सुशील चतुर्वेदी की कविताएँ उनके फेसबुक नोट्स से उठाकर बिना पूछे अपने ब्लॉग पर छाप रहा हूँ. लीजिये आप भी प्रेम को तरोताजा कर लीजिये.
प्रेम
सुशील चतुर्वेदीप्रेम -१
प्रेम पनपता जाता है
जब प्रेम को पनपना होता है!
प्रेम को पनापने की
आवश्यकता नही होती,
प्रेम के बीज
विद्यमान होते हैं
सदैव, प्रत्येक जगह,
अंकुरित हो जाते हैं
एक और बीज के साथ
जब परिस्थितियाँ अनुकूल होती हैं
प्रेम के!
प्रेम-२
प्रेम के पुष्प
प्रायः अपने खिलने के संकेत
अपने रूप-रंग से नही
अपनी सुगंध से देते हैं,
प्रायः
वो दिखते भी हैं
और अदृश्य भी रहते हैं!
प्रेम प्रायः गूंगे के गुड़,
ज्योतिषी के ज्ञान
और ज्वालामुखी के लावे सा होता है!
प्रेम-3
प्रेम के डेरे नही होते,
प्रेम
प्रायः अपरिभाषित,अनिर्वाचित
और अननुभूत रह जाता है
क्यूँकि प्रेम अपरूप होता है!
प्रेम,
प्रेम के साथ होता है,
प्रेम के साथ जगता है,
प्रेम के साथ सोता है,
प्रेम के साथ रोता है,
प्रेम के साथ खोता है!
प्रेम-4
प्रेम पलता है
माँ के कोख में संतति की तरह,
प्रेम पलता है
गहरे समुद्र में
सीप में मोती की तरह,
प्रेम पलता है मेरी आँखों में
आँखों की ज्योति की तरह,
और आकार लेता है
होने-ना-होने के बीच
भोर के सपने की तरह!
प्रेम चलता रहता है दिन-रात
नक्षत्रों-ग्रहों की चाल,
प्रेम की ही खोज में!
प्रेम-५
प्रेम गूँजता है
मंदिरों में घंटियों, शंखों और मन्त्रों में,
प्रेम तिरता है
अमृत-सरोवर में शबद के रूप में,
प्रेम प्रायः बन जाता है
मनुहार, मन्नत, आशीर्वाद, दुआ
दिव्यानुभूति, किलकारी, ऊर्जा....!
प्रेम कभी नही बनता
अ-प्रेम,
प्रेम की कोई माया नही,
प्रेम के पास विघटित होने की सामर्थ्य
नही होती!
प्रेम-६
प्रेम
बीतता है
जैसे चन्द्रमा छीजता है,
पर प्रेम रहता है सदैव
इस-पार या उस-पार के जगत में,
प्रेम धूनी की तरह सुलगता है,
चिता की तरह जलता है,
और चटकता है
यज्ञाहुति में हवन-कुण्ड में
पवित्र-अग्नि में लकड़ियों की तरह!
प्रेम की कोई कसौटी नही
पर प्रेम निखरता है, दमकता है
प्रेमाग्नि में तप कर!
प्रेम-७
प्रेम बिखर जाता है
हवाओं में सुगंध की तरह,
मिल जाता है गंगा-जल में
वनौषधि की तरह,
और बहता जाता है तरते-तारते,
प्रेम चमक जाता है
महाश्मशान में दिव्य-प्रकाश की तरह,
और विलीन हो जाता है
क्षितिज में धूम-केतु बन
बादलों के साथ बरसने,
पुनः पनपने के लिए,
प्रेम मर जाता है एक दिन
किसी अमर-पक्षी की तरह!
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