बुधवार, 13 अगस्त 2014

निर्देशक की डायरी - वर्त्तमान सिनेमा


 वर्त्तमान सिनेमा
डॉ. अनुपम ओझा 
(कविता मेरा सम है।  सबके बाद कविता , सबसे पहले कविता।  सिनेमा मेरे लिए कविता का ही एक आयाम है। )
हिंदी का वर्त्तमान सिनेमा बहुत भीतर भीतर चल रहा है. बहुत गुपचुप गुपचुप तीसमार खां बन जाती है. रा-वन बन जाता है. रॉक स्टार भी निकल आती है.  डर्टी पिक्चर्स, पान सिंह तोमर, कहानी जैसी फिल्मो को देखकर साफ दिख रहा है की हिंदी का वर्तमान सिनेमा शिल्प में जहाँ सशक्त हुआ है, वही कथ्य में अपने समय की सचाइयों से आँखें चुरा रहा है. दूसरी तरफ पुरानी फिल्मो के री मेक और सिक्वल ये जाहिर कर रहे हैं की हिंदी का मेन स्ट्रीम सिनेमा पीछे की तरफ चल पड़ा है. फिल्म इंडस्ट्री की गाड़ी बैक गेयर में है. इस वक्त के सितारे अपने बल पर एक नयी कहानी को नहीं खीच सकते तो ये पिछले बड़ी हिट फिल्मो में शरण ले रहे हैं. 
जबकि फिल्म मेकिंग या किसी भी आर्ट में हमारे देश में जितनी स्वतंत्रता है उसका दो प्रतिशत भी आज के फिल्म कार इश्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं. हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का यह डाइरेक्टर युग होना चाहिए था लेकिन ये ठेकेदार युग हो गया है. ऐसे में लेखक से गंभीर पहल की उम्मीद की जानी चाहिए. इसे हिंदी के लेखक निर्देशक युग में बदलना चाहिए. अपनी स्क्रिप्टें सस्ते दामों में नीलम करने की जगह बनाने के बारे में सोचिये.  चिन्तक, पत्रकार, लेखक को फिल्म विधा में अपने आप को स्व प्रशिक्षित करना चाहिए. दादा साहेब फालके ने कहा था की 'पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें' और आज भी उनका अभाव है. 
आजादी के पहले भी हिंदी सिनेमा इतना अधिक आत्मकेंद्रित नहीं था. अंग्रेजी हुकूमत के नेजे तले आजादी के पहले के फ़िल्मकार अपने समय की सचाइयों का सामना करते दीखते हैं. भारत विजय और भक्त बिदुर जैसी फ़िल्में इसका जीता जागता उदाहरण हैं. 
फिर भी हमारे समय की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक परिदृश्य को जब आज के बुद्धिजीवी ठीक से विश्लेषित नहीं कर पा रहे हैं; ऐसे में कम बुद्धि फिल्म व्यवसायियों से ज्यादा उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. 
पढ़े लिखे लोगों को फिल्म व्यवसाय में कदम रखना चाहिए. 
आज तकनीकी रूप से सिनेमा बनाना आसान हो गया है लेकिन रचनातमक रूप में काफी जटिल हो गया है।  सिनेमा की पीठ पर सौ साल का विश्व सिनेमा का इतिहास है।  सिनेमा से पहले की सभी कलाओं के पास हजारो साल का इतिहास है लेकिन वह उतना जटिल नहीं है जितना सिनेमा का।  कलाओं का इतिहास एक भौगोलिक, सांस्कृतिक, राष्ट्र और समाज कृत सीमा से निबद्ध रहा है।  जबकि विश्व सिनेमा का इतिहास एक दूसरे से सम्बद्ध है।  

क्या सिनेमा अपने समापन की ओर है जैसा कि इतिहासविद ई. एच. कार का कहना है ?