शुक्रवार, 13 मार्च 2020

झरने का कैलेण्डर उर्फ यायावर प्रेम



कहानी
झरने का कैलेण्डर उर्फ यायावर प्रेम 
                                                                                                        
--- डॉ. अनुपम ओझा
                                                              
(मार्च २०२०, अहा जिंदगी में ये कहानी  यायावर प्रेम नाम से छपी है. कहानी अविकल रूप से नहीं छपी है. न सिर्फ इसका नाम बदला गया है बल्कि नोक पलक भी मार दिया गया है. इसके सबसे खूबसूरत दृश्यों को तराश दिया गया है. यहाँ इस ब्लॉग पर अविकल रूप से पढ़िए.)

खिड़की के पास नीले रंग के सोफे पर वह अधलेटी सी एकटक झरने को देख रही थी। वह झरने में डूब गई थी। झरने का पानी नीला दिख रहा था। पीछे के पेड़ इतने घने और विशाल थे कि वे भी गाढ़े नीले रंग के दिख रहे थे। आसमान में रंगीन बादल थे। हल्के आसमानी रंग के सलवार कमीज पर भूरे रंग का कार्डिगन पहने वह इस प्रकृति का सहज हिस्सा लग रही थी। सोफे के हत्थे से उसने अपने गोरे गुलाबी पैर नीचे लटका रक्खे थे। फूलों के रस में मेहँदी और चन्दन मिलाकर मैंने उसके पैरों में महावर लगाया। अगरू के धुएँ से उसके पैरों को सुखाकर तिल के तेल से मेहँदी छुड़ायी। यह सारी सेवा वह निर्विकार भाव से ग्रहण कर रही थी और झरने के स्वर में नहा रही थी। उसकी हथेलियों पर बड़े जतन से मैंने मेहँदी से पशु-पक्षियों और वनस्पतियों के लघु चित्र उकेरे थे। अपनी छोटी कोमल हथेलियाँ खिड़की पर रख कर वह मेहँदी सुखा रही थी।
इस गेस्ट हाऊस के इस कमरे में रुकना हमारा एक प्यारा-सा स्वप्न था और वह हक़ीकत बन गया था। यह एक बड़ा और सुविधाजनक सुईट था जिसमें एक छोटा-सा किचनेट भी था। चौथे माले के इस कमरे के ऊपर छत थी जिसपर खूबसूरत टेरेस-गार्डनिंग की गयी थी और खिड़की के सामने था झर-झर करता झरना जो प्रमुख आकर्षण था। इसका एक दिन का किराया हमारे महीने भर के घर खर्च के बराबर था, फिर भी हमने अपना शौक पूरा किया था।
मुझसे ज़्यादा यह उसका शौक था। मैं अपने शौक को समझा सकता था लेकिन वह तो... सवाल ही नहीं है। इस बात को कहने का कोई मतलब नहीं कि मैं उसे प्रेम करता था। हमारे बीच कुछ था लेकिन क्या, ये अभी पक्का नहीं हुआ था। यह अनिश्चित कच्चापन ही हमारा नामहीन सम्बन्ध था।
इस समय हमारे पास वह सब कुछ था जिसे ज़िंदगी कह सकते हैं। खूबसूरत नजा़रा, साथी और समय। शराब हमारे शौक में नहीं थी, तो नहीं थी। चाय थी और घूँट-घूँट प्यास थी।
एकटक खुली हुई उसकी आँखें चकित-हिरनी जैसी लग रही थीं। मन हुआ, इनमें काजल की एक लम्बी रेख खींच दूँ !
पिछले सात दिन में आज पहली बार उसे छुआ था, वह भी हाथ और पैर मेहँदी लगाने के लिए। सात दिन से खिड़की से एक ही दृश्य देखते हुए मैं बोर होने लगा था लेकिन बहुत संयम से उसे छुपाए हुए था। झरने का झरता जल दीवार पर लटके झरने के आदमकद कैलेन्डर की तरह उबाऊ हो चला था।
उसने गहरी मुस्कुराहट के साथ मुझे देखा। जैसे मेरे मन में चल रहे भावों का प्रत्युत्तर हो वह मुस्कान। उसने मेहँदी छुडा़ने के लिए अपनी हथेलियाँ मेरे सामने रख दीं।

एक अकेली पहाड़ी पर अकेला ये गेस्ट हाऊस बहुत आकर्षित करता था। लेकिन इसका किराया अब मुझे विकर्षित कर रहा था। आसपास के छोटे पहाड़ी गाँवों में एक सस्ती रिहायश की तलाश में दो दिन से मैं अकेले निकल जाता था। कल जब लौटा तो वह गेस्ट-हाउस में नहीं मिली। मेरे पीछे वह भी बाहर कहीं निकल गई थी। सूरज की आखिरी किरण तक मैंने उसका इंतजार किया। फिर खोजने निकला। तराई में इस झरने का पानी व्यास नदी में जाकर मिल जाता था। गेस्ट हाऊस के नज़दीक ब्यास नदी का किनारा हमारी प्रिय जगह थी। उसे वहाँ न पाकर मैं परेशान हुआ। कहाँ चली गई ये फियर-फ्री लड़की ? उसका फियर-फ्री होना मेरी पसंद और समस्या दोनों थी, साथ में केयर-फ्री होना तो और जटिल हालात पैदा कर देता था।

