शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

मित्र-प्रसंग ; ओ दिलदारा आ जा रे ...


निर्देशक की डायरी ७ 
मित्र-प्रसंग ; ओ दिलदारा आ जा रे ...
'मुस्कुराने कि बात करते हो दिल जलाने कि बात करते हो 
दोस्तों से वफ़ा कि उम्मीदें किस ज़माने कि बात करते हो.'

मेरे किसी दोस्त ने मुझे ये सन्देश भेजा था -" पिछले बीस साल मै तुम्हे घमंडी समझता रहा और तुमसे जलता रहा हूँ. आज मै कहना चाहता हूँ की तुम जरा भी घमंडी नहीं हो. तुम्हारी प्रतिभा का स्पार्क इतना अधिक है की लोग जल-भुन जाते हैं. "
 हँसी आ रही है और याद आ रहे हैं मिया ग़ालिब - 'हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमा क्यों हो ?' 
 वाह रे मेरे प्यारे दोस्त ! गर्व है मुझे तुम्हारी ईमानदार अभिव्यक्ति पर. लेकिन जिस इंसान को प्रतिभाशाली या घमंडी मानकर तुम जलते रहे वह तो लगभग मूढ़मति है . कम से कम लोक व्यवहार में तो मूर्ख ही है वरना बीस साल तक उसे पता नहीं चलता कि तुम ही उसकी जड़ में मट्ठा डाल रहे हो. 
मेरे मित्र ने सविस्तार स्वीकार किया कि साहित्य से लेकर सिनेमा तक हर जगह मेरे बारे में दुष्प्रचार करना उसका प्रिय कार्य था. दर्जनों लघुपत्रिकाओं से मेरी रचनाएँ निकलवाने के लिए उसने कोई कवायद छोड़ी नहीं और हमेशा सफल रहा क्योंकि मैं कही जाता नहीं था. प्रकाशक हों या प्रोडक्शन हाउसेज हर जगह मेरे मित्र ने मेरी कन्नी काटी अगैरह वगैरह . यह कन्फेशन इसलिए संभव हुआ क्योंकि मेरी तरफ से ऐसा कोई जवाब नहीं मिला. मेरे भाई! मै अपने स्वभाव में हूँ तो मैंने जो मेरे लिए स्वाभाविक है किया. मैंने प्यार किया और फुर्सत ही नहीं मिली कुछ और करने की. इसी को प्रतिभा कहा जाता है क्या?
मुझे ख़ुशी है कि जीते जी तुमने समझ लिया. बीस साल अगर तुमने अपनी प्रतिभा को निखारने में लगाया होता तो कुछ और बार होती. क्योंकि ध्यान से देखो तो तुम्हारा हर एक्शन मेरे हक में गया है. बीस साल तक तुम रोज मेरे बारे में सोचते रहे. तुम्हारे ख्याल से तुम मेरा नुकसान करते रहे लेकिन नकारात्मक ही सही तुम अपनी उर्जा मुझमे इन्वेस्ट करते रहे और अधिकतर वह मेरे पास आकर सकारात्मक उर्जा में ही बदल गई. अवरोधों ने मुझे श्रमिक बना दिया वरना मै भी अय्याश हो गया होता. तुम्हारी कृपा से आज बहुत दूर दराज के शहरों में मेरे दोस्त बने क्योंकि सभी तुम्हारी बातों में नहीं आये और उन्होंने खुद मुझसे संपर्क कर मुझे जानने कि कोशिश की और मित्र बन गए. तो सीधी बात ये है कि तुम मेरे दोस्त हो और अनजाने भी तुमसे मेरा नुक्सान नहीं हो सकता, ये मेरा हमेशा से मानना रहा है और आज भी है. ये मै हूँ . अगर इसको घमंड कहते है तो ये मेरा होने का घमंड है.
मेरा मित्र बहुत रसूख वाला है और अब मेरी मदद करना चाहता है . अच्छी बात है. तब भी स्वागत था अब भी है. आखिर तुम मेरे मित्र हो वरना कोई इस तरह दिल खोलकर थोड़े न रख देता है. आओ मेरे यार ! फिर से रात रात भर कवितायेँ पढेंगे, चर्चाएँ करेंगे, सपने देखेंगे और उन्हें हकीक़त में बदलेंगे. 
जब जागो तभी विहान !