मंगलवार, 31 जनवरी 2012

कला के तीन क्षण और काशी का अस्सी


निर्देशक कि डायरी २३
कला के तीन क्षण और काशी का अस्सी 

                                                                           अनुपम 
                                                                                         
                                                          
दो सप्ताह पहले इस कथा -रचना को पढ़ गया. इसपर फिल्म भी आ रही है - मोहल्ला अस्सी. फ़िलहाल फिल्म पर नहीं इस उपन्यास पर मै अपनी प्रतिक्रिया देना चाहता हूँ. इस कथा रचना को पढ़कर मजा आया. शिल्प के स्तर पर मै  इसको एक जटिल कृति मानता हूँ. निरर्थक चरित्रों और घटनाओं से एक कथा रचना की बुनावट काफी चैलेंजिंग काम है.कथा तत्त्व के धरातल पर बनारस के बाहर वालों के लिए यह एक झरोखा है. जिस से वे बनारस की एक चाय की दुकान में कुछ चुने गए चरित्रों और अस्सी मोहल्ला के कुछ चित्रों को देख सकते हैं. हालाँकि यहाँ चरित्रों की जगह मित्रों शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि बहुत से अर्थवान चरित्रों को सफाई से काशीनाथ सिंह ने क़तर दिया है. यहाँ उनके नाम गिनाकर उनके नाम को मै हल्का नहीं करना चाहूँगा लेकिन वे पत्रकार, शिक्षक, कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं और उनके 'कारनामे' जग जाहिर हैं. 

पूरी किताब पढने के बाद मैंने इसे उलट पलट के देखा की वह 'असी' नदी कहाँ है जिसके किनारे बसे इस मोहल्ले का वर्णन किया गया है. दुर्भाग्य से वह बिलकुल नदारद है. हालाकी असी का नदी के रूप में भी अस्तित्व अब नहीं रह गया है. वरुणा और असी नदी के बीच बसे नगर को वाराणसी संज्ञा मिली थी.  दोनों ही नदियाँ अब बदबूदार परनालों में बदल गई हैं. चरित्रों की क़तर ब्योत में असी नदी को भी छाँट देना मेरी समझ के बाहर है. मै यह तो नहीं मान सकता की डॉ. काशीनाथ सिंह के ध्यान में यह बात नहीं आई होगी. इसका जवाब तो उन्ही से मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए.
यह 'काशी का अस्सी', काशीनाथ सिंह का अस्सी है, जो उनके गिने चुने मित्रो और लगुओं भगुओं से बनता है . यह काशी या बनारस का 'असी' मोहल्ला नहीं है. वह अब भी एक आंचलिक विषय के रूप में अछूता रह गया है.
यह कथा-रिपोर्ताज है, संस्मरण है, उपन्यास है या कहानी संग्रह, इस विषय पर काफी बहसें हुई हैं, जैसा की इसके फ्लैप पर लिखा है - 'उपन्यास के परम्परित मान्य  ढांचो के आगे एक प्रश्न चिह्न' . अगर उपन्यास की ही शैली में कहूँ तो यह 'चैतन्य चूतियापा' है.
सारिका के किसी पुराने अंक में मैंने कभी पढ़ा था ; तमिल भाषा के एक मूर्धन्य लेखक अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बता रहे थे कि उपन्यास के फर्स्ट ड्राफ्ट में वे चरित्रों का वास्तविक नाम लिखा करते थे. इससे उनको चरित्रांकन करने में सुविधा होती थी. दूसरे ड्राफ्ट में वे चरित्र के अनुकूल नामकरण कर देते थे और तीसरे ड्राफ्ट में चरित्रों को गढ़ देते थे जिसका मूल चरित्र से कुछ खास लेना देना नहीं रह जाता था. इस नजर से देखा जाए तो काशी का अस्सी फर्स्ट ड्राफ्ट है. यह अधपका बेर है जिसका स्वाद खट्टा मीठा है.
मुक्तिबोध की थियरी कला के तीन क्षण पर इस कृति को कसा जाए तो यह पहला और अनुभव का क्षण है. इस हिसाब से इस कथा कृति ने अपना दूसरा और तीसरा क्षण जिया ही नहीं. यह गर्भस्थ शिशु का प्रदर्शन है.
यह काफी पॉपुलर हुआ है.हालाँकि यह अगर किसी पॉकेट बुक्स से छपता तो और प्रसिद्द होता और साहित्य के व्यवसायीकरण का एक रास्त खुलता.  इसकी प्रसिद्धि के पीछे इसके चरित्रों की सादगी और स्थितिजन्य हास्य है. जिन व्यक्तियों और व्यक्तित्वों के सहज व्यवहार को इस कथा में सीधे कॉपी पेस्ट किया गया है, उनकी जीवंत उपस्थिति इस कथानुमा कृति को ग्राह्य बनाती है. मुझे नहीं लगता है कि अपने चरित्र के विचित्र चित्रांकन से वे जीवित मनुष्य अहसानमंद हुए होंगे ? कमाल की भाषा और धारदार शिल्प से लैस कथाकार काशीनाथ सिंह की ये कृति थके हुए शिकारी के शिकार की तरह है जिसने छर्रा फायर कर के ढेर सारे पक्षी मार गिराए हों, हालाँकि इरादा शेर मारने का था. 
फिल्म के लिए ये बहुत ही अच्छा कच्चा माल है. उम्मीद है इस कला का दूसरा और तीसरा क्षण फिल्म रूप में आ गया हो.  
   

