बुधवार, 25 जनवरी 2012

हिंदी तू भारत के माथे की बिंदी ..


कवि निर्देशक की डायरी २२ 
हिंदी तू भारत के माथे की बिंदी ..

डॉ अनुपम 

इण्डिया टुडे के किसी अंक में पढ़ा था, तमिल के एक लेखक कह रहे थे - " काश हिंदी के लेखक थोड़े व्यवसायिक होते ? इतनी बड़ी भाषा, काश ये पाठकों की खेती करना सीख लेते, अपनी लेखनी के बल पर जीना इनका हक है, समझ लेते.  चाहे आप जितनी अच्छी कविताई कर लो, अगर आप एक्टिविस्ट नहीं हैं तो दक्षिण भारत की किसी भी भाषा में आप को कवि/लेखक नहीं स्वीकार किया जाएगा न तो साहित्य में न समाज में. लेकिन हिंदी में इस से उलट है "
 ये तो किसी आलोचक की सराहना मिलते ही अपने क्षेत्र में राजनेताओं की तरह एक्ट करने लगते हैं. ये कबीर की जमीन पर कैक्टस तो नहीं? कबीर तो भोजपुरी भाषा के सहारे पूरी दुनिया में पहुँच गए!
.गुजरती,मराठी, तमिल, तेलुगु, मलयालम का लेखक व्यवसयिक है. उसके पास पाठक हैं. हिंदी में लेखक पाठक की उपेक्षा करता है. हिंदी का अग्रिम पाठक बहुत प्रायोजित किस्म का है. लिखो कुछ जियो कुछ, पहले दिल्ली से सेंसर सर्टिफिकेट ले लो की हड़बड़ी ने इतनी बड़ी भाषा को वीरान कर दिया है. हिंदी के ज्यादातर कवि एक्टिविस्ट नहीं हैं. ये बहुत सोफिस्टीकेटेड हैं या बहुत दरिद्र. लेखन दोनों ही स्थितियों में इनकी आजीविका नहीं है. एक का करियर है तो दुसरे का स्वाभिमान. पहले को पाठक की जरूरत नहीं, उसे प्रकाशन की जरूरत है और दूसरा प्रकाशित होकर ही प्रफ्फुल्लित हो जाता है. 
हिंदी के लेखकों को एकजुट होना चाहिये और प्रकाशन, वितरण, अनुसन्धान और विविध विषयों में पुस्तकों के बाजार में व्यावसायिक पैठ बनाना चाहिए. उन्हें एक्टिविस्ट होना चाहिए, अपनी कविता की जिंदगानी के लिए और अपने हक के लिए

कोई टिप्पणी नहीं: