सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

निर्देशक कि डायरी १५


क्योंकि कवितायें अपनी जमीन नहीं छोड़तीं. 
अनुपम 
कविता मेरा करियर नहीं है, कविता मेरा स्वभाव है, मेरा श्रम है, मेरे दुःख और आंसू , खुशियाँ और आनंद ये सब मेरी कवितायेँ हैं. और मेरी कविताओं की जन्मभूमि मेरा दिल- दिमाग है.
 बम्बई में भी मैंने खूब कवितायेँ लिखी हैं. मुझे मेरी जानी पहचानी जमीन की गंध जब भी जहाँ भी मिली हैं, मैंने कवितायेँ लिखी हैं. लेकिन वास्तव में मेरी सारी कवितायेँ तो मेरे गाँव की छत से ही उड़ान भरती हैं. कवितायेँ इतनी हैं की दो तीन चार संग्रह आ सकते हैं. रोज सोचता हूँ की कम से कम एक संग्रह प्रकाशन के लिए भेज दूँ. एक सेकेण्ड थॉट हाथ रोक देता है - अगर मै बनारस में इन्हें  अंतिम रूप दूँ तो ये और निखर जाएँगी. 
मै नॉस्टेलजिक जैसे मनोवैज्ञानिक शब्द से एक नजरिये के तौर पर सहमत हूँ लेकिन फ्रायड से ज्यादा मुझे अपने अनुकूल आचार्य रामचंद्र शुक्ल लगते हैं और हैं भी. फ्रायड से ज्यादा ठोस और जमीनी मनोवैज्ञानिक आधार चिंतामणि भाग 1 ,२ में परिलक्षित होता है. शुक्ल जी कहते हैं कि जो बीत गया उसे भूल जाओ एक कठोर और निरर्थक बात है. अतीत और स्मृतियों  का वैभव ही हमारी पूंजी है. हमारा रचनात्मक मन उसी से पुनर्सृजन करता है.
मै उस शिक्षा को लानत भेजता हूँ जो आपको आपकी जमीन से उखाड़ दे.
एक लेखक को तो सबसे पहले क्षेत्रीय होना चाहिए.
मै अपने प्राणों में अपने  परिचित परिवेश की गंध से ही जीवित हूँ. मुझे अपने उन बंधुओं पर आश्चर्य होता है जो जड़ समेत उखड़कर कहीं और बस जाते हैं. इसमें कोई बुराई नहीं हैं, सिर्फ कविताओं का साथ नहीं रह जाता. क्योंकि कवितायें अपनी जमीन नहीं छोड़तीं. 

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

निर्देशक की डायरी 14


 मेरी कवितायेँ वहां अंडे सेती हैं.   
 अनुपम 


सचाई ये है की मुझे बम्बई से कोई शिकायत नहीं, दरअसल मुझे बनारस से कुछ ज्यादा ही प्रेम है. कहते है की जो दस साल बनारस में रह जाए वह कहीं और नहीं रह सकता. मेरा अनुभव है की कम से कम चैन से नहीं रह सकता. बनारस एक रोग है, मोहब्बत है. बनारस एक आदत है जो मरे तक नहीं जाती. अपनी स्थानीयता में मै अपने आप को फणीश्वर नाथ रेणु और रसूल हमजातोव के नजदीक पाता हूँ.
बम्बई! मेरा कर्म क्षेत्र! इसने मुझे सबकुछ दिया. यहाँ पैर रखते ही मुझे काम, पैसा, नाम, पार्टियाँ, दोस्त सब मिले. हर वांछित शौक़ मेरा पूरा हुआ. दस साल मै यहाँ भी रह चूका हूँ लेकिन एक दिन के लिए भी अपने को बनारस से बाहर नहीं पाया. इस महासमुद्र में अपने भीतर बनारस लिए मै थक सा जाता हूँ. बोर होने लगता हूँ. यहाँ के सभी ५ स्टार ७ स्टार होटलों के कॉफ़ी शॉप से ज्यादा उन्मुक्त अस्सी चौराहे की चाय की टपरी लगती है. विजया की एक गोली शैम्पेन की पूरी बोतल पर भारी पड़ती है. एक साधारण गृहस्थिन का सौंदर्य अपनी गरिमा से इन सुंदरियों की चमक को धूमिल कर देता है. ये सभी पहाड़ मेरे भीतर विस्तार की वैसी अनुभूति नहीं जगाते जैसा गेहूं का एक छोटा सा खेत कर देता है.