अपने आप को दोहराना विकास नहीं है.

कवि निर्देशक की डायरी २२ 
                                                                                                                            अनुपम
अग्निपथ का रीमेक देखने की मेरी कोई इच्छा नहीं है. गाँव कस्बो में भी हिट फिल्मो का मंचन होता है. मै वह भी देखने नहीं जाता. सितारों पर केन्द्रित अग्निपथ और डॉन जैसी फिल्मो को फिर से बनाना बेवकूफी है. कहानी को आगे बढ़ाते तो बात अलग थी, ये तो अमिताभ बच्चन का रोल कर रहे हैं या और अदाकारों की कॉपी करने की कोशिश करते हैं. साफ़ है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में विचारों का अभाव हो गया है. सिनेमा व्यवसाय का गुणा गणित बदल गया है. ये नए सितारे अपने बल पर कुछ करने में सक्षम नहीं दिख रहे है. इन्हें अपने आप को दोहराना पड़ रहा है. यह हिंदी सिनेमा का मूर्ख काल है. परिवर्तन का समय है. एक योग्य निर्देशक ही अच्छी स्क्रिप्ट लिख या चुन सकता है. सचाई ये है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में निर्देशक तो गिने चुने ही रह गए हैं, ठेकेदार काफी बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं. बढ़िया मनोरंजन पैदा करना जिनके वश में नहीं है. ये सिर्फ धंधा कर सकते हैं और कर रहे हैं. मनोरंजन कि भूखी जनता को ठग रहे हैं . जनता के बीच से ही इनका जवाब निकल कर आएगा और समय आ चुका है.    
मै निकट भविष्य की घोषणा कर रहा हूँ कि आगे आ रही तेज आंधी में ये सितारे कागज के पोस्टरों की तरह उड़ जाने वाले हैं, जिसका इनको पता है; ये इतने भी बेवकूफ नहीं है, इसलिए जैसे तैसे दाम बनाने में लगे हैं. प्रतिभाहीन लोगों में प्रयोग का साहस नहीं होता, दोहराव की चालकी होती है और यह व्यक्ति करे या एक इंडस्ट्री, ज्यादा दिन नहीं चलती. अपने आप को दोहराना विकास नहीं है.

