निर्देशक की डायरी १२
मेरे ड्रीम प्रोजेक्ट 'भोर' द अर्ली मॉर्निंग के लिए लक्ष्मी माता के दरवाजे खुले...
'भोर' की कहानी सचमुच सपने में ही देखी थी.
सपना-- 'मै पंडित हरिप्रसाद चौरसिया की एक कहानी पढ़ रहा हूँ, एक जोतिहर किसान की कहानी जिसके प्रेम और प्रयासों ने एक गाँव को बदल दिया. यह किसी पत्रिका में प्रकाशित है.' जागने के बाद मेरी नजर मेरे बिस्तर पर बैठे के मित्र पर पड़ी. शायद मै ज्यादा देर सो गया था. वह चिंतित सा बगल में बैठा था. यह वह समय था जब फिल्म पर अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था और कहानी ढूंढ़ रहा था. मैंने दोस्त से पूछा - क्या हरिप्रसाद चौरसिया कहानी लिखते हैं?
क्या बक रहे हो, वे बांसुरी बजाते हैं - दोस्त ने कहा. वह मेरे देर तक सोने से चिढ़ा हुआ था.
तो ठीक है, ये कहानी मेरी है - मैंने कहा.
कौन सी कहानी?
'वही जो मैंने सपने में पढ़ी. '
आँख खोले बिना मैंने उसको पूरी कहानी सुनाई और उसे हमने कागज़ पर लिख लिया. आठ महीने तक हम दोनों बिहार और यू पी के गांवों में घूमकर सभी तरह की लोक कथाओं और गीतों को संकलित करते रहे और कई वर्ष के प्रयास से यह स्क्रिप्ट तैयार हुई. बीच में एक दुर्घटना भी हुई - गीतों, कहानियों के टेप और डायरियां, फाइलें लेकर हम अपनी पहली बम्बई यात्रा पर चले तो किसी चोर महाशय ने मोटा माल समझकर अटैची उड़ा ली. हम वापस हो गए. लेकिन हारे नहीं. सिर्फ दो महीने में हमने फिर से लगभग सबकुछ वापस जुटा लिया क्योंकि अब हम स्थानों को जानते थे.
मैंने एक बार पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी को फोन किया और कहा की सपने में पढ़ी उनकी कहानी पर फिल्म बना रहा हूँ. काफी मनोरंजक बातचीत हुई. मैंने कहानी के लिए उन्हें मेहनताना भी देने की पेशकश की. जाहिर है संगीत में उनका योगदान रहेगा.
कदम बढाने से रास्ते खुलते हैं, सुना था, आज देखा. कई बार हम दरवाजे को कई साल तक एक ही तरीके से खोलते रहते हैं और वह नहीं खुलता. तरीका बदलते ही बात बन जाती है. पिछले ११ साल के बम्बई प्रवास में मैंने ४ स्क्रिप्ट तैयार किया. एकदम परफेक्ट तरीके से और प्रोड्यूसर खोजता रहा. कल दोपहर में पहली बार फिनान्सर के लिए आवाज लगाईं और आज दोपहर तक मेरे पास फिनांस आ गया. इसमें मेरे लिए कोई चमत्कार नहीं है, यह मेरी यात्रा के इस पड़ाव का सीधा रिजल्ट है.
इस साल के अंत तक किसान जीवन के इस महाकाव्यात्मक फिल्म को मै फ्लोर पर ला दूंगा. इसे मै हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ बनाऊंगा. हिंदी, इंग्लिश और भोजपुरी तीन भाषाओं में एक ही थीम पर इस फिल्म को लिखा गया है. गहन रिसर्च और न जाने कितने मित्रों और आम लोगों का कंट्रीब्यूशन है. कबीर और मुल्ला दाउद की सरजमीं को सिल्वर स्क्रीन पर उजागर कर देना ही इस फिल्म का उद्देश्य है. मेरे खयाल से इस तरह के काम को अंजाम देने के लिए १० साल की मेहनत को कुछ ज्यादा नहीं कहा जायेगा? यह इसलिए कह रहा हूँ कि लिखने को कुछ लोग आसान काम समझते हैं, अगर ऐसा ही होता तो हर जेनरेशन में दस बीस पंडित मुखराम शर्मा और सचिन भौमिक होते या कालिदास और निराला. लक्ष्मी के बेटे अपनी चवन्नी अठन्नी निकालने में भी उसकी पूरी कीमत वसूलना चाहते हैं जबकि हम सरस्वती के बेटे वर्षों की मेहनत से हासिल अमूल्य ज्ञान को भी लगभग मुफ्त में दे देते हैं.
न दे तो अभिशप्त ब्रह्मराक्षस बन जायेंगे.
ज्ञान दान महादान! जय हो माई सरस्वती!
थैंक्स टू फेसबुक !
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