रविवार, 4 मार्च 2012

कविता


कविता
प्रथम प्रकाशन फेसबुक पर, ४-३-१२ )
मै बहुत डरता था 
                                                    अनुपम 
मै अत्यंत विनम्र आदमी से डरता हूँ 
अत्यधिक सात्विक से सावधान रहता हूँ 
मै अतिशुद्ध पर विश्वास नहीं करता हूँ 
कला की आवश्यकता से अधिक सात्विकता 
पर संदेह करता हूँ 

यह सही है की इस वक्त सही आदमी 
भीड़ में अकेला छूट जाता है :
और 
पीछे से आती रैली के रेले में गुम हो जाता है.
बचे रहना है अपनी सादगी में 
अगर बचाए रखना है पृथ्वी को
सहज आदमी मुझे अच्छे लगते है
जो सिर्फ होते है
हर घड़ी ऐंठते नहीं 
विनम्रता के आवरण में पैठते नहीं .

इसीलिए....

  


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