शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

फिल्म मेरी विधा है.


फिल्म मेरी विधा है.
निर्देशक की डायरी 5

मुझमें आत्मविश्वास की कमी थी.मै अपने काम पर संदेह करता था. यहाँ  तक कि जिसपर( स्क्रिप्ट पर) सब सहमत और मुग्ध होते थे उस  पर भी मै अकेला संदेहग्रस्त छूट जाता था. लेकिन अब मैंने भी अपने आप को अप्रूव कर दिया है. अब मै जानता हूँ कि मै क्या हूँ , मेरी मुख्य विधा क्या है, मेरे विषय क्या हैं. अब मै अपनी नजर में भी संदेहरहित हूँ.
अब मेरा सिनेमा आकार लेगा और लिखा हुआ वर्क प्रकाशित होगा यानि दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण चरण शुरू हो चुका. वर्षों के श्रम से संचित, सिंचित और शोधित 
 विचारों को मैंने खुले हाथ अग्निबीज की तरह बिखरा दिया हैं. मैंने हजारों हमदर्द ढूंढ़ लिया है. मै चाहता तो एक अकादमिक विद्वान की तरह सभी विचारों को पुस्तक, निबंध आदि विधाओं में समेटता गया होता और मेरे नाम से किताबों की संख्या में इजाफा हुआ होता. लेकिन मैंने वही किया जो एक गवांर आदमी करता है ; जो की मै हूँ - मैंने खुरपी को खुरपी और हंसिये को हंसिये की तरह ही प्रयोग किया और विचारों को शोध पत्रिकाओं की जगह सडको, चौराहों, संघर्षशील कलाकारों और आम लोगों के बीच उदारता के साथ बाँट दिया. और हर बांटने में यह मल्टीप्लाई होता गया. 
अब मुझसे मिलते विचारों के बहुत साथी मिल गए, अब मै अकेला नहीं रहा. 
अब अपना सिनेमा बनाऊंगा. 
मैंने तीन लघु फिल्में अभ्यास के तौर पर निर्देशित की हैं और अपने आप को निर्देशक कहने का आत्मविश्वास पाया है. निर्देशक (कलाकार)  छोटा या बड़ा नहीं होता वह या तो होता है या नहीं होता. जैसे की आग या कवि छोटे या बड़े नहीं होते. वे या तो  होते है या नहीं होते. छोटी आग भी हवा का सहयोग पाकर बड़ी आग में बदल सकती है. 
तीन में से एक फिल्म मैंने यू ट्यूब पर शेयर किया है - मदर्स अ शोर्ट स्टोरी .
फिल्म बना लेना मेरे लिए कभी मुश्किल नहीं था; कठिन था निर्देशक बनना. जिसके लिए फ्रेंच टर्म 'औटर' मुझे सर्वाधिक समीचीन लगता है.  ( Auteur Theory that holds that a film's director is its "author" (French, auteur). It originated in France in the 1950s and was promoted by Francois Truffaut and Jean-Luc Godard and the journal Cahiers du Cinéma. The director oversees and "writes" the film's audio and visual scenario and therefore is considered more responsible for its content than the screenwriter. Supporters maintain that the most successful films bear the distinctive imprint of their director. The development of the auteur theory in this article .Starting with the birth of auteur theory in the 1954 Cahiers du Cinima article by Frangoise Truffaut, in which Truffaut attempting to criticize .screen-writers. cinema., in which the creative process essentially ended once the screen-writer finished writing the script. From that point, a director merely put the writing on film without leaving a personal creative imprint on the film. As a result of Truffaut.s article, critics began to put emphasis on auteur theory when writing their reviews. It became necessary for a director to use the film as a way of inventing a personal aesthetic and for each film to demonstrate a step in the overall progression of the director.s creativ) 
औटर' थियरी के पीछे के सिद्धांत संस्कृत काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों के काफी नजदीक हैं . कवि को ब्रह्मा और मनीषी कहना मान्य मत है. कवि ब्रह्मा है, स्वयम्भू है. उसकी जैसी रूचि है वैसा विश्व को  रच डालता है. कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू ...
Auteur theory draws on the work of André Bazin, co-founder of the Cahiers du cinéma, who argued that films should reflect a director's personal vision. Bazin championed filmmakers such as Howard Hawks, Alfred Hitchcock and Jean Renoir. Although Bazin provided a forum for auteurism to flourish, he himself remained wary of its excesses. Another key element of auteur theory comes from Alexandre Astruc's notion of the caméra-stylo or "camera-pen" and the idea that directors should wield their cameras like writers use their pens and that they need not be hindered by traditional storytelling.

फिल्म में ( 'औटर') निर्देशक  ब्रह्मा है. वह संसार को अपनी रूचि के अनुकूल पुनर्सृजित करता है. फिल्म भी अन्य कला विधाओं की तरह एक कलाकार की दृष्टि और दक्षता का ही परिणाम है. फिल्म निर्देशक की विधा है.

