रविवार, 17 जुलाई 2011

कल शाम पृथ्वी रंगशाला में एक प्ले देखा "करोडो में एक", सचमुच करोड़ो में एक ..

निर्देशक कि डायरी - ४
 कल शाम  पृथ्वी रंगशाला में एक प्ले देखा "करोडो में एक". "करोडो में एक" मकरंद देशपांडे  ने  लिखा और डाइरेक्ट किया है.पूँजी  और संस्कृति को अब्सर्ड शैली में नाटक के कलेवर में बांध देने की इस कुशलता की जितनी सराहना की जाये वह कम है. पिछले कई साल में मैंने इससे बेहतर नाटक नहीं देखा है. इस नाटक ने मेरी नाटक देखने की भूख जगा दी. आरम्भ से अंत तक नाटक जिज्ञासा और प्रभाव बनाये रखता है. हमन हैं इश्क मस्ताना हमें दुनिया से यारी क्या, उड़ जायेगा हंस अकेला , जग दर्शन का वेला. इन पंक्तियों के रचयिता कबीर जैसा इंसान या  सुंदर ईश्वर सिर्फ भारत पैदा करता है. पश्चिम ने दुनिया को वैज्ञानिक दिया है और भारत ने योगी. वैज्ञानिक की यात्रा योगी होने में समाप्त होती है जहाँ से भारत का एक योगी आरम्भ करता है.विज्ञानं के साथ पूंजीवादिता का सम्बन्ध है और योग के साथ प्रेम और करीना का. प्रेम और करुणा को केंद्र में रखकर "करोडो में एक" जैसा नाटक भी भारत में ही लिखा जा सकता है.
 नाटक शुरू होने के पांचवे मिनट में दर्शक नाटक का हिस्सा बन चुके थे. "करोडो में एक"  किसी भी आम परिवार की कहानी है और दर्शकों को यही बात शुरू से इन्वाल्व कर लेती है. वंशीलाल करोडो का व्यवसाय अपने भाइयों के नाम कर के कंगाल हो गए हैं. भाइयों के विश्वासघात से वे अपना मानसिक संतुलन खो देते है.  भाइयों  की नजर मकान पर भी है. उनका बेटा, बेटी, बहू, और नाती- नतनी और दामाद यह पूरा परिवार एक बुजुर्ग को कैसे सम्हालता है वह अत्यंत मार्मिक है. लेकिन खूबसूरती है इस साधारण परिवार की कहानी को असाधारण ढंग से प्रस्तुत करने में. "करोडो में एक" नाटक पूरी तरह अत्याधुनिक भाषा में लिखा गया है. यह  इस समय की भाषा में लिखा गया है. हमारे समय की भाषा है अनास्था, अब्सर्ड, अप्रेम और जिजीविषा. नाटक आपको जिजीविषा से भरपूर कर विदा करता है.
यशपाल शर्मा ने बेटे की और मकरंद देशपांडे ने बूढ़े बाप की भूमिका निभाई है. मकरंद देशपांडे क्लैसिकी थियेटर एक्टर हैं. ये मंच के बादशाह हैं. मकरंद ने  अंतिम दृश्य में कुमार गन्धर्व के गाये कबीर के पद पर मुक्ति का जो अद्भुत पदचालन किया है वह नृत्य और नाट्य के मनीषियों के लिए अनुसन्धान  का विषय हो सकता है. इसी पद "उड़ जायेगा हंस अकेला" से नाटक की शुरुआत और अंत होता है. यह इतना अभिनव है कि काबिले तारीफ़ है.
यशपाल शर्मा को हमने ज्यादातर फिल्मों में  खल चरित्रों को चित्रित करते हुए ही पाया है. किन्तु यहाँ एक सादा चरित्र में सहजता से रंग भरते देख कर मेरे जैसे  दर्शक दंग रह जाते हैं. यशपाल शर्मा के एक्टिंग पॉवर में मुझे बलराज साहनी, अशोक कुमार, मोतीलाल की ताक़त नजर आती है. यशपाल शर्मा अपनी सहजता की शक्ति से  अपने समकालीनों में सबसे जुदा हैं. मै यशपाल शर्मा को सहजता की शक्ति में अशोक कुमार से तुल्य (कम्पेरिजन) मानता हूँ. अशोक कुमार की तुलना किसी ने रामकृष्ण परमहंस से की है. अशोक कुमार कहते हैं की मै अभिनय  करता नहीं हूँ, हो जाता है. यह कवि ह्रदय कलाकार ही कह सकता है.और यशपाल शर्मा भी ऐसे ही हैं. मै यशपाल को अभिनय का कवि मानता हूँ - पोएट ऑफ़ एक्टिंग!. किसी भी चरित्र में सहजता से उतरने और अपने रंग में रंग देने की शक्ति से ब्लेस्ड हैं यशपाल शर्मा. यशपाल शर्मा में अनंत संभावनाएं है.  यशपाल ने बेटे की भूमिका निभाई है जो किसी तरह अपने परिवार को बचा लेना चाहता है लेकिन गुंडा नहीं बनना चाहता और निराशा की अति में आत्महत्या की भी कोशिश करता है. सहज ही एक कुशल अभिनेता यशपाल अंतिम दृश्य में अपने पिता की स्मृति को मूर्तिमान कर देते हैं. सभी अभिनेताओं ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. सुधीर पाण्डेय ने राजनेता और वंशी के पुराने मित्र की भूमिका में जान डाल दिया है. बाकी अभिनेताओं का  का नाम न जानने के कारण मै नाम लेकर उनके बारे में कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ लेकिन ऐसा नहीं लग रहा था कि हम अभिनय देख रहे हैं. वास्तव में मंच पर एक परिवार ही उपस्थित था, विषय के रूप में भी और चरित्रों के रूप में भी. अभिनय, प्रकाश व्यवस्था, पार्श्व संगीत सब में ऐसा सुगठित संयोजन है कि पता ही नहीं चलता कि तीन घंटे कब निकल गए.
नाटक देखकर बाहर निकलने के बाद कई घंटे तक नाटक मेरे मस्तिष्क में चलता रहा. इस सृजनात्मक अनुभव से मेरे व्यक्तिगत जीवन में बहुत से सकारात्मक परिवर्तन हुए और होंगे. पिता का पुत्र को दिया गया अंतिम उपदेश तो किसी भी सुबुद्ध प्राणी के लिए आजीवन सम्हाल कर रखने लायक है. मेरी सलाह है अगर आपको अगले कुछ महीनो के लिए बहुत तगड़ा मानसिक खुराक चाहिए तो इस नाटक को जरूर देखें.