दरअसल मै एक मैदानी आम आदमी हूँ जिसे पहाड़ सिर्फ दर्शन भर ही रिझाते है. सुकून तो मुझे गंगा के किनारों पर ही मिलता है. मेरी कलम बनारस पहुँचते ही इस तरह स्याही उगलती है जैसे अपने बच्चे को देखते ही माँ के सीने  से दूध  फूट पड़ता है.  बनारस के पास ही मेरा गाँव है और मेरी कवितायेँ वहीँ अंडे सेती हैं.   

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

मै नहीं लिखता ... अनुपम ( १२-०९-२०१, मुंबई )


नीलकमल के नोट्स से ---
'तो कविता भी उसी नारियल के पानी जैसी चीज़ होनी चाहिए ।
कहने का अर्थ यह कतई नहीं है कि कवि कोई जादूगर होता है । ऐसा तो बिलकुल भी नहीं है । लेकिन कविता की रचना प्रक्रिया में कहीं न कहीं वह बात अवश्य है कि "देयर इज़ समथिंग मैजिकल इन इट" । आखिर क्यों बड़े से बड़े कवि के लिए भी हर बार बड़ी कविता लिखना कठिन होता है । क्यों किसी बिलकुल नए कवि की एक कविता वह बात कह जाती है जो पहले किसे ने उस ढंग से नहीं कही । क्यों आखिर , "कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए-बयाँ और" । बहुत सम्भव है कि कवि होना व्यक्ति का खुद का चुनाव न हो बल्कि कविता ने स्वयं ही उसे अपने लिए चुन लिया हो ।'(नील कमल, कविता की रचना प्रक्रिया.)
कविता की रचना प्रक्रिया पर नीलकमल का अद्भुत आलेख पढने के बाद हाल ही में लिखी इस कविता को प्रकाशित करना जरूरी हो गया. 

कविता की रचना प्रक्रिया पर मैंने कई कवितायें लिखी हैं 
और उस खास बात को पकड़ लेने की कोशिश की है.'निज में बसने कस लेने' की कोशिश की है और भी हैं लेकिन यह दो सप्ताह पहले की रचना है. लीजिये, कविता की रचना प्रक्रिया के कठघरे में मै भी हाजिर हूँ .

कविता 

मै नहीं लिखता ...                              अनुपम
                                               ( १२-०९-२०१, मुंबई )

नहीं भाई नहीं, मैं कवितायें नहीं लिखता 
(पटकथाएं नहीं लिखता)
मेरी खुशियाँ तो कहीं गाँव घर में रह गईं 
मेरा आनंद बनारस की गलियों में खो गया.

नहीं, भाई नहीं,
मै नहीं लिखता...

कवितायें मुझे लिखती हैं 
मेरे एकांत में खलल डालती हैं 
कहानियाँ मुझे चुनती हैं,
 चरित्र मुझे आकर मांगते हैं .


मै गया था रवीन्द्र नाथ टैगोर के पास
लिओ तोलस्तोय के पास 
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के पास ;
गंगा जमुना की रेती छानता रहा वर्षों 
काव नदी की छिछली 
गोमती की गहरी लहरों को पढता रहा 
किनारा बन पीता रहा नदियों को
सदियों को 

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय 
और 
गजानन माधव मुक्तिबोध 
का संग छोड़ 

मै धूमिल के साथ एक पेड़ के नीचे बैठ गया.
धूमिल
कहीं से एक कील खोजकर लाया 
एक झंवाये टुकड़े से 
वह अपनी टूटी हुई चप्पल गांठने लगा,
मुझे मोचीराम दिखा 
उसके साथ मै रैदास के जूतालय में चिलम फूँक आया 
सभी हकीम लुक्मानो से मिल आया,
और अंत में कबीर से पता चला -
इसकी कोई दवा नहीं,
जब इन्होने ही तुम्हे चुना है

अभिशाप हो या वरदान

मै नहीं लिखता 
इनका चाकर हूँ मै
नहीं दीखता चक्कर मेरे पांवों में 
मेरे भावों में 
विचारों के जाल में नहीं टिकती नन्ही मछलियाँ 
जो मुझे पसंद हैं...

नहीं भाई नहीं 
मै नहीं ...
(सिर्फ वही) . 



गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

'भोर' की कहानी सचमुच सपने में ही देखी थी.

