सोमवार, 16 अगस्त 2010

झोपड़पट्टियाँ...एक पटकविता

 

   एक्ट वन , एक्सटेरियर, मॉर्निंग, झोपड़पट्टियाँ.....

सुबह -सुबह शराब पीकर एक औरत दुनिया की बादशाहत  कर रही है
 सूरज की आंच में ये बस्ती चिता की तरह दहक रही है
इस आग में आग है , पानी है, मछलियाँ हैं
 मुर्ग- मुस्सलम है
 मटन है, कबाब है, शबाब है
 नमस्ते है, प्रणाम है, वणक्कम है, आदाब है
 यहाँ भी जिंदाबाद है
 जिन्दगी आबाद है
जिन्दगी की सभी आजादियाँ यहाँ सस्ते में मिलती हैं.

 आसपास की अट्टालिकाएँ सुबह की धूप में बच्चों की तरह खेल रही हैं
 और यहाँ जिन्दगी सबसे बड़ा हादसा झेल रही है --
फिर से सुबह हो गई है और एक और दिन सूरज के नीचे बिताना है ......

एक्ट टू, एक्सटेरियर,मिड डे, झोपड़पट्टियाँ...

तपते फुटपाथ पर जो लेटे है ; वे  भी भारत के बेटे हैं
 माँ बैठी है बगल में पानी लेकर
गोदने की बिंदिया बता रही है की वह किसी आदिवासी गाँव से उखाड़कर आ गिरी है इस झोपड़पट्टी में ...
यहाँ भी उसे अभी तिरपाल भर जगह नहीं मिली है
आठ नौ महीने का स्वस्थ गदराया आदिवासी बच्चा बेसुध सोया है
नाले के ऊपर के फुटपाथ  पर माँ के पास
 ईंटों के चूल्हे पर खाना भी बन रहा है
 एक बालक बची आंच पर मूंगफलियाँ भून  रहा है

 औरतें नहा रही हैं सूरज के तेजाबी किरणों के शॉवर में
 कुर्ती- पेटीकोट के बाहर समूचा जिस्म सांवला हो गया है ...
ऐसा लग रहा है कि पैदाइश से ही ये एक लम्बी चिता में जलाये जा रहे हैं
 एक जवान होती हुई लड़की आईने में अपना रूप संवार रही है
 आईना जैसे सूरज हो गया है
 अपने सहने की ताक़त से ,जलने की जुर्रत से उस लड़की की चमड़ी आईने को मरहम दे रही है
 जिसे सूरज अपनी चौंध से फोड़ डालना चाहता है
 अगल -बगल उसके दो किशोर साथी बैठे हैं
 लड़की ने पसीने और धूल से झोल बने बालों को पुरानी रूमाल से कस लिया है
 ये लो वह तैयार हो गई और तीनों  फुटपाथ पर बैठी माँ से उसका हाल  पूछने आये हैं

 मैं भी वहीँ खड़ा हूँ
 यह देश आजाद नहीं हुआ है इस बात पर अड़ा हूँ .......


एक्ट थ्री , एक्सटेरियर, इविनिंग, झोपड़पट्टियाँ.....

आपने कभी यहाँ शाम को उतरते देखा है ?
जब दिन भर की धूप और धूल धोकर बालों में फूल सजाये जाते हैं
 तवे पर तवे भर की रोटियाँ बनती हैं
बोटियाँ छनती हैं
बोतलें खुलतीं हैं
 बच्चे खेलते हैं
 गजरे वाले बालों के चेहरे की चमड़ी में दमड़ी भर का पाउडर मला जाता है
कालिख को सफेदी से छला जाता है

एक दूसरा बाजार सजता है
 हर तार बजता है
मैं उस बाजार में एक आवारा दर्शक की तरह घुसता हूँ 
अनजान पते पूछता हूँ ...
नशे में धुत्त एक बूढ़े को नौजवानों ने धुन दिया है
आतंक ने यहाँ भी अपना जाला बुन दिया है
 पिंजरे में गाती रंगीन चिड़िया और चौखट पर बैठी बुढ़िया को कोई डर नहीं है...
ईश्वर आसमान में क्यों टंगा है ?
 उस बेचारे के पास भी तो घर नहीं है !

ऐसा घर जहाँ वह खुश रह सके

जहाँ कोई किसी को नुकसान न पहुंचाए
 जिन्दगी की धज्जियाँ न उड़ाये........

vichar

जीवन ऐसे जियो जैसे अभिनय , अभिनय ऐसे करो जैसे जीवन .जे. कृष्णमूर्ती