फिल्म मेरी विधा है.


बुधवार, 27 जुलाई 2011

प्रेम by Sushil Chaturvedy on Tuesday, July 26, 2011


सुशील  चतुर्वेदी की कविताएँ उनके फेसबुक नोट्स से उठाकर बिना पूछे अपने ब्लॉग पर छाप रहा हूँ. लीजिये आप भी प्रेम को तरोताजा कर लीजिये. 



प्रेम 
सुशील  चतुर्वेदी

प्रेम -१
प्रेम पनपता जाता है
जब प्रेम को पनपना होता है!
प्रेम को पनापने की
आवश्यकता नही होती,
प्रेम के बीज
विद्यमान होते हैं
सदैव, प्रत्येक जगह,
अंकुरित हो जाते हैं
एक और बीज के साथ
जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं
प्रेम के!

प्रेम-२
प्रेम के पुष्प
प्रायः अपने खिलने के संकेत
अपने रूप-रंग से नही
अपनी सुगंध से देते हैं,
प्रायः
वो दिखते भी हैं
और अदृश्य भी रहते हैं!
प्रेम प्रायः गूंगे के गुड़,
ज्योतिषी के ज्ञान
और ज्वालामुखी के लावे सा होता है!

प्रेम-3
प्रेम के डेरे नही होते,
प्रेम
प्रायः अपरिभाषित,अनिर्वाचित
और अननुभूत रह जाता है
क्यूँकि प्रेम अपरूप होता है!
प्रेम,
प्रेम के साथ होता है,
प्रेम के साथ जगता है,
प्रेम के साथ सोता है,
प्रेम के साथ रोता है,
प्रेम के साथ खोता है!

प्रेम-4
प्रेम पलता है
माँ के कोख में संतति की तरह,
प्रेम पलता है
गहरे समुद्र में
सीप में मोती की तरह,
प्रेम पलता है मेरी आँखों में
आँखों की ज्योति की तरह,
और आकार लेता है
होने-ना-होने के बीच
भोर के सपने की तरह!
प्रेम चलता रहता है दिन-रात
नक्षत्रों-ग्रहों की चाल,
प्रेम की ही खोज में!

प्रेम-५
प्रेम गूँजता है
मंदिरों में घंटियों, शंखों और मन्त्रों में,
प्रेम तिरता है
अमृत-सरोवर में शबद के रूप में,
प्रेम प्रायः बन जाता है
मनुहार, मन्नत, आशीर्वाद, दुआ
दिव्यानुभूति, किलकारी, ऊर्जा....!
प्रेम कभी नही बनता
अ-प्रेम,
प्रेम की कोई माया नही,
प्रेम के पास विघटित होने की सामर्थ्य
नही होती!

प्रेम-६
प्रेम
बीतता है
जैसे चन्द्रमा छीजता है,
पर प्रेम रहता है सदैव
इस-पार या उस-पार के जगत में,
प्रेम धूनी की तरह सुलगता है,
चिता की तरह जलता है,
और चटकता है
यज्ञाहुति में हवन-कुण्ड में
पवित्र-अग्नि में लकड़ियों की तरह!
प्रेम की कोई कसौटी नही
पर प्रेम निखरता है, दमकता है
प्रेमाग्नि में तप कर!

प्रेम-७
प्रेम बिखर जाता है
हवाओं में सुगंध की तरह,
मिल जाता है गंगा-जल में
वनौषधि की तरह,
और बहता जाता है तरते-तारते,
प्रेम चमक जाता है
महाश्मशान में दिव्य-प्रकाश की तरह,
और विलीन हो जाता है
क्षितिज में धूम-केतु बन
बादलों के साथ बरसने,
पुनः पनपने के लिए,
प्रेम मर जाता है एक दिन
किसी अमर-पक्षी की तरह!

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

या खुदा ! हिंदी पर रहम कर !