 तकनिकी सरलता और नयी प्रतिभाओं की गर्मी से हिंदी का ये (जड़ सिनेमा-समय) मोम की तरह पिघल जाएगा क्योंकि एक समानांतर फिल्म उद्योग खड़ा हो रहा है जिसमे कवि, वैज्ञानिक, कलाकार, समाजसेवी और सुबुद्ध लोग  सक्रिय  हो रहे हैं.

पुनः -
दादा साहेब फाल्के ने कहा था कि 'पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें.' इसका मतलब डिग्रीधारी नहीं था.
आजकल प्राइवेट फिल्म टीवी संस्थानों से ढेर सारे पैसो के एवज में खूब डिग्रियां बांटी जा रही हैं. फिल्म इंडस्ट्री में डिग्रीधारी मूर्खों की बाढ़ आ गई है जो सिनेमा में घुसना चाहते है लेकिन बेसिक सवाल कि सिनेमा क्या है नहीं जानते, जो सह निर्देशन या निर्देशन करना चाहते है लेकिन निर्देशन क्या है इसका जवाब नहीं है उनके पास, जो एक्टर बनना चाहते हैं लेकिन ठीक से अभिनय शब्द नहीं लिख सकते या नहीं जानते की अभिनय क्या है, वे सभी युवा भले ही किसी भी महान प्राइवेट या सरकारी फिल्म स्कूल से डिग्री लेकर निकले हों, कृपया! कृपया! कृपया !  मुझसे संपर्क न किया करें, क्योंकि मै मूर्ख भक्षक हूँ.  मूर्खों को खा तो जाता हूँ लेकिन थोड़ी बदहजमी हो जाती है. मुह का जायका ख़राब हो जाता है. इतने बेसिर पैर के मूर्ख मुझे पसंद नहीं.

विनय के साथ -
अनुपम 

सोमवार, 30 जनवरी 2012

 नादान
                                                                                                     अनुपम
गधे को
 अगर घोड़ा कहोगे
 तो
 तुम्हे वह 
 गधा समझ लेगा.
इसमें 
तुम्हारी 
नादानी है.

रविवार, 29 जनवरी 2012

अपने हिमालय पर

 अपने हिमालय पर
                                                              अनुपम 
बातें बहुत ज्यादा हैं
मौन सही है.

हवा के एक झोंके से
बहुत पास आ गया था
अब 
अपने पास आ गया हूँ.

मेरे प्यार की इंटेंसिटी इतनी ज्यादा थी
कि 
एक ठंढे तार ने फ्यूज उदा दिए और 
अफ़सोस ये है कि 
मैंने प्यार कर सकने वाला दिल गवां दिया.

तुमने 
जितने हलके में मुझे लिया 
मै उतना हल्का नहीं था
मै भारी था
छूट गया
जमीन पर गिर गया 
मिटटी में मिल गया .

अब तुम दौड़ रही हो 
जब कि मै चला आया हूँ 
अपने हिमालय पर .  

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

बसंत में नखरे


बसंत में नखरे 

  १.                                                                  अनुपम 

तुमने नखरा दिखाया 
मेरा जी उचट गया
तुमसे तो नहीं 
जिंदगानी से 
जो तुम हो मेरे लिए ;
तुम लगी जिंदगी सी 
तुमसे मिला तो जैसे जिंदगी मिली,

तो 
तुमने जो नखरा दिखाया 
मैने नहीं देखा. 

 २.

यह सप्रयास है 
भाषा है
झूठ है
प्यार इसी क्षण है 
तुम हो
मै हूँ
खुशियाँ है 
तो 
व्रण भी हैं .
विश्राम है तो रण भी है,
अदाएं हैं तो पिचकारियों में रंग हैं.
तुम नखरे दिखाओ
मै बसंत बनूँगा . 

बुधवार, 25 जनवरी 2012

Dr. Anupam’s School of Cinema @ art



Dr. Anupam’s School of Cinema @ art
फ्रॉम स्क्रिप्ट तो स्क्रीन
सिनेमा फॉर गुडनेस. ..