उसने बताया था कि दो दिन पहले वह यहाँ अकेले देर शाम तक बैठी थी तो कुछ लोकल लोगों ने चेताया था कि  देर शाम तक यहाँ बैठना सुरक्षित नहीं है।
'हूँ, तो?' मैंने पूछा था।
वह केयर-फ्री मुस्कुराई और जमीन पर झुककर कुछ देखने लगी। मुझे कुछ नहीं दिखा। क्षण भर में सूक्ष्म-यन्त्र से देखने लायक एक अत्यंत छोटा-सा पंख उसने उठा लिया। जड़ों की तरफ हरे और ऊपर की तरफ पीले पंख को देखकर कई पंछी याद से गुजर गए । उसने उस शगुनी पंख को अपने पर्स में डाल लिया और बोली - 'तो मैंने उन लोगों से पूछा कि आप लोग तो शरीफ हो न? तो वे हँसने लगे। अब वे सब मेरे दोस्त हो गए हैं।और यह कह कर वह खिलखिलाकर हँसी।
उसका ये मानना था कि जहाँ हम बरसों बरस रहते हैं वहाँ भी तीन घर के बाद किसी को नहीं जानते हैं; तीन घर के बाद ये विश्व शुरू हो जाता है। ऐसे जोरदार सिद्धांत के आलोक में वह कहीं भी खुद को अपने पैतृक आवास से तीन घर दूर मान कर मौज ले लेती थी।
महज पांच साल दरोगई कर के मैंने पुलिस विभाग की नौकरी छोड़ दी थी और पिछले तीन साल से हाईस्कूल शिक्षक के रूप में संतुष्ट था। लेकिन 'हर बात पर शक करो' की आदत लहू में घुल-सी गई थी। आगे से उसको अकेले नहीं जाने दूँगा। कहीं भी दोस्त बना लेना ठीक है लेकिन दोस्त कब दुश्मन निकल आए यह कौन जाने?

कल इसने एक लोकल महिला किसान को भी अपना दोस्त बना लिया। चढ़ाई से थक कर वह एक बड़े पत्थर पर बैठी हुई थी। मैं उससे थोड़ी दूर देवदार के एक पेड़ से टेक लगाए बैठा था। पगडन्डी पर एक पहाड़ी महिला एक बड़ी बाल्टी लिए आ रही थी। वह उसे देख कर खुश हो गयी। उसने उसे पास बुलाया। दोनों में अभिवादन-मुस्कान का आदान-प्रदान हुआ। वह अपने पर्स में टॉफी के पैकेट रखती है। घूमते-फिरते अजनबियों का भी मुँह मीठा करा देना उसका शगल है... कहती है, सब अपने से ही तो हैं! उस किसान महिला को भी उसने टॉफी  दी, जिसे उसने प्यार से रैपर खोलकर खा लिया। उसने उससे रैपर लेकर पर्स में डाल लिया और उसे पानी की बोतल दिया। वह इस तरह का सारा कचरा अपने पर्स में बटोर लेती है, जिससे बाद में डस्टबिन में फेंक सके। जंगल, पहाड़ों या ऐसे ही यहाँ-वहाँ कचरा फेंकना उसे सख्त नापसंद है। उस किसान महिला ने एक-दो घूँट पानी पिया और बोतल बन्द कर वापस कर दिया। उसके पाँवों के पास उसकी बाल्टी रक्खी हुई थी जो एक झीने कपड़े से ढकी हुई थी। पहाड़न ने बाल्टी उठाई और जाने के पहले उसका कपड़ा हटाया। बाल्टी चेरी के लाल रसीले फलों से भरी हुई थी। उसने मुट्ठी भर चेरी निकाल कर इसे दिया और कहा कि मुझे भी दे दे। मैं ओवर कोट झाड़ता हुआ बाल्टी के पास आ खड़ा हुआ।

पहाड़न मित्र चली गई। ताजी रसीली चेरियाँ खाकर हमारा मुँह मीठा और चित्त प्रसन्न हो गया। वह हँसे जा रही थी - ' बताओ यार... मैं उसे टॉफी खिला रही थी जिसके पास बाल्टी भर चेरी थी।' यह उसके लिए कई दिन तक हँसने का विषय था। वह ऐसी ही मतवाली-सी लड़की थी। सेब, चेरी के खेतों और अनायास उगे गुलाब को देख कर वह इतनी मुग्ध हुई जा रही थी कि उसने यहाँ खेत खरीदने का मन बना लिया था और इस घटना के बाद तो जैसे पक्का ही हो गया था।

