बोल -बचन ; सन्दर्भ - हिंदी साहित्य
विभूति-छिनाल प्रकरण पर मोहल्ला लाइव पर मैंने विष्णु खरे का आलेख पढ़ा -लेखक होने के वहम ने इस कुलपति की सनक बढ़ा दी है .लगे हाथ उनका दूसरा आलेख भी पढ़ डाला - इन्हें कैसे मिल गया भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार. तीसरी तरफ तेजस्वी पत्रकार अविनाश दास ने मुहीम चला रखा है -शर्मनाक है कि नामवर सिंह इस मसले पर चुप हैं!
इन तीनों मुद्दों को अगर एक ही सन्दर्भ में देखा जाये तो ये हिंदी साहित्य से सम्बंधित हैं . गौर करने पर हिदी साहित्य की वर्तमान स्थिति दिन के उजाले की तरह स्पष्ट हो जाती है . हिंदी साहित्य पिछड़ों का पक्षधर साहित्य होने की जगह पिछड़ा साहित्य हो गया है.
नामवर जी हिंदी साहित्य के अग्रणी नेता हैं और वे इस मुद्दे पर चुप हैं. पत्रकार उनको खोदे जा रहे हैं है लेकिन सन्तप्रवर की चुप्पी नहीं टूट रही है. विभूति जैसे सामंती मिजाज के आदमी की साहित्य में इतनी दमदार पैठ नामवर जी के सहयोग के बिना मिल ही नहीं सकती.प्रतिभाहीन लोग प्रतिभाशाली लोगो के सहयोग के बिना खड़े ही नहीं रह सकते . दूसरी तरफ भारत भूषण अग्रवाल पुरष्कार से तमाम कच्चे कवियों, अकवियों को बिगाड़ने के पीछे भी उनकी बराबर भूमिका रही है .
अगर एक वाक्य में कहा जाये तो नामवर जी उस किसान की तरह किं-कर्तब्य -विमूढ़ से खड़े है जिसके सामने उसकी बोई हुई फसल लहलहा रही है . ज्ञानचतुर्वेदी ने हाल ही में कहीं लिखा है की नए लेखकों की फसल कहीं खर-पतवार तो नहीं?
जी हाँ! बोया बीज बबूल का तो आम कहाँ से होए .
जीवन भर नामवर जी ने लिखा कम और बोला अधिक है. मेरी सलाह है किअब उनसे बोलने के लिए न कहा जाये. उनसे लिखने का आग्रह किया जाये . उनका लिखा हुआ हर शब्द साहित्य की निधि है . उनके एक शब्द की तुलना एक ग्राम युरेनियम से किया जाये तो भी कमतर होगा .
वैसे भी बोल बचन की मठाधिसी का समय ख़त्म हो चूका है .
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