निर्देशक कि डायरी -४ 
घर बर्तन करने वाली लडकियों और किसानी करने वाले लौंडों को आजकल हिंदी विभाग के प्रोफ़ेसर लोग फिल्म पर शोध का काम थमा देते हैं. इस नापाक सिलसिले को रंग देने का गुनाहगार मै हूँ तो ये लोग मुझसे संपर्क करते हैं. ये साहित्य पढने लायक तो है नहीं जो हिंदी में उपलब्ध है, बेचारे सिनेमा पर क्या करेंगे. कुछ ने तो मेरे शोध प्रबंध को शब्दशः कॉपी कर डिग्री भी ले ली. क्या करें यार? अपनी हिंदी का क्या करें?
मुझे तो कोई भी आर्थिक मदद या किसी भी तरह की मदद हिंदी विभाग से नहीं मिली थी. न आज तक आगे काम करने के लिए मिली. मैंने स्वतंन्त्र रूप से सिनेमा को समझने केलिए नोट्स बनाये और किताब में परिवर्तित कर दिया. हिंदी विभाग में जमा किया तो उनलोगों ने एक डिग्री दे दी डॉक्टर की जो मेरी नजर में धेले भर की भी नहीं है. किताब छप कर आई तो मै सफल हुआ. और फिल्म बनाने में लगा हूँ. अपने खर्च से और किताबें तैयार कर रहा हूँ. और ये सुसरे शोध शोध कर के समय ख़राब करते हैं. ये अपने विभाग से कोई ओफिसिअल लेटर भी लेकर नहीं आते. क्या करूँ इनका भाइयों?
मुंबई यूनिवर्सिटी, जे एन यु, देल्ही यूनिवर्सिटी, बी एच यु , इन के हिंदी विभागों में मूर्ख भरे हैं क्या? फिर ये मध्यकाल पर ही केवल शोध क्यों नहीं करवाते या कोई ढंग का रास्ता खोजें जिसमे हमरे जैसे लोगों का समय लेने के अधिकारी बन जाएँ.
सच्चाई ये है कि हिंदी अब हिंदी के प्रकाशकों और हिंदी के विभागों से बहार विकसित होगी. आईटी सेक्टर से मै गंभीरता कि उम्मीद कर रहा हूँ. किसी भी विषय में और सिनेमा में तो आजतक एक तकनिकी किताब नहीं मिलेगी हिंदी में. 
राष्ट्रवाणी तो थी ही हिंदी, राष्ट्रभाषा बनने के कुछ ही दिनों बाद राजनीतिक गलियारों में  साहित्य के दलालों के हाथ का खिलौना बन गयी .

मेरी पुस्तक भारतीय सिने-सिद्धांत को हजारों लोगों ने पढ़ा और लाभ उठाया है. उसे लिखने में मुझे सात साल लगे और प्रकाशित होने में तीन साल, उसके बाद सात साल और गुजर चुके हैं और मंशा रहते हुये भी मै भी दूसरी किताब नहीं दे सका.

या खुदा ! हिंदी पर रहम कर !





रविवार, 24 जुलाई 2011

किसी साल बारिश में लिखे गए दो गीत..

 बारिश में



आ रहे है खेलकर फुटबॉल बारिश मेंबादलों की उड़ रही गुलाल बारिश में .
दिल के तट को छू रही तेरी दुआएं है
तेरे रंग की ओढ़ ली रुमाल बारिश में .

गरजते  है तब बहुत कठोर लगते हैं
बरसते है तो बजे हैं ताल बारिश में .

ये मिलन धरती गगन का गजब है, यारो !
हम भी भीगेंगे इस साल बारिश में .



पाओस आल ..


जाल खोलते हैं मछुआरे
 पाल खोलते हैं मछुआरे
पहली मछली की तड़पन से साल खोलते है मछुआरे !

बीज ढो रहे हैं बनिहारे
बीज बो रहे है बनिहारे
इस मौसम में किस मौसम के बीज हो रहे हैं बनिहारे ?

घास गढ़ रहे हैं घसियारे
घास पढ़ रहे हैं घसियारे
बरसा से सरसी धरती कि साँस पढ़ रहे है घसियारे .....

पाल खोलते हैं मछुआरे .

बुधवार, 20 जुलाई 2011

उगने लगे शब्द/ From - जलतरंगों की आत्मकथा, published by kitabghar

उगने लगे शब्द 

अनुपम 
(बरसात में मै रामांटिक हो जाता हूँ. बहुत सुंदर कवितायेँ याद आती हैं . मेरे पहले और अबतक प्रकाशित एक मात्र संग्रह जलतरंगों की आत्मकथा की एक अति रोमांटिक कविता पब्लिश कर रहा हूँ. संग्रह १९९२ में किताब घर ने प्रकाशित किया था और ये कविता १९८८ में लिखी गई थी जब मैं जब मै महज १८ साल का था और मेरी तुलना एक कवि चित्रकार ने किट्स से की थी. एक नए कवि के लिए यह तो पुरष्कार जैसा था. लीजिये आप भी पढ़िए. )
मेरी अँगुलियों से लिपट गया है एक शब्द अंगूठी सा 
कहीं ये तुम्हारा नाम तो नहीं 
मेरे स्वर में बार बार गुनगुना रही है मुझे एक धुन 
कहीं ये तुम्हारी हँसी तो नहीं 
मैंने नहीं सुनी है तुम्हारी हँसी
नहीं जनता हूँ नाम 
तुम्हे देखते ही मेरी आँखों में उगने लगे शब्द 
झरने लगे शब्द 
तुम्हारे आसपास रंगीन बुलबुलों से बिखरने लगे शब्द
तुम्हारी अलकों में, माथे पर 
संवारने लगे शब्द 
मेरे शब्द ;
 