अठाईस जनवरी, सरस्वती पूजा के दिन फिल्म शिक्षण का पहला बैच शुरू कर रहा हूँ. मैंने जुलाई २०११ में इसकी तैयारी शुरू की थी.तब फेसबुक पर भी कुछ मित्रों ने स्क्रिप्ट तो स्क्रीन अभियान में भाग लेने की बात कही थी. वे आना चाहें तो उनका स्वागत है.
 इस कोर्स की कोई फीस नहीं है.
 विद्यार्थी सिक्षा और विद्या के प्रतिदान में श्रमदान करेंगे.
 ज्वाइन करने के लिए संपर्क करें. सिर्फ ११ निर्देशकों के साथ मै यह कोर्स शुरू करूँगा. तीन महीने बाद सबके हाथ में उनकी अपनी स्क्रिप्ट होगी. मैंने जबसे ११ लोगों का आह्वान किया था तबसे अबतक सिर्फ ४ लोगों का चयन हो सका. जिन्हें लगता है की उनमे इस अभियान में शामिल होने की प्रबल प्रेरणा है, वे सीधे २८ और २९  जनवरी को दिए गए पते पर किसी भी समय आ सकते हैं. सिनेमा फॉर गुडनेस.

Dr. Anupam’s School of Cinema @ art
Three months weekend course on film making- From script to screen starts on 28 jan.
COURSE – film philosophy, film direction, film history, structure of script and creative writing.
It will be a three months course, two days classes in a week and all total 72 hours package.
Syllabus – brief history of art, history of cinema, structure of cinema. production of cinema, scripting, casting, shooting and editing, idea to answer print.

A brief Introduction of Teacher
Dr.Anupam Ojha
A Well Known film thinker and Film maker, with one Publish book
On Indian Film Theory (Bhartiya cine – Siddhant). Master in literature & Ph.D. in ‘Story and Screenplay of Art movies’ from Banaras Hindu University.
Certificate Course (F.A) from Film and television Institute, Pune.
Written & Directed: Mothers a short story telecasted on NDTV Profit, shown in Indo American film festival.

Dr.Anupam Ojha
Mo.0-9829847365
dranupamojha@gmail.com
http://pratibimb-sarjana.blogspot.co/

Address :
Urja
Building No. – 8, flat No.- 603,
Gaurav galaxy, Phase – One,
Mira Road, East – 401 106

मूर्ख-भक्षक की पीड़ा

कवि निर्देशक की डायरी २१ 
मूर्ख-भक्षक की पीड़ा
डॉ. अनुपम

बहुत तकलीफ हो गई है. सूचना क्रांति ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है. मुझे कई कई दिन भूखा रहना पड़ता है. मुझे मूर्ख नहीं मिलते. मूर्ख सूचनाओं के पीछे छुप जाते हैं. वे शेरो, शाइरी, राजनितिक खबरें, फिल्म, साहित्य से लैस हो कर निकलते हैं . मै जबतक समझूँ की ये मूर्ख है, तबतक वह मुझे मूर्ख भक्षक जानकर सूचना के जंगल में भाग छुपा होता है. सामान्यतया हर मूर्ख अपने आप को ढंकना जानता है.
मुझे भूखा रहना पड़ रहा है. दिखें तो सूचना दीजियेगा...

