाते है. सुकून तो मुझे गंगा के किनारों पर ही मिलता है. मेरी कलम बनारस पहुँचते ही इस तरह स्याही उगलती है जैसे अपने बच्चे को देखते ही माँ के सीने  से दूध  फूट पड़ता है.  बनारस के पास ही मेरा गाँव है और मेरी कवितायेँ वहीँ अंडे सेती हैं.   

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

मै नहीं लिखता ... अनुपम ( १२-०९-२०१, मुंबई )


नीलकमल के नोट्स से ---
'तो कविता भी उसी नारियल के पानी जैसी चीज़ होनी चाहिए ।
कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि कवि कोई जादूगर होता है । ऐसा तो बिलकुल भी नहीं है । लेकिन कविता की रचना प्रक्रिया में कहीं न कहीं वह बात अवश्य है कि "देयर इज़ समथिंग मैजिकल इन इट" । आखिर क्यों बड़े से बड़े कवि के लिए भी हर बार बड़ी कविता लिखना कठिन होता है । क्यों किसी बिलकुल नए कवि की एक कविता वह बात कह जाती है जो पहले किसे ने उस ढंग से नहीं कही । क्यों आखिर , "कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयाँ और" । बहुत सम्भव है कि कवि होना व्यक्ति का खुद का चुनाव न हो बल्कि कविता ने स्वयं ही उसे अपने लिए चुन लिया हो ।'(नील कमल, कविता की रचना प्रक्रिया.)
कविता की रचना प्रक्रिया पर नीलकमल का अद्भुत आलेख पढने के बाद हाल ही में लिखी इस कविता को प्रकाशित करना जरूरी हो गया. 

कविता की रचना प्रक्रिया पर मैंने कई कवितायें लिखी हैं 
और उस खास बात को पकड़ लेने की कोशिश की है.'निज में बसने कस लेने' की कोशिश की है और भी हैं लेकिन यह दो सप्ताह पहले की रचना है. लीजिये, कविता की रचना प्रक्रिया के कठघरे में मै भी हाजिर हूँ .

कविता 

मै नहीं लिखता ...                              अनुपम
                                               ( १२-०९-२०१, मुंबई )

नहीं भाई नहीं, मैं कवितायें नहीं लिखता 
(पटकथाएं नहीं लिखता)
मेरी खुशियाँ तो कहीं गाँव घर में रह गईं 
मेरा आनंद बनारस की गलियों में खो गया.

नहीं, भाई नहीं,
मै नहीं लिखता...

कवितायें मुझे लिखती हैं 
मेरे एकांत में खलल डालती हैं 
कहानियाँ मुझे चुनती हैं,
 चरित्र मुझे आकर मांगते हैं .


मै गया था रवीन्द्र नाथ टैगोर के पास
लिओ तोलस्तोय के पास 
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के पास ;
गंगा जमुना की रेती छानता रहा वर्षों 
काव नदी की छिछली 
गोमती की गहरी लहरों को पढता रहा 
किनारा बन पीता रहा नदियों को
सदियों को 

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय 
और 
गजानन माधव मुक्तिबोध 
का संग छोड़ 

मै धूमिल के साथ एक पेड़ के नीचे बैठ गया.
धूमिल
कहीं से एक कील खोजकर लाया 
एक झंवाये टुकड़े से 
वह अपनी टूटी हुई चप्पल गांठने लगा,
मुझे मोचीराम दिखा 
उसके साथ मै रैदास के जूतालय में चिलम फूँक आया 
सभी हकीम लुक्मानो से मिल आया,
और अंत में कबीर से पता चला -
इसकी कोई दवा नहीं,
जब इन्होने ही तुम्हे चुना है

अभिशाप हो या वरदान

मै नहीं लिखता 
इनका चाकर हूँ मै
नहीं दीखता चक्कर मेरे पांवों में 
मेरे भावों में 
विचारों के जाल में नहीं टिकती नन्ही मछलियाँ 
जो मुझे पसंद हैं...

