भारत की ही अन्य भाषाओ की तुलना में हिंदी के साहित्यकार सिनेमा में शत प्रतिशत असफल रहे हैं। वृन्दावन लाल वर्मा, प्रेमचंद , अमृतलाल नागर , अश्क आदि सूची काफी लम्बी हो जायेगी। ( देखें - भारतीय सिनेमा का इतिहास - मनमोहन चड्ढा।) आंशिक सफलता कुछ लोगों को मिली भी तो संवाद लेखक के रूप में जिसे फ़िल्मी लोग मुंशी कहते हैं। सुदर्शन, कमलेश्वर , राही मासूम रजा आदि सफल मुंशियों के उदाहरण है।
साहित्यकार समझते हैं कि फिल्म कहानी ही तो है!!
जबकि कहानी का फिल्म में उतना भी महत्व नहीं है जितना अभिनेता का या ध्वनि का।
जबकि कहानी का फिल्म में उतना भी महत्व नहीं है जितना अभिनेता का या ध्वनि का।
फिल्म लेखक की नहीं निर्देशक की विधा है जैसे नाच नर्तक की और नाटक अभिनेता की विधा है। इस जरा से फर्क को हिंदी के नए लेखक और छात्र आज भी समझने से मुह चुरा रहे हैं क्योंकि इनको समझाने वाली किताबें हिंदी में नहीं के बराबर है और न ही कोई हिंदी फिल्म शिक्षण संस्थान है।
किसी भी भाषा के फिल्मकारों और फिल्म पत्रकारों की तुलना में हिंदी के फिल्मकारों और फिल्म पत्रकारों ने फिल्म तकनीक और कला पर कुछ नहीं लिखा है। फ्रेंच, बांग्ला, उड़िया , जर्मन, रुसी आदि भाषाओ में निर्देशकों और साहित्यकारों ने भी बेहतर लेखन किया है। बर्गमैन, गोदार , सत्यजीत रे, तारकोवस्की, मैक्सिम गोर्की इसके अन्यतम उदाहरण हैं।
फिल्म पत्रकारों का कर्तब्य बनता है कि वे फिल्म पर्सनॉल्टीयों की प्रशस्ति से थोड़ा समय निकालकर हिंदी में फिल्म निर्देशन , फिल्म कला, फिल्म संगीत , फिल्म छायांकन , फिल्म ग्रामर आदि पर भी किताबें जनें !
फ्रेंच में आंद्रे बजां और बांग्ला में चिदानंद दासगुप्ता जैसे पत्रकार फिल्म लेखन में अपने गंभीर लेखन के लिए जगत विख्यात हैं।
फ्रेंच में आंद्रे बजां और बांग्ला में चिदानंद दासगुप्ता जैसे पत्रकार फिल्म लेखन में अपने गंभीर लेखन के लिए जगत विख्यात हैं।
इस कोटि का एक भी पत्रकार आप हिंदी में बताएं तो प्रसन्नता होगी।
अनुपम
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