और शब्दों के घेराव में तुम्हारा रूप 
भोर के होठो से चुराई  गई 
अंजुरी भर धूप
तुम्हारा रूप कविता सा लगा 

तुम्हारी आँखें मेरे चुराए उन क्षणों सी 
जिनमें मेरे गीतों ने तुम्हारे होठों को
हाँ, तुम्हे ही तो पुकारा था
लौट गए थे तुम अनसुने 

दूर तक गूंजती रही तुम्हारी पदचाप 
दिक् कन्याओं की अलकों से झरी चांदनी उदास 
और मैं आकाश गंगा में एक नामहीन तारे सा गुम गया
तब भी
हाँ, तब भी मेरी कलम की नोक से झरे थे नीले फूल !

तबे मेरा कवि मन 
छली मन 
शब्दों की तरह बिखरा है रंगमंच पर एक सूनी प्रतीक्षा में 
शायद तुम - 

तुम उन्हें अपने पाँवों में पिरो लो !

सोमवार, 18 जुलाई 2011

यशपाल शर्मा यानि अभिनय का एक अलग आयाम

यशपाल शर्मा ने जितना काम किया है उतना क्रेडिट नहीं मिला है. गंगाजल फिल्म से प्रकाश झा की वापसी होती है. फिल्म में जबतक यशपाल शर्मा नहीं आते हैं तबतक ऐसा लग रहा है की फिल्म बिहार को पकड़ने की कोशिश कर रही हुई. यशपाल शर्मा के आते ही बिहार उपस्थित हो जाता है. पूरी फिल्म में सिर्फ यशाप्ल शर्मा ही सहजात से एक बिहारी चरित्र दीखते हैं और किसी पत्रकार का ध्यान भी नहीं जाता कि गंगाजल फिल्म पूरी तरह यशपाल शर्मा के कंधो पर चलती है. गंगाजल ही क्यों अपहरण भी. उन चरित्रों से यशपाल शर्मा को हटाकर किसी भी एक्टर को रख कर कल्पना करिये; दोनों फिल्मे धराशाई हो जाती नजर आएँगी.
 क्या आप लगान में यशपाल शर्मा की भूमिका को भूल सकते हैं ? एक तरफ सभी सकारात्मक चरित्र और एकमात्र ग्रे चरित्र यशपाल शर्माl के हिस्से. लगान में एक्टिंग के धरातल पर एक टीम में रघुबीर यादव, आमिर खान से लेकर सब के सब राजा तक एक पोजिटिव पात्र है और दूसरी तरफ एक अकेला यशपाल शर्मा एक काले चरित्र के उजाले से सबको रोशन करता हुआ.
अब तक छप्पन और में नाना जैसे ओरिजिनली अक्खड़ अभिनेता के सामने यशपाल शर्मा अपनी स्थिर आत्मशक्ति से अभिनय का लोहा मनवाने में कामयाब होते हैं. लेकिन न जाने क्यों मीडिया को खासतौर से टीवी न्यूज़ मीडिया को सिर्फ सस्ती चीजें ही दिखती हैं.
यशपाल शर्मा के एक्टिंग पॉवर में मुझे बलराज साहनी, अशोक कुमार, मोतीलाल की ताक़त नजर आती है.यशपाल शर्मा अपनी सहजता की शक्ति से अपने समकालीनों में सबसे जुदा हैं.अशोक कुमार कहते हैं की मै अभिनय करता नहीं हूँ,हो जाता है.यह कवि ह्रदय कलाकार ही कह सकता है.और यशपाल शर्मा भी ऐसे ही हैं - पोएट ऑफ़ एक्टिंग!


यशपाल शर्मा किसी भी चरित्र में सहजता से उतरने और अपने रंग में रंग देने की शक्ति से ब्लेस्ड हैं.

यशपाल शर्मा की जिम्मेवारी बनती है की वे पोजिटिव चरित्रों को भी निभाएं. खासतौर से बिहार के खल चरित्रों को ऐसी सचाई के साथ उकेरने के बाद उनको वहां के सद चरित्रों को भी अपने रंग में रंगना चाहिए. 
आनेवाले समय में हम उन्हें बहुरंगी चरित्रों में देखने की उम्मीद करते हैं.

रविवार, 17 जुलाई 2011

कल शाम पृथ्वी रंगशाला में एक प्ले देखा "करोडो में एक", सचमुच करोड़ो में एक ..

