निर्देशक की डायरी - 8
कवि सुदामा पाण्डेय धूमिल
साथ के दशक के सबसे प्रभावी कवि धूमिल को किसी आलोचक ने नहीं,सड़क, चौराहों के उनके यारों, दिलदारों ने समझा, अपनाया और सर माथे बिठाया. धूमिल की आलोचना इतिहास की विवशता है,मजबूरी है. धूमिल जिन्दगी भर आलोचकों के सर पर पेशाब करते रहे.
आज आम आदमी के सामने सरकार जिस तरह मेमना हो गई है और लगता है, लोकपाल बिल लागू हो जायेगा ; हिंदी विभाग धूमिल को कोर्स में शामिल करने को मजबूर हो गया वरना गली की गाली- गलौज की भासा में सत्य उकेरने वाले इस नव-कबीर को संस्कृतनिष्ठ भासा और छिन्न भावों के शुद्धतावादी गढ़ में कौन पंक्ति देता?
हम दायें हाथ की नैतिकता से
हम दायें हाथ की नैतिकता से
इस कदर मजबूर हैं कि तमाम उम्र गुजर जाती है
मगर गांड़ हमेशा बायाँ हाथ ही धोता है.'
जो आम आदमी के सवालों को उठाये उसे सत्ता भी विरोधी पक्ष का मानती है और विरोधी भी. धूमिल जो कविता को एक अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हैं, कविता के बारे में कहते हैं -
'कविता घेराव में
अकेले आदमी का आत्मालाप है.'
और कुछ इस तरह के आत्मालाप करते है कवि धूमिल -
"क्या आजादी
उन तीन थके रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कुछ खास मतलब होता है !"
धूमिल ( संसद से सड़क तक ) में ये सवाल पूछ रहे हैं और खुद ही जवाब भी दे रहे हैं किसी दूसरी कविता में -
"और जनतंत्र एक छोटे से बच्चे के
हाथ की जूजी है."
अष्टेकर ने धूमिल की कविताओं पर शोध करते हुए इस जूजी शब्द पर विशेष शोध किया और ढूंढ़ निकला कि जूजी लिंग के बाल्यावस्था को कहते हैं. बच्चे जब कपडा पहनना नहीं चाहते, दो, तीन साल की उम्र, और अपने लिंग के साथ खेलते है; वस्तुतः लिंग कहना अन्याय है. नूनी, जूजी, लिंग यानी किड, बेबी, जवान. तो तीन चार साल के बच्चे के जेनीटल पार्ट को जूजी कहते हैं. और धूमिल कहते है की इसी को जनतंत्र कहते है. आजादी के दश वर्ष के भीतर ही जनतंत्र भ्रष्टतंत्र में बदल चुका था. इस निराशा और आक्रोश के स्वरों से धूमिल की कवितायेँ बनी हैं. उनमे आम आदमी के लहू की ऊष्मा है --
अष्टेकर ने धूमिल की कविताओं पर शोध करते हुए इस जूजी शब्द पर विशेष शोध किया और ढूंढ़ निकला कि जूजी लिंग के बाल्यावस्था को कहते हैं. बच्चे जब कपडा पहनना नहीं चाहते, दो, तीन साल की उम्र, और अपने लिंग के साथ खेलते है; वस्तुतः लिंग कहना अन्याय है. नूनी, जूजी, लिंग यानी किड, बेबी, जवान. तो तीन चार साल के बच्चे के जेनीटल पार्ट को जूजी कहते हैं. और धूमिल कहते है की इसी को जनतंत्र कहते है. आजादी के दश वर्ष के भीतर ही जनतंत्र भ्रष्टतंत्र में बदल चुका था. इस निराशा और आक्रोश के स्वरों से धूमिल की कवितायेँ बनी हैं. उनमे आम आदमी के लहू की ऊष्मा है --
"एक आदमी आटा गूंथता है
दूसरा बेलता है
एक तीसरा है जो न पकाता है न बेलता है
बस रोटी से खेलता है
मै पूछता हूँ - ये तीसरा आदमी कौन है ?
मेरे देश की संसद मौन है !"
धूमिल ने हिंदी भासा के शुद्धतावाद पर आम बोलचाल की भाषा की सादगी से हमला बोल दिया.
धूमिल को भासा के भदेस का कवि भी कहा जाता है. हाँ, सुदामा पाण्डेय धूमिल ने गली, चौराहों की भासा के बारूदी प्रहार से हिंदी की अकादमिक एरिया में एक बड़ा भ्रंश कर दिया और उसकी सांसों में संजीवनी भर दी ! मेरा नमन बनारस के नव कबीर को.
2 टिप्पणियां:
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
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