नहीं भाई नहीं 
मै नहीं ...
(सिर्फ वही) . 



गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

'भोर' की कहानी सचमुच सपने में ही देखी थी.

निर्देशक  की डायरी १२
मेरे ड्रीम प्रोजेक्ट 'भोर' द अर्ली  मॉर्निंग के लिए लक्ष्मी माता के दरवाजे खुले...
'भोर' की  कहानी सचमुच सपने में ही देखी  थी.
सपना-- 'मै पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की एक कहानी पढ़ रहा हूँ, एक जोतिहर किसान की कहानी जिसके प्रेम और प्रयासों ने एक गाँव को बदल दिया. यह किसी पत्रिका में प्रकाशित है.' जागने के बाद मेरी नजर मेरे बिस्तर पर बैठे के मित्र पर पड़ी. शायद मै ज्यादा देर सो गया था. वह चिंतित सा बगल में बैठा था. यह वह समय था जब फिल्म पर अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था और कहानी ढूंढ़ रहा था. मैंने दोस्त से पूछा - क्या हरिप्रसाद चौरसिया कहानी लिखते हैं?
क्या बक रहे हो, वे बांसुरी बजाते हैं - दोस्त ने कहा. वह मेरे देर तक सोने से चिढ़ा हुआ था.
तो ठीक है, ये कहानी मेरी है - मैंने कहा. 
कौन सी कहानी?
'वही जो मैंने सपने में पढ़ी. '
आँख खोले बिना मैंने उसको पूरी कहानी सुनाई और उसे हमने कागज़ पर लिख लिया. आठ महीने तक हम दोनों बिहार और यू पी के गांवों में  घूमकर सभी तरह की लोक कथाओं और गीतों को संकलित करते रहे और कई वर्ष के प्रयास से यह स्क्रिप्ट तैयार हुई. बीच में एक दुर्घटना भी हुई - गीतों, कहानियों के टेप और डायरियां, फाइलें लेकर हम अपनी पहली बम्बई यात्रा पर चले तो किसी चोर महाशय ने मोटा माल समझकर अटैची उड़ा ली. हम वापस हो गए. लेकिन हारे नहीं. सिर्फ दो महीने में हमने फिर से लगभग सबकुछ वापस जुटा लिया क्योंकि अब हम स्थानों को जानते थे.
मैंने एक  बार पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी को फोन किया और कहा की सपने में पढ़ी उनकी कहानी पर फिल्म बना रहा हूँ. काफी मनोरंजक बातचीत हुई. मैंने कहानी के लिए उन्हें मेहनताना भी देने की पेशकश की. जाहिर है संगीत में उनका योगदान रहेगा.
कदम बढाने से रास्ते खुलते हैं, सुना था, आज देखा. कई बार हम दरवाजे को कई साल तक एक ही तरीके से खोलते रहते हैं और वह नहीं खुलता. तरीका बदलते ही बात बन जाती है. पिछले ११ साल के बम्बई प्रवास में मैंने ४ स्क्रिप्ट तैयार किया. एकदम परफेक्ट तरीके से और प्रोड्यूसर खोजता रहा. कल दोपहर में पहली बार फिनान्सर के लिए आवाज लगाईं और आज दोपहर तक मेरे पास फिनांस आ गया.  इसमें मेरे लिए कोई चमत्कार नहीं है, यह मेरी यात्रा के इस पड़ाव का सीधा रिजल्ट है. 
 इस साल के अंत तक किसान जीवन के इस महाकाव्यात्मक फिल्म को मै फ्लोर पर ला दूंगा. इसे मै हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ बनाऊंगा. हिंदी, इंग्लिश और भोजपुरी तीन भाषाओं में एक ही थीम पर इस फिल्म को लिखा गया है. गहन रिसर्च और न जाने कितने मित्रों और आम लोगों का कंट्रीब्यूशन है.  कबीर और मुल्ला दाउद की सरजमीं  को सिल्वर स्क्रीन पर उजागर कर देना ही इस फिल्म का उद्देश्य है. मेरे खयाल से इस तरह के काम को अंजाम देने के लिए १० साल की मेहनत को कुछ ज्यादा नहीं कहा जायेगा? यह इसलिए कह रहा हूँ कि लिखने को कुछ लोग आसान  काम समझते हैं, अगर ऐसा ही होता तो हर जेनरेशन  में दस बीस पंडित मुखराम शर्मा और सचिन भौमिक होते या कालिदास और निराला. लक्ष्मी के बेटे अपनी चवन्नी अठन्नी निकालने में भी उसकी पूरी कीमत वसूलना चाहते हैं जबकि हम सरस्वती के बेटे वर्षों की मेहनत से हासिल अमूल्य ज्ञान को भी लगभग मुफ्त में दे देते हैं. 
न दे तो अभिशप्त  ब्रह्मराक्षस बन जायेंगे.
 ज्ञान दान महादान! जय हो माई सरस्वती!  

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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

निर्देशक की डायरी ११


निर्देशक की डायरी ११  
पुरानी डायरी का एक पेज ..
(२-८-१९९६, बिड़ला होस्टल, बनारस)
कि ऐसी चीखती कविता बनाने में लजाता हूँ . मुक्तिबोध 

लुत्ती १                                          अनुपम 
एक ही धरती पर 
एक ही देश में 
तुम अरबों खरबों घोंटने 
घोंटाने में परेशान दिखते हो
कोई पाई दो पाई के लिए 
हैरान होता है 

शत प्रतिशत बेईमानी के बाद की तलछट के लिए मारामारी 
जारी है एक आत्महंता समर्पण

एक ही धरती पर 
एक ही देश में 
हम किस संस्कृति में जी रहे हैं 
किस देश काल में 

हर दिन आपात काल का मातम क्यों 
इस हिन्दुस्तान में इतना अधिक इण्डिया क्यों ?

(संभवतः साहित्य अमृत में प्रकाशित. )

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

कवियों की पृथ्वी

कवियों की पृथ्वी 
बहुत छोटी है मित्र,

मै उस पृथ्वी पर रहना पसंद करूँगा 
जिसपर कवि/ कवी दोनों रहते हैं 
कोई भी मंच
संगठन 
समूह
बंधन 
अंटता नहीं मेरी चेतना में 

सबसे संवाद जरूरी तो नहीं !

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

व्यवस्था , अनुपम


                              व्यवस्था                      अनुपम 

 १.
ग्लोब पर चढ़ी हुई है एक चींटी
ग्लोब में घुसा हुआ है एक तिलचट्टा
एक झिंगुर लिख रहा है नए नक़्शे
पढ़ रही है एक मक्खी,

गुबरैले चला रहे है चक्की.

चल रही है व्यवस्था !...
 २.
शांत रहो ..अभी व्यस्त है वैज्ञानिक
मानवनाशी बम बनाने में -
एक सुरक्षित कंडोम तक जो नहीं बना सके !
व्यस्त है प्रधानमंत्री !
सीमा विवाद सुलझाने में .....
सभी व्यस्त है !... तुम अपनी भूखी चीख दबाओ !
दर्द पी जाओ ...
चलने दो व्यवस्था ...
3.
बम चाहे जहाँ भी फूटे
मेरे सीने में गड्ढे बढ़ते ही जाते हैं,

अमेरिका चाहे ईराक को लूटे
मेरे घर में वस्तुएं घटती ही जाती हैं.
कुवैत हो की इरान,
अफगानिस्तान या हिन्दुस्तान
भय का अंधकार
बढ़ता ही जाता है.
                                                       
  4.
चोरों ने तय किया - वे अपना संविधान बनायेंगे,
अपनी सहूलियत के लिए इस संसार में
वे अपना चोर-संसार बनायेंगे
उसकी अपनी नैतिकताएं होंगी
अपने आदर्श ; सबसे बढ़कर ये कि उसमें
जो नहीं होंगे चोर
उनके लिए भी काफी जगह होगी ....
5.
खुश है लोग
लोकल ट्रेन में ठसे हुये हैं ,
मगर खुश हैं!
पाँवों तले रौंदे जाने के बावजूद खुश हैं
तीसरी दुनियां के देशों में --
यह बात पसंद नहीं आती 'बुश' को (उस को...)
कि अभी तक लोग 
खुश हैं...