उसे खोजते हुए अंधेरा हो गया और मैं भटक गया। ऐसे में भगवान के सिवा कोई याद आता नहीं है। यहाँ तक कि यह भी याद नहीं आता कि हम नास्तिक हैं या आस्तिक। बिल्कुल पास से ही एक पहाड़ी लड़का तारणहार की तरह प्रगट हुआ और तुरंत ही उसके दाएँ हाथ में आठ इंच का धारदार तारणहारी यन्त्र भी प्रगट हो गया। बाएँ हाथ के इशारे से भगवान पर्स आदि माल-मत्ता चढा़वा माँग रहे थे। हालाँकि मुझे बिल्कुल भय नहीं लगा। अपने पिछले पुलिसिया जीवन में यह आए दिन की घटना थी। मैं एक मिनट में उस लड़के को धूल चटा सकता था लेकिन उसकी आवश्यकता नहीं थी। मुझे बस शीघ्र अपने आवास पर लौटना था।

'तुम्हें जो चाहिए ले लेना लेकिन फिलहाल मेरी मदद करो। रास्ता भटक गया हूँ। ' मेरे स्वर की असाधारण सहजता से वह प्रभावित हुआ और चाकू मोड़कर जेब में रख लिया। मुझसे औपचारिक बात करने के बाद वह मुझे साथ ले कर जंगल से बाहर की ओर चल पड़ा। गेस्ट हाउस के दरवाजे तक मुझे छोड़ कर वह जाने लगा तो मैं ने अपना पर्स उसकी तरफ बढ़ा दिया। उसने उतनी ही सहजता से वापस कर दिया और बोला, "कुछ नहीं लेना... तुम अच्छे आदमी हो... वैसे बाहर वालों ने हमारा जीना हराम कर दिया है..."
'शुक्रिया! कम से कम मुझे अच्छा अहसास कराने के लिए ही कुछ ले लो', मैंने कहा।
वह मुस्कुराया और अंधेरे में गायब हो गया।
कमरे में हीटर जलाकर वह बाशो के हायकू का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ रही थी। मेरे गेस्ट हाऊस से निकलते ही वह वापस आ गयी थी। उसने बिल्कुल नहीं पूछा कि मैं कहाँ गया था, न ही मैंने बताने की जरूरत समझी।

राजा मनु के नाम पर बसी हुई मनाली, सप्तर्षियों का घर और साधना-स्थली मनाली, मनु मंदिर, हिडिम्बा, घटोत्कच, खाटूश्याम, त्रिपुरसुन्दरी और अन्य कई नाग और देव मंदिरों को अपने अंचल में समेटे हुए और अति प्राचीन ब्यास नदी की घाटी में बसा हुआ मनाली अब एक पर्यटन स्थल बन कर रह गया था। कश्मीर जाने वाले पर्यटक जब से मनाली पर मेहरबान हुए हैं, तब से मनाली के बाहरी गाँवों तक में कमरे खाली नहीं मिलते थे। पर्यटकों के अतिआवागमन से स्थानीय संस्कृति और पर्यावरण क्षतिग्रस्त हुए हैं हालाँकि लोगों की आमदनी जरूर बढी़ थी... फिर भी स्थानीय लोग मनाली की शांति और नैसर्गिकता भंग होने की वजह से नाखुश नज़र आए।

पुलिस की नौकरी अपनी ईमानदारी के रोग के चलते रास नहीं आई और अब सरकारी इन्टर स्कूल के शिक्षक के कार्य में भी काम करने की बीमारी बाधा बन रही थी। मैंने जिस स्कूल में तीन साल पहले ज्वाइन किया था, वहाँ बच्चों को पढा़ने लगा था। मेरे क्लास में भीड़ लगने लगी। मुझे शिक्षक सहकर्मियों ने नहीं पढ़ाने की सलाह दी। मैं नहीं माना तो एक साल के बाद ही मेरा तबादला  हो गया। तीन साल में अब चौथा तबादला होने वाला था। लेकिन इस बार मैंने खुद ही माँग की थी किसी ऐसे स्कूल में तबादले की जहाँ पढा़ई की जरूरत हो, जो किसी पहाड़ी गाँव में हो तो और अच्छा।
मनाली में रहना मुझे बहुत रास नहीं आ रहा था। इतनी ठंढ में इतने कम कपड़ों में ये पर्यटक लड़कियाँ या तो मौसम का मजाक उड़ा रही थीं या खुद का। उसे इनको देखकर ठंढ से झुरझुरी लग जाती थी। बड़ी हैरानी होती थी और हँसी भी आती थी... या कभी-कभी अति ठंड लगने से रोना भी जबकि खुद ये ऊपर से नीचे तक गर्म कपड़ों से लदी हुई थी।

