रविवार, 8 जुलाई 2012

MAINE LAAKHON KE BOL SAHE (DADRA): 1.


वर्तमान समय और आलोचना 

साहित्य हो या सिनेमा इस वक़्त किसी की आलोचना करना ठीक नहीं माना जा रहा है. वस्तुतः इस वक़्त हर कला और हर कलाकार बाजार में खड़ा है. आपकी वस्तुगत आलोचना उसका बाजार बिगाड़ सकती है.  इसका असर साहित्य और सिनेमा के हक़ में नहीं है. आलोचना रचनाकार को और बेहतर लिखने या रचने के लिए प्रेरित करती है. लेकिन आलोचना को लेखक और निर्देशक बहुत व्यक्तिगत स्तर पर ले रहे हैं. प्रतिउत्तर देने की जगह प्रतिक्रिया कर रहे हैं. ऐसे में दुष्यंत कुमार का यह शेर सामयिक हो जाता है -
मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है. 
 इस लिए सिर्फ शुभ शुभ बोलें. 
हालाँकि आलोचना का उद्देश्य रचना को और सुन्दर, सार्थक बनाना ही होता है. 
सबका शुभ हो. 
अनुपम 

शुक्रवार, 6 जुलाई 2012

कला का वर्तमान समय और काशी का अस्सी 

गैंग्स ऑफ़ वासेपुर देखने और उसकी भाषा ( फिल्म भाषा नहीं, संवादों की भाषा क्योंकि फिल्म भाषा पर हमारे फ़िल्मकार सोच लेते हों तो वही काफी है, पत्रकार और प्रतिक्रियाकार तो बिलकुल नहीं सोचते .) की भारी आलोचना सुनने के बाद मैंने फिर से काशी का अस्सी पढ़ा. एक पाठकीय नजरिये से देखने पर  इस उपन्यास में वर्तमान समय को जिस मजबूती से पकड़ा गया है, वह आश्चर्यजनक है. मैं अभिभूत हो गया. यह अपने समय का एक अनूठा दस्तावेज है. 
 मैंने अपने आठ वर्ष  डॉ. काशीनाथ सिंह के सानिध्य में बिताये हैं. आलोचना और सीधे सच बोलना भी इनसे सीखा है. डॉ. काशीनाथ सिंह एक साइलेंट लेखक हैं और बेहद -बेहद अच्छे गुरु.
चाणक्य सीरियल और पिंजर फिल्म से अपनी गुरुता को जगत विख्यात कर चुके डॉ. चन्द्र प्रकाश द्विवेदी की इसी उपन्यास पर आधारित फिल्म मोहल्ला अस्सी  का इन्तजार है. चंद्रप्रकाश द्विवेदी एक जीनियस डाइरेक्टर और साथ ही अपनी फिल्मों को लेट करने के लिए भी जगत विख्यात हैं.
 ये फिल्म कब आएगी भाई ? कोई तो बताये...?

अनुपम 
6-07-2012

गुरुवार, 5 जुलाई 2012


विकास के नाम पर 


भवनों के बीच
 उग आते पहाड़ों ने 
कविताओं का नुकसान किया है. 

मेरी खिडकियों के बाहर की हरी जमीन
मेरा चित्रपट
जहाँ देखी सफ़ेद बगुलों की पाँत, मेला, बारात ;
जबसे वह  खुला उद्यान 
भवन के नाम कुर्बान होना शुरू हुआ है 
मेरी कविताओं का 
बड़ा नुकसान हुआ है. 

सच तो ये है कि आज कल साहित्य के नाम पर
ब्लोग्ग पर, वाल पर 
कूड़ा लिख रहा हूँ. 

पुरानी कविताओं में अर्थ ढूंढ़ रहा हूँ.

 मेरी खिड़की के बाहर 
एक चौदह मंजिली इमारत उग आई है,
जिसने छीन लिया है 
हमारा खिड़की भर आसमान

और बिना आसमान के 
कहाँ लिखूं  मैं कवितायेँ ?

अनुपम 




रविवार, 1 जुलाई 2012

पत्थर - १

                                                     

अफ़सोस नहीं कि हीरे की तलाश में मैंने राह चलते पत्थरों को उठाया 
अपनाया 
घर ले आया 
सँजोया
उन्हें पाया
 खोया 
अफोसोस नहीं कि हर पत्थर में मुझे हीरे की सम्भावना दिखी.
ह्रदय की निसैनी पर 
नज़र की छैनी से
 तराश देने की कोशिश की - 
कुछ तो निखर गए 
कुछ बिखर गए
कुछ टूट गए 
कुछ रूठ गए 

कुछ बहुत पीछे छूट गए .

मैंने अनुभव से जाना कि हर पत्थर में एक हीरा है,
जिन्हें उन आँखों कि तलाश होती है 
जो उनके हीरेपन को बूझ ले.

कविता सी ये पंक्तियाँ 
महाकवि के काव्य को समर्पित -
"मुझे भ्रम होता है कि हर पत्थर में एक हीरा है
हर छाती में विमल सदानीरा है."

( मुझे कदम कदम पर, मुक्तिबोध)  


   अनुपम 

( २९-०६ - २००८ , नाय गाँव, )