6.
हीक भर नरक के बाद
पीक भर स्वर्ग!
कमाल के दाता हो !
7.
बड़ी बड़ी होर्डिंगों पर
नगर के चौराहों पर औरत के जिस्म के
भीतर का आदमी
नाच रहा है
आदमी के भीतर की औरत
तालियाँ बजा रही है
सबकुछ
बहुत ठोस
भीतरी सूक्ष्म तल पर बदल रहा है.

8. 
सवाल ये नहीं है कि पुरुष औरत को देह समझता है
औरत भी यही समझती है
और पुरूषो कि मिलीभगत से चल रहा है कारोबार ;
देह एक प्रोडक्ट -
एक प्रोडक्ट को बेचने के लिए देह --
देह साबुन ,देह तौलिया ,देह चादर ,
देह जूस, देह चॉकलेट, देह पेट्रोल, देह मिसाइल

देह ही देह से भरी है विश्व-बाजार की फाइल !

9.
चिड़िया पक्षी गाय
बकरी दीमक चींटे
पानी खरीदने खड़े होंगे एजेंसियों में
जहाँ यंत्र स्तनों से प्रति लीटर
नापकर दूहेंगे पानी

वे एक बटन दबायेंगे
एक बूंद कम पानी भर जायेगा
वर्तन में , बूंद बूंद से
भरता रहेगा उनका समुद्री उदर....
10 .
पहले थोडा गेहूँ डालो
चक्की चला दो
फिर थोडा कंकड़ डालो
चक्की चला दो
एक झक्कास पैकेट में बंद करो
बाजार में पंहुचा दो .
चक्की चलती रहेगी!
     11.
एक जैसी इमारतें
एक जैसे कमरे
एक जैसे चेहरे
एक जैसी भाषा
एक जैसा अंदाजे-बयां

एक जैसी मौत
एक जैसी कब्र

यानि ऊब ही ऊब
बहुत खूब!
12.
भाषा से नफ़रत
शब्द से नफ़रत
शब्द में जीने वाले मन से नफ़रत
मन को रखने वाले तन से नफ़रत

'खांखर" शब्द को क्यों रख दें आंग्ल में ?
उसे वहां भी क्यों न रहने दें - जहाँ है ?

पंछियों का बदलें भूगोल
बदल दें जलवायु !
सभी पेड़ एक ऊंचाई के
सभी फूल  निर्गंध ...
13.
वे भविष्य में एक गोली दागेंगे
जिसकी आवाज वर्तमान में सुनाई देगी
और लहूलुहान होगा अतीत
फिर हमारे संग्रहालय ,पुस्तकालय  और सभी तरह के आलय
जिसमें हम अपना इतिहास रखते हैं -- जला दिए जायेंगे !
वहां लटका दी जाएँगी उनके नाम कि तख्तियाँ
हमारे हजारों साल के इतिहास को मेटकर वे अपना दो हजार साल का
इतिहास पढ़ाएंगे ; हमारी अगली पीढ़ियों को
आधुनिक बनायेंगे !
14.
पूरब के दिल में इस तरह एक सन्नाटा
फैल रहा है - जैसे पुराना बड़ा कमरा हो, जिसमें
बरसों से कोई नहीं रह रहा हो...
15.
अभिमन्यु चक्रव्यूह में फँस गया,
तुम निकल सकते हो
वह बाहर निकलना नहीं जानता था
तुम जानते हो

अभिमन्यु !
अपने जाने हुए को
समूचा दाव पर लगा गया :
हमें
बाहर निकलने का रास्ता दिखा गया!