निर्देशक कि डायरी - ४
 कल शाम  पृथ्वी रंगशाला में एक प्ले देखा "करोडो में एक". "करोडो में एक" मकरंद देशपांडे  ने  लिखा और डाइरेक्ट किया है.पूँजी  और संस्कृति को अब्सर्ड शैली में नाटक के कलेवर में बांध देने की इस कुशलता की जितनी सराहना की जाये वह कम है. पिछले कई साल में मैंने इससे बेहतर नाटक नहीं देखा है. इस नाटक ने मेरी नाटक देखने की भूख जगा दी. आरम्भ से अंत तक नाटक जिज्ञासा और प्रभाव बनाये रखता है. हमन हैं इश्क मस्ताना हमें दुनिया से यारी क्या, उड़ जायेगा हंस अकेला , जग दर्शन का वेला. इन पंक्तियों के रचयिता कबीर जैसा इंसान या  सुंदर ईश्वर सिर्फ भारत पैदा करता है. पश्चिम ने दुनिया को वैज्ञानिक दिया है और भारत ने योगी. वैज्ञानिक की यात्रा योगी होने में समाप्त होती है जहाँ से भारत का एक योगी आरम्भ करता है.विज्ञानं के साथ पूंजीवादिता का सम्बन्ध है और योग के साथ प्रेम और करीना का. प्रेम और करुणा को केंद्र में रखकर "करोडो में एक" जैसा नाटक भी भारत में ही लिखा जा सकता है.
 नाटक शुरू होने के पांचवे मिनट में दर्शक नाटक का हिस्सा बन चुके थे. "करोडो में एक"  किसी भी आम परिवार की कहानी है और दर्शकों को यही बात शुरू से इन्वाल्व कर लेती है. वंशीलाल करोडो का व्यवसाय अपने भाइयों के नाम कर के कंगाल हो गए हैं. भाइयों के विश्वासघात से वे अपना मानसिक संतुलन खो देते है.  भाइयों  की नजर मकान पर भी है. उनका बेटा, बेटी, बहू, और नाती- नतनी और दामाद यह पूरा परिवार एक बुजुर्ग को कैसे सम्हालता है वह अत्यंत मार्मिक है. लेकिन खूबसूरती है इस साधारण परिवार की कहानी को असाधारण ढंग से प्रस्तुत करने में. "करोडो में एक" नाटक पूरी तरह अत्याधुनिक भाषा में लिखा गया है. यह  इस समय की भाषा में लिखा गया है. हमारे समय की भाषा है अनास्था, अब्सर्ड, अप्रेम और जिजीविषा. नाटक आपको जिजीविषा से भरपूर कर विदा करता है.
यशपाल शर्मा ने बेटे की और मकरंद देशपांडे ने बूढ़े बाप की भूमिका निभाई है. मकरंद देशपांडे क्लैसिकी थियेटर एक्टर हैं. ये मंच के बादशाह हैं. मकरंद ने  अंतिम दृश्य में कुमार गन्धर्व के गाये कबीर के पद पर मुक्ति का जो अद्भुत पदचालन किया है वह नृत्य और नाट्य के मनीषियों के लिए अनुसन्धान  का विषय हो सकता है. इसी पद "उड़ जायेगा हंस अकेला" से नाटक की शुरुआत और अंत होता है. यह इतना अभिनव है कि काबिले तारीफ़ है.
यशपाल शर्मा को हमने ज्यादातर फिल्मों में  खल चरित्रों को चित्रित करते हुए ही पाया है. किन्तु यहाँ एक सादा चरित्र में सहजता से रंग भरते देख कर मेरे जैसे  दर्शक दंग रह जाते हैं. यशपाल शर्मा के एक्टिंग पॉवर में मुझे बलराज साहनी, अशोक कुमार, मोतीलाल की ताक़त नजर आती है. यशपाल शर्मा अपनी सहजता की शक्ति से  अपने समकालीनों में सबसे जुदा हैं. मै यशपाल शर्मा को सहजता की शक्ति में अशोक कुमार से तुल्य (कम्पेरिजन) मानता हूँ. अशोक कुमार की तुलना किसी ने रामकृष्ण परमहंस से की है. अशोक कुमार कहते हैं की मै अभिनय  करता नहीं हूँ, हो जाता है. यह कवि ह्रदय कलाकार ही कह सकता है.और यशपाल शर्मा भी ऐसे ही हैं. मै यशपाल को अभिनय का कवि मानता हूँ - पोएट ऑफ़ एक्टिंग!. किसी भी चरित्र में सहजता से उतरने और अपने रंग में रंग देने की शक्ति से ब्लेस्ड हैं यशपाल शर्मा. यशपाल शर्मा में अनंत संभावनाएं है.  यशपाल ने बेटे की भूमिका निभाई है जो किसी तरह अपने परिवार को बचा लेना चाहता है लेकिन गुंडा नहीं बनना चाहता और निराशा की अति में आत्महत्या की भी कोशिश करता है. सहज ही एक कुशल अभिनेता यशपाल अंतिम दृश्य में अपने पिता की स्मृति को मूर्तिमान कर देते हैं. सभी अभिनेताओं ने अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है. सुधीर पाण्डेय ने राजनेता और वंशी के पुराने मित्र की भूमिका में जान डाल दिया है. बाकी अभिनेताओं का  का नाम न जानने के कारण मै नाम लेकर उनके बारे में कुछ नहीं लिख पा रहा हूँ लेकिन ऐसा नहीं लग रहा था कि हम अभिनय देख रहे हैं. वास्तव में मंच पर एक परिवार ही उपस्थित था, विषय के रूप में भी और चरित्रों के रूप में भी. अभिनय, प्रकाश व्यवस्था, पार्श्व संगीत सब में ऐसा सुगठित संयोजन है कि पता ही नहीं चलता कि तीन घंटे कब निकल गए.
नाटक देखकर बाहर निकलने के बाद कई घंटे तक नाटक मेरे मस्तिष्क में चलता रहा. इस सृजनात्मक अनुभव से मेरे व्यक्तिगत जीवन में बहुत से सकारात्मक परिवर्तन हुए और होंगे. पिता का पुत्र को दिया गया अंतिम उपदेश तो किसी भी सुबुद्ध प्राणी के लिए आजीवन सम्हाल कर रखने लायक है. मेरी सलाह है अगर आपको अगले कुछ महीनो के लिए बहुत तगड़ा मानसिक खुराक चाहिए तो इस नाटक को जरूर देखें.

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

निर्देशक की डायरी 3 / फिल्म निर्देशक मीडिया है न की लेखक मीडिया आज ये सब जानते हैं. चलिए माना की लेखक नहीं हैं. तो क्या हुआ ? निर्देशक हैं न ? या वास्तव में निर्देशक नहीं हैं ? और प्रोड्यूसर भी नहीं हैं ? क्योकि "हमारी फिल्म इंडस्ट्री में सबके पास एक कहानी होती है लेखक को छोड़कर " - भगवती चरण वर्मा ने १९५० में लिखा था ! आज भी हम वही हैं! निर्देशक, अभिनेता, संगीत, कला सबके महत्त्व और रचनाशीलता को सब पहचानते और सराहते हैं. लेकिन क्या अबतक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रोड्यूसर के महत्त्व को समझने की कोशिश की गई है? क्या कभी इस पर विचार किया गया है की 'प्रोड्यूसर मे बी अ क्रिएटिव पोस्ट'. अक्चुअली प्रोड्यूसर इज अ क्रिएटिव पोस्ट इन एंटायर फिल्म वर्ल्ड. लेकिन हमारी फिल्म इंडस्ट्री में


निर्देशक की डायरी 3
फिल्म इंडस्ट्री में अच्छे लेखक नहीं है - अमिताभ बच्चन.
अब लगता है की लेखक खोजने फिल्म इंडस्ट्री से बाहर ही जाना होगा- राहुल बोस.
 सिर्फ पिछले एक सप्ताह में बड़े और गंभीर फिल्म कर्मियों  से लेकर दर्जन भर छूटभैयों ने भी यही बात दोहराई हैं. इस बात को मै काफी अरसे से सुनता आ रहा हूँ.  सन २००० में इंडिया डे एंड नाईट में मैंने आमिर खान का सन्दर्भ रखकर 'हिन्दी सिनेमा में पटकथा की व्यथा' नाम से एक सारगर्भित लेख लिखा था.  नए सिरे से कुछ बातें कह रहा हूँ. 

फिल्म निर्देशक मीडिया है न की लेखक मीडिया आज ये सब जानते हैं. 
चलिए  माना की लेखक नहीं हैं. तो क्या हुआ ? निर्देशक हैं न ? 
या वास्तव में निर्देशक नहीं हैं ? और प्रोड्यूसर भी नहीं हैं ? क्योकि "हमारी फिल्म इंडस्ट्री में सबके पास एक कहानी होती है लेखक को छोड़कर " - भगवती चरण वर्मा ने १९५० में लिखा था ! आज भी हम वही हैं!
 निर्देशक, अभिनेता, संगीत, कला सबके महत्त्व और रचनाशीलता को सब पहचानते और सराहते हैं. लेकिन क्या अबतक हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में प्रोड्यूसर के महत्त्व को समझने की कोशिश की गई है? क्या कभी इस पर विचार किया गया है की 'प्रोड्यूसर मे बी अ क्रिएटिव पोस्ट'. अक्चुअली प्रोड्यूसर इज अ क्रिएटिव पोस्ट इन एंटायर फिल्म वर्ल्ड. लेकिन हमारी फिल्म इंडस्ट्री में जो भी पैसा लगाता है वह प्रोड्यूसर होता है और जो भी पैसा या स्टार ला सकता है वह डाइरेक्टर होता है. यह आम प्रचलन है. हर साल आठ सौ हजार फिल्मों में से नब्बे प्रतिशत अगर हम औसत सिनेमा बनाते हैं तो इसका कारण राइटर नहीं है ! क्यों की राइटर को डाइरेक्टर और प्रोड्यूसर अपोइन्ट करते हैं. राइटर भी म्यूजिक डाइरेक्टर और फाईट डाइरेक्टर या आर्ट डाइरेक्टर की तरह फिल्म का एक सहकर्मी होता है न की मेकर ?

