शनिवार, 7 अगस्त 2010

हंस का योगदान

हंस का योगदान अभी समाप्त नहीं हो गया है, इसकी लौ मुंशी प्रेमचंद  ने जलाई थी . इसकी ज्योति हमेशा जलती रहेगी . राजेन्द्र यादव के नेतृत्व हंस ने  अपनी  यात्रा के  २५. साल पूरे किये लेकिन हंस की उम्र का आकलन प्रेमचंद जी से शुरू करके ही किया जाना चाहिए. हंस का प्रकाशन १९३० ई० में बनारस से हुआ .मुंशी प्रेमचंद के संपादकत्व में हंस पत्रिका हिंदी की प्रगति में अत्यंत सहायक सिध्द हुई और कथा साहित्य ,अनुसन्धान ,प्रयोग और विचार का एक बृहद मंच बन गई . मुंशी प्रेमचंद  के बाद जैनेन्द्र और शिवरानी    देवी, शिवदान सिंह चौहान, श्रीपत राय, अमृत राय, नरोत्तम नागर ने संपादन का नेतृत्व संभाला और ज्ञान की मशाल को आगे  बढाया.बालकृष्ण राव और अमृत राय के द्वारा १९६९ में इसका एक वृहद् संकलन रूप सामने आया जिसमें आधुनिक साहित्य और नवीन मूल्यों पर विचार किया गया.
 काफी लम्बे अंतराल के बाद वर्तमान संपादक ने इसकी लौ को पुनर्जागृत किया .
इस अथक श्रमदान के लिए बधाई!
.2.
हंस में राजेन्द्र यादव की एक कविता छ्पी थी- प्रेमिकायें पादतीं नहीं....
 कई साल तक इस महान कविता ने मुझे आन्दोलित रक्खा. हाल-फ़िलहाल मुझे बात समझ आई और मुझे राजेन्द्र जी को बता देना उचित लगा- आदरणीय! ज्यादा देर साथ रहने पर प्रेमिकायें भी कभी-कभी पाद देती हैं. इसका बुरा नहीं मानना चाहिये. वे भी आपकी हमारी तरह ही इनसान हैं. उन्हें माफ़ कर दीजिए और मस्त रहिए. कभी- कभी ऎसा हो जाता है. ध्यान नहीं देना चाहिये. पाद दबाने से कई प्रकार के रोग हो जाते हैं. गुदा, योनि और उदर के सारे रोग औरतों को इसीलिये होते हैं क्योंकि हजारों साल से हमने उन्हें जीने नहीं दिया है. खुलकर हंसना और खुला पादना जीवन की उन्मुक्त अभिव्यक्तियां हैं. इन्हें सहज मानिये. सबको पादने दीजिए. आमीन!

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