निर्देशक की डायरी २
जिस पहले नाटक में मैंने एक अभिनेता के तौर पर पार्टिसिपेट किया था उसे मेरे भैया देव जी ने लिखा था. नाटक का नाम था 'प्राण जाये पर वचन न जाये' . तब मै बारह - तेरह साल का रहा होऊंगा. मैंने उसमे एक अच्छे राजा का रोल किया था जो अपनी अच्छाई के लिए कुर्बानियां देता है और दर दर की ठोकरें खाता है. मेरे एक दोस्त ने बुरे राजा का रोल किया था. एक और साथी ने विपत्ति का रोल किया था. नाटक सफल था. इसके बारे में विस्तार से लिखूंगा.
फ़िलहाल एक जरूरी फिल्म लिख रहा हूँ.
जब डेडलाइन तय कर के मै कुछ लिखता हूँ तो टीवी, सिनेमा, नेट, फोन, दोस्त यार, प्यार व्यार सबसे जुदा होता हूँ. इसी माटी पानी से बनाये अपने सबसे प्यारे मित्रों यानि चरित्रों के साथ दिन रात रहता हूँ. बहुत खडूस टाइप दीखता और होता हूँ क्योंकि इसी संसार की प्रतिलिपि एक दूसरा संसार रच रहा होता हूँ.
कविर्मनीषी परिभू स्वयंभू . सिनेमा इस द वर्क ऑफ़ ओउतर. इन सब बातों की सविस्तार व्याख्या करूँगा. मगर तीस जुलाई तक एक नया संसार, एक नयी फिल्म मुझे कागज पर बना देना है. तो तबतक मै कम दिखूंगा और कम लिखूंगा.
निर्देशक की डायरी लिखने का समय निकालने की कोशिश करूँगा.
शुभकामनायें.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें