रविवार, 30 अक्तूबर 2011

निर्देशक की डायरी 14


 मेरी कवितायेँ वहां अंडे सेती हैं.   
 अनुपम 


सचाई ये है की मुझे बम्बई से कोई शिकायत नहीं, दरअसल मुझे बनारस से कुछ ज्यादा ही प्रेम है. कहते है की जो दस साल बनारस में रह जाए वह कहीं और नहीं रह सकता. मेरा अनुभव है की कम से कम चैन से नहीं रह सकता. बनारस एक रोग है, मोहब्बत है. बनारस एक आदत है जो मरे तक नहीं जाती. अपनी स्थानीयता में मै अपने आप को फणीश्वर नाथ रेणु और रसूल हमजातोव के नजदीक पाता हूँ.
बम्बई! मेरा कर्म क्षेत्र! इसने मुझे सबकुछ दिया. यहाँ पैर रखते ही मुझे काम, पैसा, नाम, पार्टियाँ, दोस्त सब मिले. हर वांछित शौक़ मेरा पूरा हुआ. दस साल मै यहाँ भी रह चूका हूँ लेकिन एक दिन के लिए भी अपने को बनारस से बाहर नहीं पाया. इस महासमुद्र में अपने भीतर बनारस लिए मै थक सा जाता हूँ. बोर होने लगता हूँ. यहाँ के सभी ५ स्टार ७ स्टार होटलों के कॉफ़ी शॉप से ज्यादा उन्मुक्त अस्सी चौराहे की चाय की टपरी लगती है. विजया की एक गोली शैम्पेन की पूरी बोतल पर भारी पड़ती है. एक साधारण गृहस्थिन का सौंदर्य अपनी गरिमा से इन सुंदरियों की चमक को धूमिल कर देता है. ये सभी पहाड़ मेरे भीतर विस्तार की वैसी अनुभूति नहीं जगाते जैसा गेहूं का एक छोटा सा खेत कर देता है.

दरअसल मै एक मैदानी आम आदमी हूँ जिसे पहाड़ सिर्फ दर्शन भर ही रिझाते है. सुकून तो मुझे गंगा के किनारों पर ही मिलता है. मेरी कलम बनारस पहुँचते ही इस तरह स्याही उगलती है जैसे अपने बच्चे को देखते ही माँ के सीने  से दूध  फूट पड़ता है.  बनारस के पास ही मेरा गाँव है और मेरी कवितायेँ वहीँ अंडे सेती हैं.