इस लड़की से मेरी मुलाक़ात डोमेस्टिक एयरपोर्ट मुंबई में हुई थी। हम दोनों आमने-सामने की कुर्सियों पर अपनी फ्लाइट का इंतजार कर रहे थे। मैं छुपी नजरों से इसे देख रहा था। यह कोई किताब पढ़ते हुए मुस्कुरा रही थी। किताब पढ़ते हुए ही उसने कहा - 'घूर क्या रहे हो, मेरे पास आ जाओ।'
मुझे लगा कि किताब की कोई लाइन बाँच रही है। उसने सिर उठाकर कहा - 'आपसे ही कह रही हूँ। क्या है?'
'जी, कुछ नहीं।' मैं सकपका गया ।
'तो घूर क्यों रहे हो?' उसकी बड़ी-बड़ी आँखों ने पूछा तो मैं और सकते में आ गया।
'जी, आप अच्छी लग रही थीं।' मैं कह गया।
'थैन्क यू!' वह मुस्कुराई। 'यहाँ, पास आ जाइए' उसने नरमी से कहा।
'क्या!?'
'पास आकर घूरिए !' उसने थोड़ी उँची आवाज में कहा तो आसपास के लोग भी घूरने लगे। मैं उठकर उसके पास की कुर्सी पर बैठ गया।
'एक्सक्यूज मी, उठिए !'
मैं झटके से उठ खड़ा हुआ।
'क्या आपने पूछा कि आप मेरे पास बैठ सकते हैं या नहीं?'
'नहीं! '
'तो अब पूछिए! '
'क्या मैं आपके पास की कुर्सी पर बैठ सकता हूँ? ' मैं ने झुंझलाहट को दबाते हुए कहा।
'हाँ, आप बैठ सकते हैं', उसने मुँह बनाकर कहा।
परिचय, पता इसके बाद हुआ था।

घुमक्कड़ी! यही हमारे बीच की पहली सबसे ज़्यादा कॉमन बात निकली और दूसरी चुप रहना! अब तक हम लोग पूरा दक्षिण भारत घूम चुके थे। यह पहली बार ऐसा हुआ था कि हम एक महँगे गेस्टहाऊस में रुके थे वरना हमारा तरीका ये रहता था कि हम कहीं भी पंद्रह दिन से कम का प्लान नहीं बनाते। एक सस्ता किन्तु सुविधाजनक आवास किराए पर लेकर तबतक वहाँ घूमना जबतक हम उस जगह को पूर्ण संतुष्टि तक जी लें, वहाँ के प्रसिद्ध और कुछ कम प्रसिद्ध  पर्यटक स्थल, वहाँ के स्थानीय बाज़ार, खानपान, संस्कृति और लोग हमारे दोस्त बन जाएँ, यही हमारा शगल था।
किसी महँगे होटल में रुकने वाले और बस सभी ख़ास-ख़ास जगहों पर सेल्फी ले, फेसबुक पर डाल कर, दो दिन में लौट जाने वाले पर्यटक हमारे लिए बेचारे थे।
एक दिन त्रिपुरसुंदरी मंदिर में वह ध्यान करना चाहती थी। लकड़ी से बना यह भव्य, प्राचीन मंदिर अब सिर्फ देखने की वस्तु है। वहाँ ध्यान- पूजा इत्यादि का माहौल न पाकर वह दुखी हुई। उसे एक ऐसे एकान्त पहाड़ की तलाश थी जो गुप्त हो और जहाँ तक सड़क भी जाती हो, उसे अपने आवास के आगे नदी जंगल और खेत भी चाहिए, जहाँ बहुत ठन्ढ भी न हो।

ऐसी जगह मिल जाने पर वह मेरे साथ रह सकती थी वरना उसका विदिशा इज द बेस्ट था। उसके साथ उसके होम-टाउन  में जा कर रहने के लिए उससे शादी करनी होगी जिसके लिए हम दोनों में से कोई राजी नहीं था। बिना किसी बंधन के ही हम एक दूसरे के साथ कम्फर्टेबल थे।
अपने पहले संयुक्त ट्रिप पर हम लोग ऋषिकेश गए थे। गंगा के किनारे उसने एक फ्लैट ले लिया था। मुझे स्पेशल इंस्ट्रक्सन था कि बिना पूछे उसके कमरे में नहीं जाना है। एक शाम जब वह रात के भोजन के लिए नहीं आई तो मैंने आवाज नहीं लगाई लेकिन सुबह जब चाय पर भी नहीं आई तो दरवाज़े पर दस्तक देना ज़रूरी हो गया। वह कमरे में नहीं थी। मेरा फोन स्विच-ऑफ था, जो कि ऐसे मौकों पर अक्सर रहता ही है। ऑन किया तो दस मिस्ड कॉल दिखे। वह कल शाम पहाड़ों में चमकने वाली फॉल्सलाइट के पीछे रास्ता भटक कर किसी गाँव में पहुँच गई थी और वहीं एक गेस्टहाऊस में रात बिताकर लौट रही थी।
उसने बताया कि देवताओं की आतिशबाज़ी देखते हुए वह रास्ता भटक गई।
इस पन्द्रह दिवसीय ट्रिप के समापन के समय हरिद्वार स्टेशन पर गले मिलते हुए वह बुदबुदाई ' तुम्हें तो कुछ नहीं मिला... बाद में गालियाँ दोगे।'
‘नहीं, अभी दूँगा...’
'गालियाँ?' खंजन पक्षी जैसी आँखों ने शरारत से पूछा।
'शुभकामना!' मैं मुस्कुराया। 'मुझे अच्छा लगता है, तुम जैसे भी खुश रहो।'
'वुड यू लव मी? '
'आई डोन्ट नो... बट... आई लव योर कम्पनी!'
वह ट्रेन में सवार हो गयी। ट्रेन खुल गई।
वह डोर पकड़े खड़ी थी। 'बट आई फील अ लिटल सॉफ्ट फॉर यू' वह होंठों में बुदबुदाई।
जितनी सॉफ्ट बात थी, उसको उतने ही नरम तरीके और बहुत नाज़ुक पल में उसने कहा; ट्रेन खुल चुकी थी और उसके होंठ पंखुडी़ की तरह खुले रह गए थे। देर तक मन में खुशबू बसी रह गयी ।लेकिन मुझे पता था कि ये विदाई का क्षणिक आवेग था, अगले ही क्षण वह कुछ और भी कह सकती थी।
इस बार हम साथ में मनाली पहुँचे थे और पास के एक गाँव में हमें आवास मिल गया। मुख्य सड़क से आवास तक लगभग एक किलोमीटर का रास्ता पैदल ही पार करना था। कच्ची पगडंडी पर यहाँ-वहाँ कीचड़ था और वह चलते-चलते दो-तीन बार फिसल गई। इस तरह से यह गाँव का रास्ता रिजेक्ट हो चुका था लेकिन फिलहाल उस पर चलते रहने के सिवा कोई चारा न था। आवास उसे पसंद आया। खिड़की के सामने तीन चोटियाँ थीं। एक की आकृति हाथी के सूंढ़ की तरह थी। दूसरी और तीसरी चोटी में भी उसने कुछ आकृतियाँ खोज निकाली थी, हालाँकि वे मुझे कभी नहीं दिखीं। इस पर उसने मज़ाक में ही सही पर बुरा-सा मुँह बनाया था।