हमारी इंडस्ट्री में ओरीजिनल डाइरेक्टर की भारी कमी है; जिनके पास अपनी कोई सोच, कोई आईडिया हो जिसे डेवलप करने के लिए सच्चे लेखक की जरुरत हो. हमारे यहाँ नकली डाइरेक्टर हैं जिन्हें किसी बाहरी फिल्म को हिंदी में छापना होता है. उनमें नए विषय को धारण करने की शक्ति नहीं होती. उनके पास गर्भ नहीं होता जहाँ विचार विन्दु को धारण कर सकें. ऐसे महत्व के रोगी सो काल्ड डाइरेक्टर लोग मुंशी नुमा लोगों को खोजते है जो चोरी में सफाई से साथ दें. इसीलिए हमारी फिल्म इंडस्ट्री का सर्वप्रिय सब्जेक्ट आजतक अपराध बना हुआ है.अपराध और हिंसा तो जैसे एंट्रेंस एक्जाम है जिसको पास करके ही कोई अभिनेता बन सकता है. कमाल की इंडस्ट्री है भाई नब्बे प्रतिशत नकल पर चल रही है और चकाचक चल रही है!!
फिल्म लेखक का मिडिया नहीं है तो यहाँ लेखक नहीं हैं . इसमें क्या आश्चर्य है. गट्स वाले अभिनेता तो है ना जो सिर्फ ओरीजिनल स्क्रिप्ट करते हैं ? जो धंधे पर ही नहीं उतर गए हैं? लेखक कभी नहीं थे और हमेशा थे उन्हें फिल्म लेखन के लिए निर्देशक या प्रोड्यूसर आमंत्रित करते हैं. क्या उम्मीद करते हैं आप की  कोई भी लेखक फिल्म इंडस्ट्री में आकर दुबारा से लेखक बनने का संघर्स शुरू कर दे ? अभिनेता और निर्देशक के लिए जा जाकर अपने आप को इंट्रोड्यूस करना सही है क्योंकि वे फिल्म माध्यम से ही अपना परिचय दे सकते हैं लेकिन एक लेखक तो साहित्य, पत्रकारिता आदि माध्यमों से भी अपनी योग्यता का संकेत दे सकता है. लेखक को हमेशा बुलाया जाना चाहिए. यह बुलाना भी तभी संभव है जब निर्देशक और प्रोड्यूसर भी जागरूक और रचनात्मक हों ! क्या ऐसे निर्माता हैं सर ?
बी आर चोपड़ा ने कमलेश्वर को फिल्म लिखने के लिए बुलाया और सिखाया भी. वे विमल राय थे जिन्होंने नवेंदु घोस, गुलजार, बासु चटर्जी, बासु भट्टाचार्य और न जाने कितने लेखकों, निर्देशकों, कलकारों को संरक्षण दिया. 
मै बच्चन साहब से पूछना चाहता हूँ की आपकी पीढ़ी तो भाग्यशाली थी जब ख्वाजा अहमद अब्बास  जैसे लेखक निर्देशन कर रहे थे. हमें क्या मिला है.
राहुल बोस तो खुद बहुत बढ़िया लेखक है . मैंने उनकी एक स्क्रिप्ट पढ़ी थी. उन्होंने लिओ तोल्स्तोय की किताब अन्ना कारेनिना को हिंदी सीरियल के लिए रूपांतरित(Adapt ) किया था. कमाल का भारतीयकरण किया था इन्होने. तब मै एक टीवी चैनल में काम करता था. मै इस के बनने के पक्ष में था. किन्ही कारणों से एक आला अधिकारी राहुल के पक्ष में नहीं था. मैंने इसी बात पर स्क्रिप्ट सलेक्शन का काम छोड़ दिया. बाद में नौकरी छोड़ दी. मै राहुल से पूछना चाहता हूँ की वे खुद इतने अच्छे लेखक हैं, आपको कितनी फिल्में औफर होती हैं ? 

तो मामला ये नहीं है की लेखक नहीं है; हुजूर! प्रोड्यूसर और निर्देशक नहीं है जैसा की मै समझ रहा हूँ.            

