मंगलवार, 31 जनवरी 2012

कला के तीन क्षण और काशी का अस्सी


निर्देशक कि डायरी २३
कला के तीन क्षण और काशी का अस्सी 

                                                                           अनुपम 
                                                                                         
                                                          
दो सप्ताह पहले इस कथा -रचना को पढ़ गया. इसपर फिल्म भी आ रही है - मोहल्ला अस्सी. फ़िलहाल फिल्म पर नहीं इस उपन्यास पर मै अपनी प्रतिक्रिया देना चाहता हूँ. इस कथा रचना को पढ़कर मजा आया. शिल्प के स्तर पर मै  इसको एक जटिल कृति मानता हूँ. निरर्थक चरित्रों और घटनाओं से एक कथा रचना की बुनावट काफी चैलेंजिंग काम है.कथा तत्त्व के धरातल पर बनारस के बाहर वालों के लिए यह एक झरोखा है. जिस से वे बनारस की एक चाय की दुकान में कुछ चुने गए चरित्रों और अस्सी मोहल्ला के कुछ चित्रों को देख सकते हैं. हालाँकि यहाँ चरित्रों की जगह मित्रों शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि बहुत से अर्थवान चरित्रों को सफाई से काशीनाथ सिंह ने क़तर दिया है. यहाँ उनके नाम गिनाकर उनके नाम को मै हल्का नहीं करना चाहूँगा लेकिन वे पत्रकार, शिक्षक, कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं और उनके 'कारनामे' जग जाहिर हैं. 

पूरी किताब पढने के बाद मैंने इसे उलट पलट के देखा की वह 'असी' नदी कहाँ है जिसके किनारे बसे इस मोहल्ले का वर्णन किया गया है. दुर्भाग्य से वह बिलकुल नदारद है. हालाकी असी का नदी के रूप में भी अस्तित्व अब नहीं रह गया है. वरुणा और असी नदी के बीच बसे नगर को वाराणसी संज्ञा मिली थी.  दोनों ही नदियाँ अब बदबूदार परनालों में बदल गई हैं. चरित्रों की क़तर ब्योत में असी नदी को भी छाँट देना मेरी समझ के बाहर है. मै यह तो नहीं मान सकता की डॉ. काशीनाथ सिंह के ध्यान में यह बात नहीं आई होगी. इसका जवाब तो उन्ही से मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए.
यह 'काशी का अस्सी', काशीनाथ सिंह का अस्सी है, जो उनके गिने चुने मित्रो और लगुओं भगुओं से बनता है . यह काशी या बनारस का 'असी' मोहल्ला नहीं है. वह अब भी एक आंचलिक विषय के रूप में अछूता रह गया है.
यह कथा-रिपोर्ताज है, संस्मरण है, उपन्यास है या कहानी संग्रह, इस विषय पर काफी बहसें हुई हैं, जैसा की इसके फ्लैप पर लिखा है - 'उपन्यास के परम्परित मान्य  ढांचो के आगे एक प्रश्न चिह्न' . अगर उपन्यास की ही शैली में कहूँ तो यह 'चैतन्य चूतियापा' है.
सारिका के किसी पुराने अंक में मैंने कभी पढ़ा था ; तमिल भाषा के एक मूर्धन्य लेखक अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बता रहे थे कि उपन्यास के फर्स्ट ड्राफ्ट में वे चरित्रों का वास्तविक नाम लिखा करते थे. इससे उनको चरित्रांकन करने में सुविधा होती थी. दूसरे ड्राफ्ट में वे चरित्र के अनुकूल नामकरण कर देते थे और तीसरे ड्राफ्ट में चरित्रों को गढ़ देते थे जिसका मूल चरित्र से कुछ खास लेना देना नहीं रह जाता था. इस नजर से देखा जाए तो काशी का अस्सी फर्स्ट ड्राफ्ट है. यह अधपका बेर है जिसका स्वाद खट्टा मीठा है.
मुक्तिबोध की थियरी कला के तीन क्षण पर इस कृति को कसा जाए तो यह पहला और अनुभव का क्षण है. इस हिसाब से इस कथा कृति ने अपना दूसरा और तीसरा क्षण जिया ही नहीं. यह गर्भस्थ शिशु का प्रदर्शन है.
यह काफी पॉपुलर हुआ है.हालाँकि यह अगर किसी पॉकेट बुक्स से छपता तो और प्रसिद्द होता और साहित्य के व्यवसायीकरण का एक रास्त खुलता.  इसकी प्रसिद्धि के पीछे इसके चरित्रों की सादगी और स्थितिजन्य हास्य है. जिन व्यक्तियों और व्यक्तित्वों के सहज व्यवहार को इस कथा में सीधे कॉपी पेस्ट किया गया है, उनकी जीवंत उपस्थिति इस कथानुमा कृति को ग्राह्य बनाती है. मुझे नहीं लगता है कि अपने चरित्र के विचित्र चित्रांकन से वे जीवित मनुष्य अहसानमंद हुए होंगे ? कमाल की भाषा और धारदार शिल्प से लैस कथाकार काशीनाथ सिंह की ये कृति थके हुए शिकारी के शिकार की तरह है जिसने छर्रा फायर कर के ढेर सारे पक्षी मार गिराए हों, हालाँकि इरादा शेर मारने का था. 
फिल्म के लिए ये बहुत ही अच्छा कच्चा माल है. उम्मीद है इस कला का दूसरा और तीसरा क्षण फिल्म रूप में आ गया हो.  
   

अपने आप को दोहराना विकास नहीं है.

कवि निर्देशक की डायरी २२ 
                                                                                                                            अनुपम
अग्निपथ का रीमेक देखने की मेरी कोई इच्छा नहीं है. गाँव कस्बो में भी हिट फिल्मो का मंचन होता है. मै वह भी देखने नहीं जाता. सितारों पर केन्द्रित अग्निपथ और डॉन जैसी फिल्मो को फिर से बनाना बेवकूफी है. कहानी को आगे बढ़ाते तो बात अलग थी, ये तो अमिताभ बच्चन का रोल कर रहे हैं या और अदाकारों की कॉपी करने की कोशिश करते हैं. साफ़ है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में विचारों का अभाव हो गया है. सिनेमा व्यवसाय का गुणा गणित बदल गया है. ये नए सितारे अपने बल पर कुछ करने में सक्षम नहीं दिख रहे है. इन्हें अपने आप को दोहराना पड़ रहा है. यह हिंदी सिनेमा का मूर्ख काल है. परिवर्तन का समय है. एक योग्य निर्देशक ही अच्छी स्क्रिप्ट लिख या चुन सकता है. सचाई ये है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में निर्देशक तो गिने चुने ही रह गए हैं, ठेकेदार काफी बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं. बढ़िया मनोरंजन पैदा करना जिनके वश में नहीं है. ये सिर्फ धंधा कर सकते हैं और कर रहे हैं. मनोरंजन कि भूखी जनता को ठग रहे हैं . जनता के बीच से ही इनका जवाब निकल कर आएगा और समय आ चुका है.    
मै निकट भविष्य की घोषणा कर रहा हूँ कि आगे आ रही तेज आंधी में ये सितारे कागज के पोस्टरों की तरह उड़ जाने वाले हैं, जिसका इनको पता है; ये इतने भी बेवकूफ नहीं है, इसलिए जैसे तैसे दाम बनाने में लगे हैं. प्रतिभाहीन लोगों में प्रयोग का साहस नहीं होता, दोहराव की चालकी होती है और यह व्यक्ति करे या एक इंडस्ट्री, ज्यादा दिन नहीं चलती. अपने आप को दोहराना विकास नहीं है.

 तकनिकी सरलता और नयी प्रतिभाओं की गर्मी से हिंदी का ये (जड़ सिनेमा-समय) मोम की तरह पिघल जाएगा क्योंकि एक समानांतर फिल्म उद्योग खड़ा हो रहा है जिसमे कवि, वैज्ञानिक, कलाकार, समाजसेवी और सुबुद्ध लोग  सक्रिय  हो रहे हैं.

पुनः -
दादा साहेब फाल्के ने कहा था कि 'पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें.' इसका मतलब डिग्रीधारी नहीं था.
आजकल प्राइवेट फिल्म टीवी संस्थानों से ढेर सारे पैसो के एवज में खूब डिग्रियां बांटी जा रही हैं. फिल्म इंडस्ट्री में डिग्रीधारी मूर्खों की बाढ़ आ गई है जो सिनेमा में घुसना चाहते है लेकिन बेसिक सवाल कि सिनेमा क्या है नहीं जानते, जो सह निर्देशन या निर्देशन करना चाहते है लेकिन निर्देशन क्या है इसका जवाब नहीं है उनके पास, जो एक्टर बनना चाहते हैं लेकिन ठीक से अभिनय शब्द नहीं लिख सकते या नहीं जानते की अभिनय क्या है, वे सभी युवा भले ही किसी भी महान प्राइवेट या सरकारी फिल्म स्कूल से डिग्री लेकर निकले हों, कृपया! कृपया! कृपया !  मुझसे संपर्क न किया करें, क्योंकि मै मूर्ख भक्षक हूँ.  मूर्खों को खा तो जाता हूँ लेकिन थोड़ी बदहजमी हो जाती है. मुह का जायका ख़राब हो जाता है. इतने बेसिर पैर के मूर्ख मुझे पसंद नहीं.

विनय के साथ -
अनुपम