मंगलवार, 1 नवंबर 2011

निर्देशक की डायरी १६


निर्देशक की डायरी १६  

सुविचारित आर्ट सबको अच्छा लगता है
अनुपम 

जब से फिल्म इंडस्ट्री में आया हूँ, घुमा फिरा के मुझे एक ही सलाह मिलती है - किसी स्टार को कास्ट कर लीजिये, फिल्म बिक जाएगी, फिनांस आ जायेगा, मै ही प्रोड्यूस कर दूंगा.
अजी साहेबान! मै यहाँ लिख कर स्पष्ट बता रहा हूँ - मुझे नहीं चाहिए सितारों की बैशाखी. मै डाइरेक्टर्स सिनेमा का हिमायती हूँ. मेरी फिल्म मेरे नाम और काम के  बल पर बिकेगी और दिखेगी.मेरा इतिहास उठा कर देख लीजिये. मै 'जिसकी पूंछ उठाओ वही मादा निकलता है' ( धूमिल ) और अपने आप को प्रोड्यूसर कहता है, डाइरेक्टर कहता है. अगर आप  एक इनबोर्न लीडर नहीं हैं तो आप डाइरेक्टर नहीं हैं. अगर आपके पास एक कवि का ह्रदय और एक कहानीकार का मस्तिष्क नहीं हैं तो आप चाहे जो हों, डाइरेक्टर नहीं हैं. 
अगर आप डाइरेक्टर हैं तो अपने बल पर फिल्म बना कर, चला कर दिखाइये. छोडिये सितारों की बैशाखी. इनका आजकल; कोई ईमान धरम नहीं है. आपमें दम है तो  हर प्रोजेक्ट से सितारे पैदा करिए. 
अब समय आ गया है की गड़े मुर्दे उखाड़े जाने चाहिए. डाइरेक्टर शब्द को गरिमा दिलाने वाले पचास के दशक से शुरू होकर ८५ में लुप्त हो गए 'न्यू वेला सिनेमा' को फिर से जगाना चाहिए.  इस महा बोरिंग हिंदी सिनेमा में एक अर्थपूर्ण, कलापूर्ण, बेहतरीन सिनेमा की कमजोर सी धारा हमेशा से बहती रही है. उसे मुख्यधारा बनाने का समय आ गया है. 
देखिये साहब, सिनेमा सिर्फ सौ साल का हुआ और आपका देश पचास एक साल का. अब शिक्षित लोगों की संख्या ज्यादा है.
 'न्यू वेला सिनेमा' के लिए फ़्रांस, इटली, जर्मनी और रूस समेत समूचे यूरोप और जापान और अमेरिका के लिए ५० का दशक सही था. नवीनता के लिए वह समाज तैयार था. हीरोगीरी से ऊब गया था. उसे नया चाहिए था हर जगह. 
अब हमें नया चाहिए. इस नए समय को साहस के साथ अपनी मुट्ठी में कस सकने वाले ओक्टोपसों  की जरूरत है. एक निर्देशक समय को अपनी मुट्ठी में कैद कर लेता है और धीरे धीरे उसे मुक्त करता है ताकि उसका अर्थ सामान्य जन के मन की गति से मिल जाये.फिल्मकार ऑक्टोपस होता है न क़ि शिकार हो जाने वाली मछली? वह मगरमच्छ तो बिलकुल ही नहीं होता. उसे अगर टाइम एंड स्पेस पर अपनी पकड़ साबित करने के लिए स्टार का सहारा लेना पड़े तो वह नकलची है. 
ऐसे मच्छ वितरकों पर सारा दोष मढ़ हैं क्योंकि वितरक सबसे अंतिम कड़ी है और आमतौर से वह जवाब देने के लिए सामने नहीं होता. कोई सच्चे शेर के आड़े नहीं आता सिर्फ इन भेड़ बकरियों के.
 एक दमदार निर्देशक को एक कवि, वैज्ञानिक या समाजसेवी के दंभ और कर्तब्यों का निर्वाह करना चाहिए. उसे अपने खयाल का सम्मान करना चाहिए. सुविचारित आर्ट सबको अच्छा लगता है. और अच्छे क़ि समझ वितरकों, फिनान्सरों, प्रोड्यूसरों, सितारों सब को होती है .