कवि निर्देशक की डायरी २२
पुनः -
दादा साहेब फाल्के ने कहा था कि 'पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें.' इसका मतलब डिग्रीधारी नहीं था.
आजकल प्राइवेट फिल्म टीवी संस्थानों से ढेर सारे पैसो के एवज में खूब डिग्रियां बांटी जा रही हैं. फिल्म इंडस्ट्री में डिग्रीधारी मूर्खों की बाढ़ आ गई है जो सिनेमा में घुसना चाहते है लेकिन बेसिक सवाल कि सिनेमा क्या है नहीं जानते, जो सह निर्देशन या निर्देशन करना चाहते है लेकिन निर्देशन क्या है इसका जवाब नहीं है उनके पास, जो एक्टर बनना चाहते हैं लेकिन ठीक से अभिनय शब्द नहीं लिख सकते या नहीं जानते की अभिनय क्या है, वे सभी युवा भले ही किसी भी महान प्राइवेट या सरकारी फिल्म स्कूल से डिग्री लेकर निकले हों, कृपया! कृपया! कृपया ! मुझसे संपर्क न किया करें, क्योंकि मै मूर्ख भक्षक हूँ. मूर्खों को खा तो जाता हूँ लेकिन थोड़ी बदहजमी हो जाती है. मुह का जायका ख़राब हो जाता है. इतने बेसिर पैर के मूर्ख मुझे पसंद नहीं.
विनय के साथ -
अनुपम
अनुपम
अग्निपथ का रीमेक देखने की मेरी कोई इच्छा नहीं है. गाँव कस्बो में भी हिट फिल्मो का मंचन होता है. मै वह भी देखने नहीं जाता. सितारों पर केन्द्रित अग्निपथ और डॉन जैसी फिल्मो को फिर से बनाना बेवकूफी है. कहानी को आगे बढ़ाते तो बात अलग थी, ये तो अमिताभ बच्चन का रोल कर रहे हैं या और अदाकारों की कॉपी करने की कोशिश करते हैं. साफ़ है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में विचारों का अभाव हो गया है. सिनेमा व्यवसाय का गुणा गणित बदल गया है. ये नए सितारे अपने बल पर कुछ करने में सक्षम नहीं दिख रहे है. इन्हें अपने आप को दोहराना पड़ रहा है. यह हिंदी सिनेमा का मूर्ख काल है. परिवर्तन का समय है. एक योग्य निर्देशक ही अच्छी स्क्रिप्ट लिख या चुन सकता है. सचाई ये है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में निर्देशक तो गिने चुने ही रह गए हैं, ठेकेदार काफी बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं. बढ़िया मनोरंजन पैदा करना जिनके वश में नहीं है. ये सिर्फ धंधा कर सकते हैं और कर रहे हैं. मनोरंजन कि भूखी जनता को ठग रहे हैं . जनता के बीच से ही इनका जवाब निकल कर आएगा और समय आ चुका है.
अग्निपथ का रीमेक देखने की मेरी कोई इच्छा नहीं है. गाँव कस्बो में भी हिट फिल्मो का मंचन होता है. मै वह भी देखने नहीं जाता. सितारों पर केन्द्रित अग्निपथ और डॉन जैसी फिल्मो को फिर से बनाना बेवकूफी है. कहानी को आगे बढ़ाते तो बात अलग थी, ये तो अमिताभ बच्चन का रोल कर रहे हैं या और अदाकारों की कॉपी करने की कोशिश करते हैं. साफ़ है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में विचारों का अभाव हो गया है. सिनेमा व्यवसाय का गुणा गणित बदल गया है. ये नए सितारे अपने बल पर कुछ करने में सक्षम नहीं दिख रहे है. इन्हें अपने आप को दोहराना पड़ रहा है. यह हिंदी सिनेमा का मूर्ख काल है. परिवर्तन का समय है. एक योग्य निर्देशक ही अच्छी स्क्रिप्ट लिख या चुन सकता है. सचाई ये है कि बम्बई फिल्म इंडस्ट्री में निर्देशक तो गिने चुने ही रह गए हैं, ठेकेदार काफी बड़ी संख्या में काम कर रहे हैं. बढ़िया मनोरंजन पैदा करना जिनके वश में नहीं है. ये सिर्फ धंधा कर सकते हैं और कर रहे हैं. मनोरंजन कि भूखी जनता को ठग रहे हैं . जनता के बीच से ही इनका जवाब निकल कर आएगा और समय आ चुका है.
मै निकट भविष्य की घोषणा कर रहा हूँ कि आगे आ रही तेज आंधी में ये सितारे कागज के पोस्टरों की तरह उड़ जाने वाले हैं, जिसका इनको पता है; ये इतने भी बेवकूफ नहीं है, इसलिए जैसे तैसे दाम बनाने में लगे हैं. प्रतिभाहीन लोगों में प्रयोग का साहस नहीं होता, दोहराव की चालकी होती है और यह व्यक्ति करे या एक इंडस्ट्री, ज्यादा दिन नहीं चलती. अपने आप को दोहराना विकास नहीं है.
तकनिकी सरलता और नयी प्रतिभाओं की गर्मी से हिंदी का ये (जड़ सिनेमा-समय) मोम की तरह पिघल जाएगा क्योंकि एक समानांतर फिल्म उद्योग खड़ा हो रहा है जिसमे कवि, वैज्ञानिक, कलाकार, समाजसेवी और सुबुद्ध लोग सक्रिय हो रहे हैं.
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दादा साहेब फाल्के ने कहा था कि 'पढ़े लिखे लोग फिल्म इंडस्ट्री में आयें.' इसका मतलब डिग्रीधारी नहीं था.
आजकल प्राइवेट फिल्म टीवी संस्थानों से ढेर सारे पैसो के एवज में खूब डिग्रियां बांटी जा रही हैं. फिल्म इंडस्ट्री में डिग्रीधारी मूर्खों की बाढ़ आ गई है जो सिनेमा में घुसना चाहते है लेकिन बेसिक सवाल कि सिनेमा क्या है नहीं जानते, जो सह निर्देशन या निर्देशन करना चाहते है लेकिन निर्देशन क्या है इसका जवाब नहीं है उनके पास, जो एक्टर बनना चाहते हैं लेकिन ठीक से अभिनय शब्द नहीं लिख सकते या नहीं जानते की अभिनय क्या है, वे सभी युवा भले ही किसी भी महान प्राइवेट या सरकारी फिल्म स्कूल से डिग्री लेकर निकले हों, कृपया! कृपया! कृपया ! मुझसे संपर्क न किया करें, क्योंकि मै मूर्ख भक्षक हूँ. मूर्खों को खा तो जाता हूँ लेकिन थोड़ी बदहजमी हो जाती है. मुह का जायका ख़राब हो जाता है. इतने बेसिर पैर के मूर्ख मुझे पसंद नहीं.
विनय के साथ -
अनुपम
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