शनिवार, 20 अगस्त 2011

गम रोजगार के ...

इस दौर में चन्द्र है
सविता है,
मानो या मत मानो
पोस्टर ही कविता है. ( मुक्तिबोध ) 
(मै मुक्तिबोध से सहमत हूँ और सोसिअल नेटवर्क साइट्स या ब्लॉग मेरे लिए वे पेड़ और दीवारें है जहाँ मै अपने विचारों के लाल नीले पोस्टर चिपकाता हूँ. यह कविता 'गम रोजगार के' १९८९ में लिखी गई थी और कई बार सुनी सुनाई गई और अख़बारों,पत्रों में प्रकाशित हुई. आज समीचीन लगी. लीजिये . अब जाम आपके हाथ में है.)

गम रोजगार के 
चेहरों के समुद्र में 
हर चेहरे में समुद्र जितनी लहरें !

आजकल 
एक स्वर समान है युवा कंठों में ; किस
खूंटे में है दाना 
किस गुड़बी में पानी 

किस शहर में एक नौकर
 की जगह 
खाली ?

बचपन में
पिता के कन्धों पर 
बैठ
घूमा करते थे 
गाँव, बधार  ;

कब उतरेगा 
पितृ -कन्धों से बोझ 
कब

मिलेगी मुक्ति 
पैतृक अन्न से

किस डाल बनेगा 
घोसला 

कौन सी लहर नाव साबित होगी ?

चेहरों के समुद्र
में
हर चेहरे में 
समुद्र जितनी लहरें ...!

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