बुधवार, 25 जनवरी 2012

Dr. Anupam’s School of Cinema @ art



Dr. Anupam’s School of Cinema @ art
फ्रॉम स्क्रिप्ट तो स्क्रीन
सिनेमा फॉर गुडनेस. ..

अठाईस जनवरी, सरस्वती पूजा के दिन फिल्म शिक्षण का पहला बैच शुरू कर रहा हूँ. मैंने जुलाई २०११ में इसकी तैयारी शुरू की थी.तब फेसबुक पर भी कुछ मित्रों ने स्क्रिप्ट तो स्क्रीन अभियान में भाग लेने की बात कही थी. वे आना चाहें तो उनका स्वागत है.
 इस कोर्स की कोई फीस नहीं है.
 विद्यार्थी सिक्षा और विद्या के प्रतिदान में श्रमदान करेंगे.
 ज्वाइन करने के लिए संपर्क करें. सिर्फ ११ निर्देशकों के साथ मै यह कोर्स शुरू करूँगा. तीन महीने बाद सबके हाथ में उनकी अपनी स्क्रिप्ट होगी. मैंने जबसे ११ लोगों का आह्वान किया था तबसे अबतक सिर्फ ४ लोगों का चयन हो सका. जिन्हें लगता है की उनमे इस अभियान में शामिल होने की प्रबल प्रेरणा है, वे सीधे २८ और २९  जनवरी को दिए गए पते पर किसी भी समय आ सकते हैं. सिनेमा फॉर गुडनेस.

Dr. Anupam’s School of Cinema @ art
Three months weekend course on film making- From script to screen starts on 28 jan.
COURSE – film philosophy, film direction, film history, structure of script and creative writing.
It will be a three months course, two days classes in a week and all total 72 hours package.
Syllabus – brief history of art, history of cinema, structure of cinema. production of cinema, scripting, casting, shooting and editing, idea to answer print.

A brief Introduction of Teacher
Dr.Anupam Ojha
A Well Known film thinker and Film maker, with one Publish book
On Indian Film Theory (Bhartiya cine – Siddhant). Master in literature & Ph.D. in ‘Story and Screenplay of Art movies’ from Banaras Hindu University.
Certificate Course (F.A) from Film and television Institute, Pune.
Written & Directed: Mothers a short story telecasted on NDTV Profit, shown in Indo American film festival.

Dr.Anupam Ojha
Mo.0-9829847365
dranupamojha@gmail.com
http://pratibimb-sarjana.blogspot.co/

Address :
Urja
Building No. – 8, flat No.- 603,
Gaurav galaxy, Phase – One,
Mira Road, East – 401 106

मूर्ख-भक्षक की पीड़ा

कवि निर्देशक की डायरी २१ 
मूर्ख-भक्षक की पीड़ा
डॉ. अनुपम

बहुत तकलीफ हो गई है. सूचना क्रांति ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है. मुझे कई कई दिन भूखा रहना पड़ता है. मुझे मूर्ख नहीं मिलते. मूर्ख सूचनाओं के पीछे छुप जाते हैं. वे शेरो, शाइरी, राजनितिक खबरें, फिल्म, साहित्य से लैस हो कर निकलते हैं . मै जबतक समझूँ की ये मूर्ख है, तबतक वह मुझे मूर्ख भक्षक जानकर सूचना के जंगल में भाग छुपा होता है. सामान्यतया हर मूर्ख अपने आप को ढंकना जानता है.
मुझे भूखा रहना पड़ रहा है. दिखें तो सूचना दीजियेगा...