पहाड़ी लोग अपने उत्सवों में व्यस्त थे। एक गाँव के देवता दूसरे गाँव के देवता से मिलने जाते थे। रंगबिरंगे पारम्परिक परिधान पहने गाम्रीण जन देवता की पालकी लिए जा रहे थे। गाँव के पुजारी को सपने में गणेश जी ने बताया था कि वे पड़ोस के गाँव में कार्तिकेय भगवान से मिलना चाहते हैं। बस चल पड़ा कारवाँ! देवताओं की सालाना मुलाकातें तयशुदा थीं लेकिन बीच में भी जब मन हो जाए, पुजारी के माध्यम से टेलीपैथिक संदेश भेज कर देवता मिल-जुल लेते थे। इस प्रकार लोगों का मिलना-जुलना भी हो जाता था। इन सादे लोगों का जीवन महानगरीय काईंयापने से दूषित हो रहा था। सेवा-सत्कार की सादगी की जगह मुनाफा कमाने की चालाकी ले रही थी। यहाँ अधिकतम जगहों पर वस्तुओं के दो रेट थे, एक स्थानीय लोगों के लिए, दूसरा पर्यटकॊं के लिए। सीजन में ज़्यादा से ज़्यादा लूट लो, इसी कुविचार का बोलबाला था।

पहाड़ों की सारी सुन्दरता और शान्ति इन पहाड़ी लोगों में जन्म लेती विद्रूपता से कलंकित हो रही थी। ब्यास नदी, मनु और सप्तर्षियों की साधना स्थली पर शैक्षणिक और ध्यान संस्थान होने चाहिए कि पर्यटन लीला? अजीब सी अर्धनग्न पोशाकों में अंगप्रदर्शन करते पर्यटक, प्लास्टिक के रैपर-बोतलें, शराब और चरस इस सुरम्य घाटी को कुरूप बना रहे थे। इस तरह मनाली भी उसकी पसंद से बाहर हो गया। तीन साल से देश भर में घूमते हुए हम एक ऐसी जगह की तलाश में थे जहाँ नगरीय सुविधाएं और ग्रामीण सादगी हो। लगभग पूरा दक्षिण, आधा उत्तराखंड, पौना कूर्मान्चल घूम कर हम हिमांचल मनाली आए थे और पंद्रह दिन में ही ऊब चले थे। स्कूल की छुट्टियाँ खत्म हो रही थीं और मेरा ट्रान्सफर लेटर आने की सम्भावना नज़दीक थी। मुझे उम्मीद थी कि स्कूल विभाग मुझे दिल्ली से मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जैसे किसी छोटे शहर में तबादला दे देगी।

