मंगलवार, 16 अगस्त 2011

जश्ने -आजादी के बाद ....


जश्ने -आजादी के बाद ....
पार्क के अंधियारे में जहाँ दिन के उजाले में
जश्ने - आजादी का उत्सव मनाया गया था
वहां रात के अंधियारे में
एक बूढा आदमी चवों के बल बैठा कुछ चुन रहा था
कीचड़ में कागज के तिरंगे झंडे बिखरे थे ; बच्चे जिन्हें खेलकर
 ऊब गए थे और बड़ों के लिए
जो फगुआ का मेला हो गया था .
मेरी अँगुलियों में फंसे सिगरेट के धुएं को ताड़कर बूढ़े ने अपनी नाक , चश्मा
और आँखे मेरी तरफ भेदी ....
अरे ! यह तो गाँधी है !
मैं विदेशी सिगरेट बुझाने की जगह खोजने लगा ....
'लाओ मुझे दे दो!' गाँधी ने कहा . 'तुम ये भीगे हुये झंडे सम्हालो !'

पूरे शहर में डस्टबिन खोजने के बाद हम स्टेशन पहुचे .
स्टेशन पर हर डस्टबिन पान की पीक से रंग हुआ था .
'नौजवान तुम पानी लेकर आओ !' गाँधी ने कहा और तत्परता से सफाई में जुट गए .
अनाउंसर मुक्तिबोध की कविता सुना रहा था  --
"जो है उससे बेहतर चाहिए
सारी दुनिया साफ करने के लिए मेहतर चाहिए .....
गाँधी भी साथ गुनगुना रहे थे.
मैं गीले झंडे और सिगरेट का टुकड़ा लिए खड़ा था - तो इन का क्या करूँ ?
रद्दी कागज के टुकड़ों से थूक पोंछकर साफ करते बूढ़े ने बिना विश्राम या  विराम लिए कहा -
'तुम झंडे सम्हालो ! मैं सफाई कर लूँगा, और सुनो !
 इनसे लगी हुई मिट्टी भी सम्हाल कर रखना !
उसके हर कण में शहादतों की दास्तानें हैं !

मुझे याद नहीं की घर लाकर उन्हें कहाँ रख दिया ....

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