मनोज बाजपेयी ने अपना एक आलेख मुझे पोस्ट किया था जिसमें कुछ उद्धरणों ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया. उन्होंने लिखा था कि नसीर भाई कहते है कि सिनेमा सिर्फ हेयर स्टाइल बदल सकता है बाकी कुछ नहीं. अगर ऐसा ही है तो एक सवाल पूछना चाहूँगा कि नसीर भाई ने और मनोज जी ने कितनी बार हेयर स्टाइल बदलवाया है? वैसे तो इस तरह के आधिकारिक बयान का ये अधिकार नहीं रखते क्योकि सिनेमा इनकी विधा नहीं है, ये सिनेमा विधा के एक औजार हैं. फिल्म पर इस तरह कि टिपण्णी का अधिकार निर्माता, निर्देशक या फिल्म थिंकर को ही होता है. लेकिन समय समय पर अभिनेता लोग अपनी कुंठा व्यक्त करते रहते हैं. कभी धर्मेन्द्र ने भी कहा था कि मै नहीं समझता कि अनुपमा देखकर किसी डॉक्टर के चरित्र में कोई परिवर्तन हुआ होगा?
फिल्म में अभिनेता की भूमिका पर बात करेंगे लेकिन जरा ठहरकर इन अभिनेताओं के मनोविज्ञान को समझा जाये.
नसीर ने सार्थक फिल्मो में काम किया है . सार्थक सिनेमा से समाज परिवर्तन की जो उम्मीद उन्होंने की होगी शायद उसके नहीं पूरा होने की झुंझलाहट में वे ऐसी बात कह गए! नसीर भाई बम्बई देव आनंद बनने के लिए आये थे; ये उन्होंने अपने एक लम्बे साक्षात्कार में खुलासा किया है. शायद संयोग से नया सिनेमा के अदाकार बन गए. मनोज जी भी सभवतः अमिताभ बच्चन बनने आये होंगे मगर अबतक ऐसा कुछ नहीं हो पाया. वस्तुतः इस तरह के कलाकार कहीं बीच में खड़े नजर आते हैं. कुछ निर्देशक भी सार्थक सिनेमा को ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल करते हैं और मौका मिलते ही मुख्यधारा की निरर्थक फिल्मो में गर्क हो जाते हैं. लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है की जो अपनी फिल्मो और स्टारडम से हेयर स्टाइल बदलवाने की क्षमता रखते हैं वे फिल्मों को समाज परिवर्तन का माध्यम मानते है. थोड़े ही समय पहले गजनी से आमिर खान ने हेयर स्टाइल का करिश्मा दिखाया था.
मनोज जी ने एक और उद्धरण रखा है -" शत्रुघ्न सिन्हा कहते है की फिल्मों में सिर्फ एक प्रतिशत लोगों को सफलता मिलती है".
मेरे ख्याल से एक अभिनेता के लिए फिल्म में सफलता का मतलब है सितारा बन जाना.स्टार बनते ही अभिनेता का व्यक्तित्व महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि सामान्यतया फिल्म में अभिनेता का महत्त्व प्रोप्स से थोड़ा ज्यादा माना जा सकता है. फिल्म अभिनेता का नहीं निर्देशक का माध्यम है. अमरीश पूरी के शब्दों में फिल्म में एक्टर कठपुतली से ज्यादा महत्त्व नहीं रखता. रूस के फ़िल्मकार आंद्रेई तारकोवस्की से किसी ने पूछा की आप अपने अभिनेताओं के साथ कैसे काम करते है? उन्होंने कहा कि मै उनके साथ काम नहीं करता, उन्हें पगार देता हूँ .
वस्तुतः हिंदी में सार्थक सिनेमा किसी आंतरिक प्रेरणा से नहीं शुरू हुआ, यह सरकारी सहयोग की सुविधा के लालच में शुरू हुआ नहीं तो १९७० की जगह इसे १९५० तक शुरू हो जाना चाहिए था. इसीलिए यह बुरी मौत भी मरा. नसीर भाई के शब्दों में "मेरी सबसे बड़ी नाराजगी इस बात को लेकर है की समान्तर सिनेमा इतनी लज्जाजनक मौत मरा है .इसके तथाकथित कर्णधारों की लुंज-पुंज प्रतिबद्धता मुझे और भी विचलित करती है. आखिर सार्थक सिनेमा को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बतानेवाले अक्सर आसानी से मौका मिलते ही अन्य लुभावने लेकिन अर्थहीन विकल्पों की तरफ आकर्षित क्यों हो जाते हैं ?"
आज भी सार्थक सिनेमा फिल्म संसार में पैठ बनाने का ही माध्यम बना हुआ है. इतनी बड़ी भाषा में न जाने कितने सारे दर्शक वर्ग हैं. हमारे अग्रणी फ़िल्मकार, कलाकार, चिन्तक जन अगर सुनियोजित ढंग से पहल करें तो बिखरी हुई कड़ियों को जोड़कर एक सार्थक सिलसिला शुरू हो सकता है. वास्तव में हमें अपनी जड़ें तलाशने के लिए फ़्रांस जाने कि जरूरत नहीं है, हमारे अपने सिनेमा में ही हमारी स्टाइल मिलेगी.
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