मेरा तबादला छत्तीसगढ़ के कुम्हारी जिले के सुरगा नामक गाँव में कर दिया गया था। ईमेल पढ़ते ही मेरा सिर गरम हो गया। ‘मैं छत्तीसगढ़ तो बिल्कुल ही नहीं जाना चाहता था। वह भी घने जंगल में बसे किसी गाँव में जाकर मैं क्या करूंगा? अच्छा होता कि पहले ही मैंने अपने सहकर्मियों की बात मान ली होती! ठीक ही कहा है कि जो मित्रों की सलाह नहीं मानता वह नष्ट हो जाता है। चुपचाप तनख्वाह उठाते और ऐश करते। क्या ज़रूरत थी पढ़ाने की? भाड़ में जाए ईमानदारी! ईमानदारी का मज़ाक जब तुम बचपन से सुनते आ रहे हो तो क्या पड़ी थी ईमानदार बनने की? अलग दिखना है... महान बनना है। न जीक्या?'  मैं अपना बाप बन के खुद को डाँट रहा था। जब थक गया तो मेरा ध्यान गया कि वह मुझे देख रही थी। उसके होंठ खुले हुए थे। चेहरा गुलाबी-लाल हो रहा था जिस पर गहरे काले रंग से एक प्रश्न उकेरा गया था 'क्या हुआ?' ...औरत अपने प्रेमी को वैसे ही जानती है जैसे नाविक समुद्र की लहरों को ...मैंने छुपाते छुपाते सब बक दिया. वह मुस्कुरा मुस्कुरा कर मेरी बकवास सुनाती रही. अंत में सच बोल के छुटकारा पाया- ' मैं जाउँगा! ज्वाइन कर के अगले दिन रिजा़इन कर दूँगा।'
'ठीक है। मुझे क्या करना होगा ।' उसने पूछा।
'तुम चेरी के खेत खरीद लो। मैं सेब के खेत खरीद लेता हूँ। हम यहीं रहेंगे।' मैंने हँसने की कोशिश की।
बस जहाँ मुझे छोड़ गई थी, वहाँ से चार घंटे की दूरी पैदल तय करना था या सायकिल से। स्कूल की ओर से दो आदमी एक सायकिल लेकर आए थे जिस पर मेरा सामान लाद दिया गया और हम पैदल चल पड़े।
उसका फोन आया - 'पहुँच गए?'
'रास्ते में हूँ।' मैंने वीडियो कॉल करके उसे दिखाया।
घने जंगल का अंधेरा उसके चेहरे पर उभर आया।
'यही रास्ता है ?' उसने पूछा।
'हाँ।' मैं ने कहा।
'तुम यहीं से वापस लौट आओ!' उसने कहा।
'नहीं, अभी नहीं। अब इस खतरे का हिस्सा हूँ। पीठ नहीं दिखा सकता। कल रिज़ाइन कर के आ जाउँगा।' मैंने मुस्कुराने की कोशिश की लेकिन चेहरा मुश्किलों से भर गया और नेटवर्क चला गया। उसे मैसेज कर के मैंने बताया कि इंटरनेट नहीं है यहाँ ।
उसने पूछा, 'क्या टिकट बनवा दूँ कल का?'  मैंने हाँ कहा।
इन जंगलों में जानवर और इंसान कोई भी अचानक खतरनाक साबित हो सकता था, ऐसा मुझे बताया गया था। यह रास्ता मैं अपने रिस्क पर तय कर रहा था। स्कूल ने पहले ही इत्तला कर दिया था। पास ही से मोर की आवाज आ रही थी लेकिन दिख नहीं रहे थे। मुझे बताया गया कि मनुष्यों के खौफ से वे बाहर नहीं आते हैं। जानवर भी छुपे रहते हैं, वे हमें देखते हैं लेकिन हम उन्हें नहीं देख पाते हैं।

मेरी पैदल चलने की क्षमता से साथ के लोग खुश दिखे। रास्ते में रुकते-बैठते हम लोग दो-सवा दो घंटे में सुरगा पहुँच ही गए। यह एक छोटी सी पचास-साठ घरों की बस्ती थी। लाल मिट्टी से रंगी दीवारों वाले मिट्टी के खपरैल मकान, सभी घरों से जुड़ा हुआ एक छोटा बागीचा जिसे हम अपने वहाँ शहरों में बड़ा इतराते हुए किचन-गार्डन कहते हैं। आंगन और नीम, शहतूत, आम, बकाईन, पलाश और महुआ के पेड़। मेहँदी, चमेली, करील, करौन्दे और कुटज के झाड़ों से घरों की घेरान। पूरे गाँव को पार कर हम एक खुले मैदान में आ पहुँचे जिसके एक सिरे पर स्कूल था। स्कूल की दीवारें ईंट की थी लेकिन छत खपरैल की ही थी। इस स्कूल के दो हिस्से थे। एक हिस्से में पहली से सातवीं कक्षा तक पढ़ाई होती थी और दूसरे हिस्से में बारहवीं तक। मैं यहाँ इन्टरमीडिएट के छात्रों को हिन्दी साहित्य पढ़ाने के लिए नियुक्त हुआ था।

मुझे स्कूल के ही एक कमरे में टिकाया गया। हाथ-मुँह धोकर मैं स्कूल के आफिस में ज्वाइनिंग का काम निपटाने आ धमका। गोरी-चिट्टी महिला प्रिंसिपल को देख कर अच्छा भी लगा और धक्का भी लगा। ये क्षेत्रीय नहीं थीं। यहाँ कोई बाहरी व्यक्ति कैसे टिक सकता है भला, वह भी एक संभ्रांत महिला? जिस प्रसन्नता से उन्होंने मेरा स्वागत किया वह और भी हैरान करने वाली बात थी। उन्होंने सुझाव दिया कि मैं एक दिन रुक के ज्वाइन करूँ क्योंकि ज्यादातर लोग दूसरे दिन रिजाइन भी कर देते हैं।
'आप कैसे रुक गयीं ?' मैंने हैरानी से पूछा।
'मैं यहीं की हो गयी।' उन्होंने मन्द मुस्कान बिखेरते हुए कहा। वे एक प्रौढ़ महिला थीं और मेरा अनुमान था कि अकेली थीं। जो भी हो। मुझे क्लास लेने के लिए भेज दिया गया।

