सोमवार, 17 दिसंबर 2012

थैंक यू सुपर स्टार आमिर खान !



स्टार?

"मुझे लगता है कि स्टार में एक स्टाईल होनी चाहिए जो मेरे पास नहीं है। स्टार तो सलमान, शाहरुख़ और संजय दत्त हैं। उनके आते ही लगता है कि स्टार आया! मुझे भी लगता है।" अद्भुत प्यारी हंसी के साथ कहा आमिर खान ने और आगे जोड़ा - 'मैं तो छुपते- छुपाते आता हूँ .' और जोरदार ठहाका लगाया।
आमिर खुद को अलग हटकर देख सकते हैं। आमिर कवियों की तरह संवेदनशील है, किसी पत्रकार की तरह तेज और प्रतिबद्ध हैं। एक आम भारतीय लड़के की तरह अपने देश और घर से उनका जुड़ाव उन्हें सहज ही आम और खास सबके बीच सर्वाधिक प्रतिष्ठित सितारा बना देता है।
आमिर खान ने एक संस्मरण सुनाया - " फरहान अख्तर 2 साल बाद जब 'दिल चाह्ता है' की स्क्रिप्ट सुनाने आये तो वह काफी बदल चुकी थी।मैंने उनसे पहली स्क्रिप्ट मंगवाई। उसको सुना। फरहान भी मेरे साथ ही आश्चर्य चकित थे कि दूसरे ड्राफ्ट में इतना चेंज कैसे आ गया ? दरअसल थोड़ा  थोड़ा  कर के उन्होंने बदल होगा, रोज एक एक चीज बदलती गई और .... तो ऐसा भी होता है। "
आपकी अदालत में रजत शर्मा और आमिर खान की बातचीत मेरे लिए एक यादगार अनुभव है। आमिर के अनुभव से बहुत सी बातें मैंने सीखीं और खास बात ये सीखी कि स्क्रिप्ट की पहली स्टोरी लाइन को ही मुख्य मानाना चाहिए। मैंने अपनी एक स्क्रिप्ट के कई ड्राफ्ट पढ़कर इसको सच पाया। अगर बदलने लगे तो कहानी बदल जाएगी। फिर अच्छी या बुरी वह दूसरी कहानी होगी।

है न सीखने वाली बात एक सर्वाधिक सक्षम फिल्म कलाकार से!

 थैंक यू आमिर खान !

डॉ। अनुपम

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

नया सिनेमा और ....नया क्या है ? का सवाल



1968 में एक विचारधारा को लेकर बीस, पचास बौद्धिक उठ खड़े होते हैं और एक नई  धारा फूट पड़ती है और कुछ ही समय बाद एक अकेला आदमी रास्ता बनाता आगे बढ़ता दीखता है। कहाँ गए सब ? और यह अकेला महारथी श्याम बेनेगल है।
 एक फिल्म के कला फिल्मकार आते हैं, एक या दो फिल्म बना कर परम कन्फ्यूज होते जाते हैं। कुछ सफल कुछ अर्ध विफल और कुछ असफल होते हैं। जनवादी विचारधारा को आधार में रख कर 1940 में शुरू हुआ इटली का न्यू वेला सिनेमा हिंदी में 1968 में गमले में उगाया जाता है। इसकी कलम मृणाल सेन लेकर आये क्योंकि कला सिनेमा बंगाल में 1952 से ही फल फुल रहा था।
 अब तो नया सिनेमा की बात करना ओल्ड फैशंड हो गया है।
आज के कई फ़िल्मकार उत्तर कला सिनेमा की कड़ियाँ हैं। जब इनका मजबूत समय आया तो ये सितारों की तरफ देखने लगे और स्क्रिप्ट इनकी पहली पसंद नहीं रह गई।
ये चाहें तो नया सिनेमा के लिए एक शक्तिशाली आधार बना सकते हैं। अपनी मूलभूत सोच की धारा को, जो की इनकी आरंभिक फिल्मों में दिखाई देती है, ये बहुत प्रभावशाली बना सकते हैं।
सेंसर्ड होने के बाद हर फिल्म कमर्शियल होती है। गोविन्द निहलानी
सिनेमा व्यवसाय है लेकिन सिर्फ व्यवसाय नहीं - दयाल निहलानी
आज के सिनेमा को देख कर मै  25 साल का युवा होना चाहूँगा, आज हर तरह की फिल्मों का माहौल है। श्याम बेनेगल
फ़ोकट में सिनेमा देखनेवालों के लिए मै फिल्म नहीं बनाऊंगा। प्रकाश झा

इन सभी फिल्मकारों के विचारों को  एक सूत्र में बांध कर इस पर दादा साहेब फालके की एक टिपण्णी रखता हूँ - "सिनेमा मनोरंजन तो करता ही है, साथ साथ ज्ञान वर्धन भी कर सकता है।"
इस विचार के आईने में एक बार विचारवान फिल्म कर्मियों को एकजुट होना चाहिए।
आमीन -
डॉ। अनुपम