पिछले एक दशक के भोजपुरी सिनेमा और संगीत को अश्लील की संज्ञा दी जाती है. हालाकि इसने सफल व्यवसाय भी किया है और अपने सितारे भी पैदा किये हैं. इसके पास अपना फिक्स दर्शक और सिनेमा हॉल हैं. इसके पास जो नहीं है उसे सम्मान कहा जाता है. मिडिया इसकी पहचान को सम्मान के लायक नहीं समझती. इसे छिछला, घटिया, सस्ता, सब्सीटयूट ऑफ़ ब्लू फिल्म आदि संज्ञा दी जाती है. लगभग हर तरफ से एक बात पर सभी सहमत हैं कि भोजपुरी सिनेमा और संगीत ने भोजपुरी संस्कृति को डिस्टर्ब किया है. लगभग हर पत्रकार ने भोजपुरी सिनेमा को दोषी माना है और 'भोजपुरी समाज' को क्लीन चिट दिया है.
भोजपुरी सिनेमा और संगीत पर एकतरफा प्रहार तो बहुत किया जा चुका कि ये दोनों उस समाज को, उसकी संस्कृति को भ्रष्ट कर रहे हैं. दूसरे पहलू से भी एकबार सोचना चाहिए- यह भी तो हो सकता है कि ये संगीत और सिनेमा उसी समाज के मन के यथार्थ कि छाया हों? भोजपुरी समाज कि दमित वासना और जहालत ही कामुक सिनेमा और संगीत के रूप में फूट पड़ा हो? आखिर इसको लिखनेवाले, बनाने और देखनेवाले सब तो भोजपुरी ही हैं या भोजपुरी से प्रेम करनेवाले ?
राजकमल चौधरी कहते हैं कि 'प्यार और वासना मर जाते हैं लेकिन करुना कभी नहीं मरती.'
प्यार और वासना, इर्ष्य और आक्रोश इन सबकी भोजपुरी में काफी अभिव्यक्ति हो चुकी है. अब करुणा और मैत्री पर थोडा ध्यान दिया जाए तो भोजपुरी सिनेमा सम्मान की भागीदार हो जाएगी. यहाँ तक आने के लिए भोजपुरी सिनेमा ने जो भी रास्ता अपनाया उसपर रिसर्च होना चाहिए लेकिन फ़िलहाल अच्छी फिल्मो के लिए अनुकूल समय है.