मुझे कुछ लेखकों ने चेताया

कवि निर्देशक की डायरी 
मुझे कुछ लेखकों ने चेताया
                                                                                                                                                                                     डॉ अनुपम 


                                                                                                                                               


मुझे कुछ लेखकों ने चेताया की वे अपनी रचनाएँ प्रकाशन के लिए भेजने के बाद ही कभी कभार फेसबुक पर पोस्ट करते हैं. यानि फेसबुक को वे एक सोशल नेट्वोर्किंग मीडिया न मानकर एक फीलर या प्रचार माध्यम मानते हैं. वे चोरी के विषय में भी चेता रहे थे.
हिंदी के लेखक तकनिकी विषयों में अरुचि के भी शिकार होते हैं लेकिन मैंने फेसबुक और ब्लॉगिंग को बहुत गंभीर माध्यम के रूप में अपनाया है. मै अपने परिहास में भी स्तरीय हूँ. अक्सर चोरों को ही चोरी के विरुद्ध बोलते सुना है. जानकारी के लिए बता दूँ कि फेसबुक या ब्लॉग पर आपकी रचना प्रकाशित होते ही वह स्वतः उस तारीख और समय में दर्ज हो जाती है, रजिस्टर्ड हो जाती है.
कवितायें, रचनाएँ या विचारों को खुलकर शेयर करिए . दूर, सुदूर संवाद, सहयोग, सम्बन्ध और ब्यापार के इस महा वरदान का जमकर लाभ उठाइए.
किताब छपे, पत्रिकाओं में कवितायें छापें, अखबारों में साहित्य को जगह मिले और ब्लॉग , टीवी , फेसबुक पर भी गंभीर साहित्य छपे, गोष्ठियां हो, सेमीनार हो.




हिंदी तू भारत के माथे की बिंदी ..


कवि निर्देशक की डायरी २२ 
हिंदी तू भारत के माथे की बिंदी ..

डॉ अनुपम 

इण्डिया टुडे के किसी अंक में पढ़ा था, तमिल के एक लेखक कह रहे थे - " काश हिंदी के लेखक थोड़े व्यवसायिक होते ? इतनी बड़ी भाषा, काश ये पाठकों की खेती करना सीख लेते, अपनी लेखनी के बल पर जीना इनका हक है, समझ लेते.  चाहे आप जितनी अच्छी कविताई कर लो, अगर आप एक्टिविस्ट नहीं हैं तो दक्षिण भारत की किसी भी भाषा में आप को कवि/लेखक नहीं स्वीकार किया जाएगा न तो साहित्य में न समाज में. लेकिन हिंदी में इस से उलट है "
 ये तो किसी आलोचक की सराहना मिलते ही अपने क्षेत्र में राजनेताओं की तरह एक्ट करने लगते हैं. ये कबीर की जमीन पर कैक्टस तो नहीं? कबीर तो भोजपुरी भाषा के सहारे पूरी दुनिया में पहुँच गए!
.गुजरती,मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम का लेखक व्यवसयिक है. उसके पास पाठक हैं. हिंदी में लेखक पाठक की उपेक्षा करता है. हिंदी का अग्रिम पाठक बहुत प्रायोजित किस्म का है. लिखो कुछ जियो कुछ, पहले दिल्ली से सेंसर सर्टिफिकेट ले लो की हड़बड़ी ने इतनी बड़ी भाषा को वीरान कर दिया है. हिंदी के ज्यादातर कवि एक्टिविस्ट नहीं हैं. ये बहुत सोफिस्टीकेटेड हैं या बहुत दरिद्र. लेखन दोनों ही स्थितियों में इनकी आजीविका नहीं है. एक का करियर है तो दुसरे का स्वाभिमान. पहले को पाठक की जरूरत नहीं, उसे प्रकाशन की जरूरत है और दूसरा प्रकाशित होकर ही प्रफ्फुल्लित हो जाता है. 
हिंदी के लेखकों को एकजुट होना चाहिये और प्रकाशन, वितरण, अनुसन्धान और विविध विषयों में पुस्तकों के बाजार में व्यावसायिक पैठ बनाना चाहिए. उन्हें एक्टिविस्ट होना चाहिए, अपनी कविता की जिंदगानी के लिए और अपने हक के लिए