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

निर्देशक की डायरी २


निर्देशक की डायरी २
जिस पहले नाटक में मैंने एक अभिनेता के तौर पर पार्टिसिपेट किया था उसे मेरे भैया देव जी ने लिखा था. नाटक का नाम था 'प्राण जाये पर वचन न जाये' . तब मै बारह - तेरह साल का रहा होऊंगा. मैंने उसमे एक अच्छे राजा का रोल किया था जो अपनी अच्छाई के लिए कुर्बानियां देता है और दर दर की ठोकरें  खाता है. मेरे एक दोस्त ने बुरे राजा का रोल किया था. एक और साथी ने विपत्ति का रोल किया था. नाटक सफल था. इसके बारे में विस्तार से लिखूंगा.
 फ़िलहाल एक जरूरी फिल्म लिख रहा हूँ.
 जब डेडलाइन तय कर के मै कुछ लिखता हूँ तो टीवी, सिनेमा, नेट, फोन, दोस्त यार, प्यार व्यार सबसे जुदा होता हूँ. इसी माटी पानी से बनाये अपने सबसे प्यारे मित्रों यानि चरित्रों के साथ दिन रात रहता हूँ. बहुत खडूस टाइप दीखता और होता हूँ क्योंकि इसी संसार की प्रतिलिपि एक दूसरा संसार रच रहा होता हूँ.
 कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू . सिनेमा इस द वर्क ऑफ़ ओउतर. इन सब बातों की सविस्तार व्याख्या करूँगा.  मगर तीस जुलाई तक एक नया संसार, एक नयी फिल्म मुझे कागज पर बना देना है. तो तबतक मै कम दिखूंगा और कम लिखूंगा.
निर्देशक की डायरी  लिखने का समय निकालने की कोशिश करूँगा.
शुभकामनायें.

निर्देशक की डायरी



निर्देशक की डायरी
श्याम बेनेगल ने ४२ साल की उम्र में अपनी पहली फीचर फिल्म डाइरेक्ट की थी. तबतक वे एक हजार से ज्यादा ऐड फिल्में बना चुके थे. मैं ४१ साल का हो गया हूँ और अबतक पाँच सौ से ज्यादा टी वी प्रोमो बना चूका हूँ और तीन शोर्ट फिल्में. मैंने अपने लिए श्याम जी की ही नियति चुनी है. एक ज्योतिषी की बात मानें तो उन्होंने मुझे सन २००१ में लिख कर दिया है की फिल्म में लेखक बन्ने की मेरी सारी कोशिशें नाकाम हो जायेंगी क्योंकि तुम्हारी नियति निर्देशन है. थियेटर से टी वी और अब सिनेमा तक ये बात सच साबित दिख रही  है. न मानते हुए भी ज्योतिष को मानना पड़ रहा है.
बहुत शुरुआत से ही किसी दल का हिस्सा बनने की जगह अपना कुछ करना मुझे पसंद रहा है. साहित्य में बड़े संगठनों का हिस्सा बनने की जगह मैंने अपनी मंडली समाधान समूह बनाकर १९८५ से २००० तक उसे विधिवत चलाया. चुकी वह छात्र जीवन का हिस्सा था इसलिए बनारस हिन्दू  विश्व विद्यालय से निकलने से पहले  कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया. समाधान की तरफ से मैंने आख़िरी कार्यक्रम १९९९ के अंत में आयोजित किया था - बनारस के दस कवियों का एकल काव्यपाठ. वह सफल रहा और उसके सारे दस्तावेज श्री अवधेश प्रधान जी ने मांग लिए. योजना उन कविताओं को प्रकाशित करने की थी जिसका अब कुछ पता नहीं.
साहित्य और रंगमंच की तुलना में सिनेमा तत्काल प्रभावी है. यही बात मुझे सिनेमा की तरफ ले आई. यहाँ आकर मै एक गुमनाम लेखक और अल्पनाम निर्देशक तो बन गया लेकिन जिन गिने चुने निर्माताओं से मिला वहां सिर्फ समय और विचार नष्ट हुए.
अब मैंने अपना प्रोडक्शन हाउस भी शुरू कर दिया है. मेरी नियति है की मै अपना संगठन बनाकर ही कुछ कर पता हूँ. दर असल मै रचनात्मक स्वतंत्रता से समझौता भी कर लूँ तो सामने वाले को यकीन नहीं होता. और अगर मै अपनी पूरी प्रतिभा का प्रदर्शन करूँ तो वह भी नहीं पचता.
सिनेमा पर शोध और पिछले दस साल के व्यवहारिक अनुभव के साथ मैं इतना संपन्न हूँ की सिनेमा को एक फेरी वाले की तरह घूम धूम कर पूरे उत्तर भारत में फैला दूंगा.मैंने अपने प्रोडक्शन का नाम फेरीवाला फिल्म प्रोडक्शनस रक्खा है. कैसा है?
ज्योतिषी की बात में सचाई है भाई. मानना पड़ेगा.