उसके फोन आ रहे थे लेकिन नेटवर्क नहीं मिल रहा था। बहुत खोजने के बाद एक टीले के ऊपर चढा़ तो नेटवर्क मिला। मैंने उसे कल का टिकट बनवा देने की याद दिलाई और यहाँ की हजार कठिनाईयों के साथ दो-तीन अच्छी बातें भी बताई। मसलन यहाँ बिजली-पानी है, नदी, पहाड़ और खेत हैं, नगरीय सुविधाएं तो नहीं हैं किंतु अद्भुत शान्ति है। फिर भी यहाँ सिर्फ इसलिए नहीं रहा जा सकता है क्योंकि यहाँ से निकट के किसी भी शहर तक जाने के लिए सड़क तक की दूरी दो घंटे से ज्यादा पैदल चल के तय करनी थी और जंगल पर भरोसा नहीं किया जा सकता था।

क्लास में पच्चीस से अधिक लड़के-लड़कियों को देख कर मुझे हैरानी हुई। आसपास के कई छोटे गाँवों के बच्चे यहीं पढ़ने आते थे।
जोहार बन्दगी के बाद मैंने कविताएँ पढा़ना शुरू ही किया था कि एक डाकिया ढेर सारी चिट्ठियाँ क्लास में डाल गया। चिट्ठियाँ!  मुझे लगा कि कई हज़ार साल बाद मैंने चिट्ठियाँ देखी थीं।
'किसकी हैं ये चिट्ठियाँ?'
'हमारी हैं,' एक साथ तीन-चार आवाजें आईं।
क्या है इन चिट्ठियों में? मैंने पूछा।
'ये प्रेमपत्र हैं' सामने की बेंच पर बैठी एक लड़की ने इतनी सहजता से कहा कि मैं असहज हो गया!
'प्रेमपत्र ! तो तुम लोग कक्षा में प्रेमपत्र मंगाते हो?' मैंने सारे पत्रों को अपने कब्ज़े में ले लिया।
'हाँ सर, क्योंकि दिनभर हम लोग यहीं रहते हैं तो पत्र यहीं मंगवा लेते हैं।' किसी दूसरे छात्र ने सरलता से जवाब दिया तो मेरे भीतर का ऑर्थोडॉक्स कैरेक्टर उभर कर सामने आ गया जिसे अबतक समझता था कि मैं अपने भीतर से निकाल चुका हूँ। मेरे लिए यह भी समझना ज़रुरी था कि कहीं ये छात्र मेरे साथ मज़ाक तो नहीं कर रहे हैं ?
मैं उन रंगबिरंगे लिफाफों को लेकर प्रिंसिपल के पास गया। मैंने उनसे शिकायत की कि बच्चे कक्षा में प्रेम पत्र मंगवाते हैं।  उन्होंने भी उतनी ही सहजता से बताया कि ‘इन गाँवों में अब भी लोग मोबाईल फ़ोन का इस्तेमाल नहीं करते हैं। इसलिए पत्र ही आज भी प्रचलन में हैं। रंगीन और सुगन्धित कागज़ भी ये प्रेमी खुद तैयार करते हैं।‘ मुझे लग नहीं रहा था कि मैं इसी धरती पर हूँ। मैं वापस क्लासरूम में आ गया और पत्र बच्चों को लौटा दिए। अपना लेक्चर पूरा किया और सामने की बेंच पर बैठी लड़की से, जिसके सबसे ज्यादा ख़त आए थे, कहा कि तुम्हारे पत्र लेकर मैं तुम्हारे माता-पिता से मिलने आ रहा हूँ।
कुछ गुस्से और ज़्यादा कौतुहलवश शाम को मैं वाकई उसके घर पहुँच गया। उसके माता-पिता मेरा स्वागत करते हुए मिले। भुने हुए महुए और चाय से उन्होंने मेरी आवभगत की। पानी की जगह एक सफेद पदार्थ स्टील के गिलास में देख कर मैंने पूछा कि ये क्या है। पता चला कि वह माँड़ी थी, घर में तैयार की जाने वाली एक तरह का मादक पेय। मैंने उसे परे कर दिया और सीधे मुद्दे पर आ गया। मैंने प्रेम-पत्रों के बारे में बताया।
'प्रेम-पत्र तो आयेंगे ही ना, मास्टर साहब! लड़की बड़ी हो रही है', पिता ने इतनी सरलता से ये बात कही कि मेरे मुँह पर पसीना छलछला आया।लड़की की माँ के चेहरे पर सहज-निश्छल मुस्कान थी। ये कौन-सी दुनिया है भाई जहाँ प्रेम की ऐसी सहज स्वीकार्यता है !
खाने के लिए एक नया आइटम सामने आ चुका था। यह खस्ता रोटी थी जिसे बाजरे का आटा, नमक और कुछ स्थानीय मिर्च-मसालों के मिश्रण से बनाया गया था। इसे पत्तों में लपेटकर सीधे ही आग में पकाया जाता था। साथ में सिलबट्टे पर पिसी हुई लहसुन-अदरक की स्वादिष्ट चटनी थी।
पांच साल का जो बच्चा घर के भीतर से ये सब ला रहा था, उसके बारे में मैंने पूछा।
'यह मेरी बड़ी बेटी का बच्चा है।' माताजी ने सोत्साह बताया।
'कितने साल हुए उसकी शादी के ?' मैंने यूँ ही पूछ लिया।
'शादी अभी नहीं हुई है, अगले महीने होगी।' उन्होंने दोबारा चौंकाया।
' तो ये बच्चा?' मेरा मुँह हैरानी से खुला रह गया।
' ये बच्चा उसके पहले प्रेमी से है।' पिता ने कहा।
'अच्छा, तो शादी उससे क्यों नहीं हुई?' मेरा अनुमान था कि कोई दुर्घटना हो गयी होगी।
'उन लोगों का प्रेम खत्म हो गया।' पिता ने जवाब दिया।
'ओह ! तो बच्चा आप लोगों ने रख लिया ?'
'हाँ, बच्चा तो तब आया था जब प्रेम था। बच्चा तो प्रेम की निशानी है न !' वे दोनों मुस्कुरा रहे थे और इतने स्वस्थ व पूर्ण दिख रहे थे कि अपने सारे ज्ञान के साथ मैं उनके सामने बौना-सा महसूस कर रहा था। वह सफेद पदार्थ खटिया के पास अभी तक गिलास में रक्खा हुआ था। मैंने एक ही साँस में उसे गले के नीचे उतार लिया।
बिस्कुटनुमा रोटी का एक टुकड़ा उठाकर चबाने लगा। गिलास दोबारा भर दिया गया था। इस बार बिना कुछ बोले मैंने उसे घूँट-घूँट पिया और नमस्कार कर के लौट आया। अब मुझे सब कुछ साफ-साफ समझ आ रहा था।