मुझे कुछ लेखकों ने चेताया

कवि निर्देशक की डायरी 
मुझे कुछ लेखकों ने चेताया
                                                                                                                                                                                     डॉ अनुपम 


                                                                                                                                               


मुझे कुछ लेखकों ने चेताया की वे अपनी रचनाएँ प्रकाशन के लिए भेजने के बाद ही कभी कभार फेसबुक पर पोस्ट करते हैं. यानि फेसबुक को वे एक सोशल नेट्वोर्किंग मीडिया न मानकर एक फीलर या प्रचार माध्यम मानते हैं. वे चोरी के विषय में भी चेता रहे थे.
हिंदी के लेखक तकनिकी विषयों में अरुचि के भी शिकार होते हैं लेकिन मैंने फेसबुक और ब्लॉगिंग को बहुत गंभीर माध्यम के रूप में अपनाया है. मै अपने परिहास में भी स्तरीय हूँ. अक्सर चोरों को ही चोरी के विरुद्ध बोलते सुना है. जानकारी के लिए बता दूँ कि फेसबुक या ब्लॉग पर आपकी रचना प्रकाशित होते ही वह स्वतः उस तारीख और समय में दर्ज हो जाती है, रजिस्टर्ड हो जाती है.
कवितायें, रचनाएँ या विचारों को खुलकर शेयर करिए . दूर, सुदूर संवाद, सहयोग, सम्बन्ध और ब्यापार के इस महा वरदान का जमकर लाभ उठाइए.
किताब छपे, पत्रिकाओं में कवितायें छापें, अखबारों में साहित्य को जगह मिले और ब्लॉग , टीवी , फेसबुक पर भी गंभीर साहित्य छपे, गोष्ठियां हो, सेमीनार हो.




हिंदी तू भारत के माथे की बिंदी ..


कवि निर्देशक की डायरी २२ 
हिंदी तू भारत के माथे की बिंदी ..

डॉ अनुपम 

इण्डिया टुडे के किसी अंक में पढ़ा था, तमिल के एक लेखक कह रहे थे - " काश हिंदी के लेखक थोड़े व्यवसायिक होते ? इतनी बड़ी भाषा, काश ये पाठकों की खेती करना सीख लेते, अपनी लेखनी के बल पर जीना इनका हक है, समझ लेते.  चाहे आप जितनी अच्छी कविताई कर लो, अगर आप एक्टिविस्ट नहीं हैं तो दक्षिण भारत की किसी भी भाषा में आप को कवि/लेखक नहीं स्वीकार किया जाएगा न तो साहित्य में न समाज में. लेकिन हिंदी में इस से उलट है "
 ये तो किसी आलोचक की सराहना मिलते ही अपने क्षेत्र में राजनेताओं की तरह एक्ट करने लगते हैं. ये कबीर की जमीन पर कैक्टस तो नहीं? कबीर तो भोजपुरी भाषा के सहारे पूरी दुनिया में पहुँच गए!
.गुजरती,मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम का लेखक व्यवसयिक है. उसके पास पाठक हैं. हिंदी में लेखक पाठक की उपेक्षा करता है. हिंदी का अग्रिम पाठक बहुत प्रायोजित किस्म का है. लिखो कुछ जियो कुछ, पहले दिल्ली से सेंसर सर्टिफिकेट ले लो की हड़बड़ी ने इतनी बड़ी भाषा को वीरान कर दिया है. हिंदी के ज्यादातर कवि एक्टिविस्ट नहीं हैं. ये बहुत सोफिस्टीकेटेड हैं या बहुत दरिद्र. लेखन दोनों ही स्थितियों में इनकी आजीविका नहीं है. एक का करियर है तो दुसरे का स्वाभिमान. पहले को पाठक की जरूरत नहीं, उसे प्रकाशन की जरूरत है और दूसरा प्रकाशित होकर ही प्रफ्फुल्लित हो जाता है. 
हिंदी के लेखकों को एकजुट होना चाहिये और प्रकाशन, वितरण, अनुसन्धान और विविध विषयों में पुस्तकों के बाजार में व्यावसायिक पैठ बनाना चाहिए. उन्हें एक्टिविस्ट होना चाहिए, अपनी कविता की जिंदगानी के लिए और अपने हक के लिए

शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

मूर्ख-भक्षक की पीड़ा


 
डॉ. अनुपम 

बहुत तकलीफ हो गई है. सूचना क्रांति ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया है. मुझे कई कई दिन भूखा रहना पड़ता है. मुझे मूर्ख नहीं मिलते. मूर्ख सूचनाओं के पीछे छुप जाते हैं. वे शेरो, शाइरी, राजनितिक खबरें, फिल्म, साहित्य से लैस हो कर निकलते हैं . मै जबतक समझूँ की ये मूर्ख है, तबतक वह मुझे मूर्ख भक्षक जानकर सूचना के जंगल में भाग छुपा होता है. सामान्यतया हर मूर्ख अपने आप को ढंकना जानता है. 
मुझे भूखा रहना पड़ रहा है. दिखें तो सूचना दीजियेगा...

बुधवार, 18 जनवरी 2012

मित्र मंडली से मशवरा -



बहुत सुंदर रचना है तो मै इसे अपने मित्रों को कहाँ सुनाऊं, ब्लॉग या फेसबुक से बेहतर क्या होगा..

डॉ. अनुपम 
..
हर सम्बन्ध का स्थाई भाव है मैत्री. मैत्री में निर्भयता है निर्भरता नहीं. प्रेम है 'ब्योपार' नहीं इसलिए गंभीरता से मै कुछ मशवरा करना चाहता हूँ. मुझे कुछ लेखकों ने चेताया की वे अपनी रचनाएँ प्रकाशन के लिए भेजने के बाद ही कभी कभार फेसबुक पर पोस्ट करते हैं. यानि फेसबुक को वे एक सोशल नेट्वोर्किंग मीडिया न मानकर एक फीलर या प्रचार माध्यम मानते हैं. वे चोरी के विषय में भी चेता रहे थे. हिंदी के लेखक तकनिकी विषयों में अरुचि के भी शिकार होते हैं .
लेकिन मैंने फेसबुक और ब्लॉगिंग को बहुत गंभीर माध्यम के रूप में अपनाया है. मै अपने परिहास में भी स्तरीय हूँ. अक्सर चोरों को ही चोरी के विरुद्ध बोलते सुना है. जानकारी के लिए बता दूँ कि  फेसबुक या ब्लॉग पर आपकी रचना प्रकाशित होते ही वह स्वतः उस तारीख और समय में दर्ज हो जाती है, रजिस्टर्ड हो जाती है. 
कवितायें, रचनाएँ या विचारों को खुलकर शेयर करिए . दूर, सुदूर संवाद, सहयोग, सम्बन्ध और ब्यापार के इस महा वरदान का जमकर लाभ उठाइए.
किताब छपे, पत्रिकाओं में कवितायें छापें, अखबारों में साहित्य को जगह मिले और ब्लॉग , टीवी , फेसबुक पर भी गंभीर साहित्य छपे, गोष्ठियां हो, सेमीनार हो.
 'ब्योपरियों' ने भी रंगदार चोले पहन लिए हैं तो क्या कहते हैं आप? 

 




एक ताज़ा रचना


एक ताज़ा रचना 
                                                अनुपम 
नटवर तेरी गैया 
खा गई मेरा गल्ला .

आधा ले गया लल्ला 
बाकी ले गया दल्ला 
जो कुछ बचा खुचा था 
सो कुछ यहीं रखा था .

उसमे कुछ उसका था
उसमे कुछ अपना था 
अपनेमे सपना था 
सपने में था सैंया .

कबसे ही उखड़ा है
 दरवाजे का पल्ला 
एक नहीं कपड़ा है 
सात बरस का लल्ला,

सुनलो जसुमति मैया 
सुन लो नटवर लल्ला 
सब खा गई तेरी गैया 
क्या खाए मेरा लल्ला .

नटवर तेरी गैया 
खा गई मेरा गल्ला .
.......................................
एक ताज़ा विचार - अगर आपको लगे कि आप किसी को प्रेम कर रहे हैं या आपको कोई प्रेम कर रहा है तो पूछ लीजिये, कह लीजिये. अगर हाँ तो हाँ, न तो ना . मित्रता बची रहेगी. यही स्वाभाविक है भावो को स्पष्ट कर लेना. भावों को दबा देना ठीक नहीं. शुभ दिन.

