शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें .


 ( पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें -धुंडीराज गोविन्द फालके, १९२०, नवयुग पत्रिका, मराठी,बीसवीं सदी के भरत मुनि के नाम से नवाजे गए भारतीय सिनेमा के पितामह ने इसी शीर्षक से एक आलेख लिखा था.)


मैं पच्चीस साल की उम्र से फोर्टी प्लस एक्टर्स के लिए स्क्रिप्ट्स लिख रहा हूँ लेकिन जब उनके पास स्क्रिप्टें लेकर गया तो पता चला कि वे सब के सब पच्चीस साल के जवानों का रोल करना चाहते हैं.  हमारी फिल्म इंडस्ट्री के एक्टर मच्योर नहीं होना चाहते, वे किशोर बने रहना चाहते हैं. ऐसे में अगर सिनेमा भी लौंडे पने से बाहर नहीं निकल पा रहा है तो हैरानी की कोई बात नहीं.
इस निरर्थक मनोरंजन से अलग एक गंभीर सिनेमा कि जरुरत है. अब देखिये, हमारे यहाँ सिर्फ सोलह से २७ के बीच की उम्र के लोगों के लिए सिनेमा बनता है. बच्चो और बड़ों के लिए हमारा सिनेमा उद्योग  फेल है.  एक बड़ा कंज्यूमर है जिसके लिए हिंदी सिनेमा उद्योग में प्रोडक्ट नहीं बनता है . एक काफी बड़ा दर्शक वर्ग है जिसे सिनेमा हॉल तक खीच लाने की क्षमता हमारे फिल्मकारों में नहीं है. इक्का दुक्का अपवादों की बात छोडिये, मॉस प्रोडक्शन की बात करिए.
हिंदी में १९६८-७० में इसी तरह की सोच को कला सिनेमा के रूप में आकार मिला था.  फिलहाल बहुत तरह का सिनेमा बने तभी हम इस उद्योग पर अपनी पकड़ बनाये रख सकेंगे. व्यावसायिक संघर्ष अब विश्व स्तर पर है. हिंदी सिनेमा को अब सबसे ज्यादा खतरा अंग्रेजी के विविध रंगी और मच्योर सिनेमा से है.
हिंदीतर भाषाओं की फिल्में जो लोग देख पाते हैं वे मच्योर सिनेमा का मतलब बखूबी समझ सकते हैं.
तो अब मैं अपनी कुछ फिल्मों में एक्टिंग भी कर रहा हूँ.
बनारस में दस साल तक एक कवि का सम्मानजनक जीवन जीते हुए मैं प्रसिद्धि और चमक के अच्छे -बुरे असर को जानता हूँ. आदमी रुक जाता है. एक रूप में बंध जाता है. उस से बाहर नहीं निकलना चाहता. उसकी इमेज ही उसकी खोल और कब्र बन जाती है. इक्कीस साल की उम्र में हर तरफ अपने लिए आँखों में चमक देखना किसी को भी घमंडी बना देने के लिए काफी हैं. मेरी कवितायेँ लोगों की जुबान पर थीं. एक समय ऐसा भी आया कि मैं चौबीस घंटे कविआया हुआ रहने लगा. फिर मैंने काफी धक्के खाने के बाद कविता लिखना जारी रखते हुए, कवि दिखना, बनना छोड़ दिया. दरअसल सितारा बनते ही इन्सान की अक्ल फूल जाती है. यहाँ जो सम्हल गया वो बच गया.
जमीन पर खड़ा एक सहज , सामान्य आदमी बने रहना ही असली कलाकारी है.
दादा साहेब फाल्के ने १९२० में आह्वान किया था - "पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें." आज उसको दोहराने की जरुरत है.
किसी भी उम्र का  एक पढ़ा लिखा , अनुभवी और तैयार इंसान ही फिल्म में अभिनय करने योग्य होता है. नाटक और फिल्म के अभिनेता में अंतर होता है. नाटक में अभिनेता चाहिए फिल्म में कास्ट. फिल्म में एक तैयार पर्सनालिटी की जरुरत होती है जिसे अभिनय भी आता हो. इस फर्क को ध्यान में रखते हुए मैं आह्वान करता हूँ कि पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें. विकसित मनुष्य ही फिल्म में अच्छा अभिनय कर सकता है.
मेरा फ़िलहाल ऐसा ही सोचना है.
 डॉ. अनुपम
(निर्देशक की डायरी, २६)

कोई टिप्पणी नहीं: