निर्देशक कि डायरी २३
कला के तीन क्षण और काशी का अस्सी
कला के तीन क्षण और काशी का अस्सी
अनुपम
दो सप्ताह पहले इस कथा -रचना को पढ़ गया. इसपर फिल्म भी आ रही है - मोहल्ला अस्सी. फ़िलहाल फिल्म पर नहीं इस उपन्यास पर मै अपनी प्रतिक्रिया देना चाहता हूँ. इस कथा रचना को पढ़कर मजा आया. शिल्प के स्तर पर मै इसको एक जटिल कृति मानता हूँ. निरर्थक चरित्रों और घटनाओं से एक कथा रचना की बुनावट काफी चैलेंजिंग काम है.कथा तत्त्व के धरातल पर बनारस के बाहर वालों के लिए यह एक झरोखा है. जिस से वे बनारस की एक चाय की दुकान में कुछ चुने गए चरित्रों और अस्सी मोहल्ला के कुछ चित्रों को देख सकते हैं. हालाँकि यहाँ चरित्रों की जगह मित्रों शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है क्योंकि बहुत से अर्थवान चरित्रों को सफाई से काशीनाथ सिंह ने क़तर दिया है. यहाँ उनके नाम गिनाकर उनके नाम को मै हल्का नहीं करना चाहूँगा लेकिन वे पत्रकार, शिक्षक, कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं और उनके 'कारनामे' जग जाहिर हैं.
पूरी किताब पढने के बाद मैंने इसे उलट पलट के देखा की वह 'असी' नदी कहाँ है जिसके किनारे बसे इस मोहल्ले का वर्णन किया गया है. दुर्भाग्य से वह बिलकुल नदारद है. हालाकी असी का नदी के रूप में भी अस्तित्व अब नहीं रह गया है. वरुणा और असी नदी के बीच बसे नगर को वाराणसी संज्ञा मिली थी. दोनों ही नदियाँ अब बदबूदार परनालों में बदल गई हैं. चरित्रों की क़तर ब्योत में असी नदी को भी छाँट देना मेरी समझ के बाहर है. मै यह तो नहीं मान सकता की डॉ. काशीनाथ सिंह के ध्यान में यह बात नहीं आई होगी. इसका जवाब तो उन्ही से मिलने की उम्मीद की जानी चाहिए.
यह 'काशी का अस्सी', काशीनाथ सिंह का अस्सी है, जो उनके गिने चुने मित्रो और लगुओं भगुओं से बनता है . यह काशी या बनारस का 'असी' मोहल्ला नहीं है. वह अब भी एक आंचलिक विषय के रूप में अछूता रह गया है.
यह 'काशी का अस्सी', काशीनाथ सिंह का अस्सी है, जो उनके गिने चुने मित्रो और लगुओं भगुओं से बनता है . यह काशी या बनारस का 'असी' मोहल्ला नहीं है. वह अब भी एक आंचलिक विषय के रूप में अछूता रह गया है.
यह कथा-रिपोर्ताज है, संस्मरण है, उपन्यास है या कहानी संग्रह, इस विषय पर काफी बहसें हुई हैं, जैसा की इसके फ्लैप पर लिखा है - 'उपन्यास के परम्परित मान्य ढांचो के आगे एक प्रश्न चिह्न' . अगर उपन्यास की ही शैली में कहूँ तो यह 'चैतन्य चूतियापा' है.
सारिका के किसी पुराने अंक में मैंने कभी पढ़ा था ; तमिल भाषा के एक मूर्धन्य लेखक अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बता रहे थे कि उपन्यास के फर्स्ट ड्राफ्ट में वे चरित्रों का वास्तविक नाम लिखा करते थे. इससे उनको चरित्रांकन करने में सुविधा होती थी. दूसरे ड्राफ्ट में वे चरित्र के अनुकूल नामकरण कर देते थे और तीसरे ड्राफ्ट में चरित्रों को गढ़ देते थे जिसका मूल चरित्र से कुछ खास लेना देना नहीं रह जाता था. इस नजर से देखा जाए तो काशी का अस्सी फर्स्ट ड्राफ्ट है. यह अधपका बेर है जिसका स्वाद खट्टा मीठा है.
मुक्तिबोध की थियरी कला के तीन क्षण पर इस कृति को कसा जाए तो यह पहला और अनुभव का क्षण है. इस हिसाब से इस कथा कृति ने अपना दूसरा और तीसरा क्षण जिया ही नहीं. यह गर्भस्थ शिशु का प्रदर्शन है.
यह काफी पॉपुलर हुआ है.हालाँकि यह अगर किसी पॉकेट बुक्स से छपता तो और प्रसिद्द होता और साहित्य के व्यवसायीकरण का एक रास्त खुलता. इसकी प्रसिद्धि के पीछे इसके चरित्रों की सादगी और स्थितिजन्य हास्य है. जिन व्यक्तियों और व्यक्तित्वों के सहज व्यवहार को इस कथा में सीधे कॉपी पेस्ट किया गया है, उनकी जीवंत उपस्थिति इस कथानुमा कृति को ग्राह्य बनाती है. मुझे नहीं लगता है कि अपने चरित्र के विचित्र चित्रांकन से वे जीवित मनुष्य अहसानमंद हुए होंगे ? कमाल की भाषा और धारदार शिल्प से लैस कथाकार काशीनाथ सिंह की ये कृति थके हुए शिकारी के शिकार की तरह है जिसने छर्रा फायर कर के ढेर सारे पक्षी मार गिराए हों, हालाँकि इरादा शेर मारने का था.
यह काफी पॉपुलर हुआ है.हालाँकि यह अगर किसी पॉकेट बुक्स से छपता तो और प्रसिद्द होता और साहित्य के व्यवसायीकरण का एक रास्त खुलता. इसकी प्रसिद्धि के पीछे इसके चरित्रों की सादगी और स्थितिजन्य हास्य है. जिन व्यक्तियों और व्यक्तित्वों के सहज व्यवहार को इस कथा में सीधे कॉपी पेस्ट किया गया है, उनकी जीवंत उपस्थिति इस कथानुमा कृति को ग्राह्य बनाती है. मुझे नहीं लगता है कि अपने चरित्र के विचित्र चित्रांकन से वे जीवित मनुष्य अहसानमंद हुए होंगे ? कमाल की भाषा और धारदार शिल्प से लैस कथाकार काशीनाथ सिंह की ये कृति थके हुए शिकारी के शिकार की तरह है जिसने छर्रा फायर कर के ढेर सारे पक्षी मार गिराए हों, हालाँकि इरादा शेर मारने का था.
फिल्म के लिए ये बहुत ही अच्छा कच्चा माल है. उम्मीद है इस कला का दूसरा और तीसरा क्षण फिल्म रूप में आ गया हो.
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