मैंने चिरपरिचित टीले पर चढ़कर उसे फोन किया।
'तुम्हारा टिकट बन गया है।' उसने फोन उठाते ही कहा।
'कैन्सल करा दो!'
'क्या??' उसका स्वर कुछ ऊंचा था।
'कैन्सल करा दो और अपना टिकट बनवा कर आ जाओ।  जिस दुनिया को भविष्य में खोज रही हो, वह यहाँ इस अरण्य में मौजूद है, मैं फोन पर बता नहीं सकता हूँ। आकर खुद देखो, जियो और महसूस करो । और हाँ, यहाँ नेटवर्क नहीं है और ज़रूरत भी नहीं है इसलिये फोन मुश्किल से लगेगा, तो बस आ जाओ।‘
मैंने निश्चिंतता की एक गहरी साँस बाहर छोड़ी और फ़ोन को स्विचऑफ कर के जेब में रख लिया और मेरामन हुआ कि एक चिट्ठी लिखूँ.

                                            ******

डॉ. अनुपम
सर्व सेवा संघ परिसर,
राजघाट, वाराणसी,
पिन: 221001
मो. न.:  9936078029

3 टिप्‍पणियां:

Praveen Kumar ने कहा…

Bahut hi achha....

Santosh Pyasi ने कहा…

अनुपमजी, कहानी आम विषयों से हटकर और अच्छी लगी। पर क्या छत्तीसगढ़ में सचमुच ऐसी परंपरा वाला गांव है जिसका आपने ज़िक्र किया है? हां एक बात और, ऐसा कौन-सा शिक्षा विभाग है जिसके टीचर्स का तबादला दिल्ली से छ.ग. के किसी आदिवासीबहुल गांव में हो जाए? मेरी समझ से ऐसा सिर्फ़ सेन्ट्रल स्कूल में होता है और सेन्ट्रल स्कूल ठेठ गांवों में नहीं होते।

Dr. Anupam Ojha ने कहा…

संतोष प्यासी जी, वैसे तो ऐसा कोई प्रेमी भी नहीं होगा जो सात दिन एक साथ रहे और सिर्फ मेंहदी लगाए. इसपर आपने कोई ऐतराज नहीं किया. शिरीष खरे ने अपनी किताब 'उम्मीद की पाठशाला' में इस कहानी में वर्णित स्कूल और गाँव से मिलते-जुलते आदिवासी गाँव का वर्णन किया है और केन्द्रीय विद्यालय व नवोदय विद्यालयों में ऐसे तबादले होते हैं. न भी हो तो कहानी में ऐसी रचनात्मक छूटें हुआ करती हैं. सिनेमा में जिसे 'लार्जर देन लाइफ' और साहित्य में परिकल्पना कहा जाता है.