निर्देशक  की डायरी १२
मेरे ड्रीम प्रोजेक्ट 'भोर' द अर्ली  मॉर्निंग के लिए लक्ष्मी माता के दरवाजे खुले...
'भोर' की  कहानी सचमुच सपने में ही देखी  थी.
सपना-- 'मै पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की एक कहानी पढ़ रहा हूँ, एक जोतिहर किसान की कहानी जिसके प्रेम और प्रयासों ने एक गाँव को बदल दिया. यह किसी पत्रिका में प्रकाशित है.' जागने के बाद मेरी नजर मेरे बिस्तर पर बैठे के मित्र पर पड़ी. शायद मै ज्यादा देर सो गया था. वह चिंतित सा बगल में बैठा था. यह वह समय था जब फिल्म पर अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था और कहानी ढूंढ़ रहा था. मैंने दोस्त से पूछा - क्या हरिप्रसाद चौरसिया कहानी लिखते हैं?
क्या बक रहे हो, वे बांसुरी बजाते हैं - दोस्त ने कहा. वह मेरे देर तक सोने से चिढ़ा हुआ था.
तो ठीक है, ये कहानी मेरी है - मैंने कहा. 
कौन सी कहानी?
'वही जो मैंने सपने में पढ़ी. '
आँख खोले बिना मैंने उसको पूरी कहानी सुनाई और उसे हमने कागज़ पर लिख लिया. आठ महीने तक हम दोनों बिहार और यू पी के गांवों में  घूमकर सभी तरह की लोक कथाओं और गीतों को संकलित करते रहे और कई वर्ष के प्रयास से यह स्क्रिप्ट तैयार हुई. बीच में एक दुर्घटना भी हुई - गीतों, कहानियों के टेप और डायरियां, फाइलें लेकर हम अपनी पहली बम्बई यात्रा पर चले तो किसी चोर महाशय ने मोटा माल समझकर अटैची उड़ा ली. हम वापस हो गए. लेकिन हारे नहीं. सिर्फ दो महीने में हमने फिर से लगभग सबकुछ वापस जुटा लिया क्योंकि अब हम स्थानों को जानते थे.
मैंने एक  बार पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी को फोन किया और कहा की सपने में पढ़ी उनकी कहानी पर फिल्म बना रहा हूँ. काफी मनोरंजक बातचीत हुई. मैंने कहानी के लिए उन्हें मेहनताना भी देने की पेशकश की. जाहिर है संगीत में उनका योगदान रहेगा.
कदम बढाने से रास्ते खुलते हैं, सुना था, आज देखा. कई बार हम दरवाजे को कई साल तक एक ही तरीके से खोलते रहते हैं और वह नहीं खुलता. तरीका बदलते ही बात बन जाती है. पिछले ११ साल के बम्बई प्रवास में मैंने ४ स्क्रिप्ट तैयार किया. एकदम परफेक्ट तरीके से और प्रोड्यूसर खोजता रहा. कल दोपहर में पहली बार फिनान्सर के लिए आवाज लगाईं और आज दोपहर तक मेरे पास फिनांस आ गया.  इसमें मेरे लिए कोई चमत्कार नहीं है, यह मेरी यात्रा के इस पड़ाव का सीधा रिजल्ट है. 
 इस साल के अंत तक किसान जीवन के इस महाकाव्यात्मक फिल्म को मै फ्लोर पर ला दूंगा. इसे मै हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ बनाऊंगा. हिंदी, इंग्लिश और भोजपुरी तीन भाषाओं में एक ही थीम पर इस फिल्म को लिखा गया है. गहन रिसर्च और न जाने कितने मित्रों और आम लोगों का कंट्रीब्यूशन है.  कबीर और मुल्ला दाउद की सरजमीं  को सिल्वर स्क्रीन पर उजागर कर देना ही इस फिल्म का उद्देश्य है. मेरे खयाल से इस तरह के काम को अंजाम देने के लिए १० साल की मेहनत को कुछ ज्यादा नहीं कहा जायेगा? यह इसलिए कह रहा हूँ कि लिखने को कुछ लोग आसान  काम समझते हैं, अगर ऐसा ही होता तो हर जेनरेशन  में दस बीस पंडित मुखराम शर्मा और सचिन भौमिक होते या कालिदास और निराला. लक्ष्मी के बेटे अपनी चवन्नी अठन्नी निकालने में भी उसकी पूरी कीमत वसूलना चाहते हैं जबकि हम सरस्वती के बेटे वर्षों की मेहनत से हासिल अमूल्य ज्ञान को भी लगभग मुफ्त में दे देते हैं. 
न दे तो अभिशप्त  ब्रह्मराक्षस बन जायेंगे.
 ज्ञान दान महादान! जय हो माई सरस्वती!  

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