बुधवार, 11 जनवरी 2012

प्रेम का मार्ग .. घनानंद



मै घनानंद से सहमत हूँ. प्रेम में चालाकी नहीं चलती. यानि चालाक लोग और चाहे जो करते हों, उन्हें प्रेम का स्वाद नहीं मिलता है.
 -
तहं साँची चले तजि आपुन पौ 
झाझके कपटी जे निसांक नहीं.

प्रेम के पथ में सिर्फ सच्चे लोग ही अपने अहं का त्याग कर चल पाते हैं. वह कपटी, धूर्त झिझकता है जिसका मन साफ़ नहीं होता.


अति सूधो सनेह को मारग है
जहाँ नैकु सयानप बांक नहीं.
तहं साँची चले तजि आपुन पौ
झाझके कपटी जे निसांक नहीं.
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला
मन लेहु पै देहूं छटांक नहीं.
घन आनंद प्यारे सुजान सुनो
इत एक से दूसरो बांक नहीं.

अति सूधो सनेह को मारग है,  स्नेह का मार्ग सीधा है.
 घनानंद कहते हैं कि अत्यधिक चतुराई, चालाकी स्नेह को मार देती है. यहाँ तनिक भी सयानेपन कि नहीं चलती. सुजान, तुम प्रेम के किस स्कूल में पढ़ी हो कि मेरा मन ले लिया या मनो मन, सारा मन ले लिया और एक छटांक भी वापस नहीं करती हो. मेरी प्यारी सुजान सुनो, यहाँ, मेरे दिल में एक तुम्हारे सिवा किसी के लिए जगह नहीं है. 

मंगलवार, 10 जनवरी 2012

अबोला न समझना..


अबोला न समझना..

सुनो मेरे प्यार !
अपने हर अनुभव को मै अल्फाज नहीं दूंगा .

मै तुम्हारे पास बैठूँगा और ये
कायनात हमारी होगी
बिना कहे भी तो सारे अर्थ अभिभूत कर जाते हैं
शब्दों का साधक मै
मेरा वादा है कि मै अपने सभी अनुभवों को शब्द
नहीं दूंगा क्योंकि
जब भी हमारे बीच शब्द आते हैं:
सिर्फ शब्द रह जाते हैं,
हम नहीं .

 हर पल
मुझे तुम्हारी पूरी मौजूदगी चाहिए
इसीलिए....

अनुपम
( 10-1-2012,Bombay,)

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

आइये कविता के उद्देश्य पर गंभीर हुआ जाए


अगर सच की रखवाली नहीं करनी हो तो मै कविता क्यों लिखूंगा? मै तो सच ही लिखूंगा. इतिहास गवाह है कि कविता में सच ही बचता है.
डॉ. अनुपम 

मांग के खईबो, मसीत में सोइबो 
काहू की बेटी से बेटा न ब्याहन.....
                    ( 'कवितावली'  )  
"मांग कर खाऊंगा, मस्जिद में सो लूँगा, किसी ब्रह्मण की बेटी से मुझे अपने बेटे की शादी नहीं करनी है, इसलिए जो लिखता हूँ, जिस भाषा में लिखता हूँ, वही और वैसे ही लिखूंगा. मै इन ब्राह्मणों ( ब्रह्म को जानने का दावा करने वालों , खेमेबाज विद्वानों ) के बताये रास्ते पर नहीं चलूँगा."?
तुलसीदास ने किस मनोदशा में ये बातें लिखी हैं ?
तुलसीदास की इस मनोदशा पर विचार किया जाये. ( इस पद को प्रकाशित करने के लिए मै कवितावली खोज रहा हूँ. किसी और मिल जाये तो प्रकाशित करें.)
आइये कविता के उद्देश्य पर गंभीर हुआ जाए.