गुरुवार, 9 जून 2011

महान मकबूल फ़िदा हुसैन को मेरी श्रद्द्धान्जली ! मेरा नमन !

महान मकबूल फ़िदा हुसैन को मेरी श्रद्द्धान्जली ! मेरा नमन !

हुसैन साहब नहीं रहे . कुछ लिखना चाहिए!
 क्या लिखूं ?
 श्रधांजलि दूँ  ?
 शोक मनाऊं ?
 अपनी उम्र के आखिरी दशक में वे अपने देश, अपनी माटी में लौटना चाहते थे. वे मर गए या उन्हें मार दिया गया ? इसकी सुनवाई किस कोर्ट में होगी ?
 मक़बूल फ़िदा हुसैन जैसा चोटी का कलाकार, जिसने विश्व कला के आकाश पर भारत का सर सबसे ऊपर उठा दिया ! जो भारत के लिए जिया और भारत के लिए, अपने वतन के लिए तड़प कर मर गया.

वे मर गए या उन्हें मारा गया?
कुछ चवन्नी छाप अपराधियों ने उनके चित्रों के मूल्यांकन का आत्मविश्वास कहाँ से पाया ? इसकी जाँच किस न्यायलय में होगी ?
 भारतीय कला का मर्म समझने के लिए सिर्फ देवी देवताओं के प्रति अंधी श्रद्धा ही काफी है?
 फिर विश्व विद्यालयों में प्राचीन इतिहास और कला के इतने बड़े बड़े डिपार्टमेंट किस लिए खोल रक्खे गए हैं ? 

मंदिरों के बाहर की दीवारों पर असीम श्रद्धा से उकेरे गए सभी देवी देवताओं के काम चित्रों को जिसने भी ध्यान से देखा है, वही मंदिर में धुले मन से जा सकता है और भारत के मकबूल फ़िदा हुसैन ऐसे ही थे. सभी चीजों का मर्म जानते थे. सीता पर सिरीज बनाते हुए उनके लिए सारी दुनिया ही निर्दोष हो गई ! उन्होंने हमेशा के लिए चप्पलें उतार दीं ! और अजीब बात है कि सीता पर सिरीज भी उन्होंने लन्दन में ही बनाया था. और लन्दन में ही उन्होंने अंतिम साँस ली !

 किसी कुशल बाजीगर कि तरह जिन्दगी की डोर पर सधे पाँव खड़े  हमारे हुसैन साहब को एक जाति ने दूसरी जाति की तरफ धक्का मारा  और वह भी उनके चौथेपन में. चालीस साल के हुसैन से टकरा के देखा होता तो पता चलता की हुसैन का मतलब क्या होता है. और उस उम्र में भी वे जवाब दे सकते थे. लेकिन समय के मूल्य को समझते हुए उन्होंने अपना  काम जारी रखना जरूरी समझा इन लफंगों को जवाब देने की जगह !


 सरस्वती पर बनाये जिस चित्र का मूल्यांकन करने जो लोग गए थे क्या वे सरस्वती के हुसैन से बड़े बेटे थे ? वे किस कला में पारंगत थे? वे कलाकार थे या कला समीक्षक ? क्या किसी भी प्राचीन इतिहास और  कला के पारखी से ऐसी बेहूदा हरक़त की उम्मीद की जा सकती है की गैलरी तोड़ दे ?

 हुसैन से ज्यादा जमीनी होने का दावा  सिर्फ जातिगत आधार पर करने की गुंडागर्दी करने वाला सिस्टम आज बदरंग हो गया है.  यह बदरंग हमने किया है जबकि मकबूल फ़िदा हुसैन ने जबसे  ब्रश उठाया है अपने देश को असंख्य रंगों में रंगा है. हम बदकिस्मत हैं  कि कला के अनोखे व्यक्तित्व को, सरस्वती के सच्चे साधक को, अपने एक विशिष्ट 'युवा - बुजुर्ग' को भ्रष्ट व्यवस्था के हवाले छोड़ दिया. सरस्वती तो उनकी  तूलिका में ही  रहती थीं. 
मुझे लगता है कि उनसे व्यक्तिगत विद्वेष का हिसाब किया गया. हर राम के साथ एक रावण तो होता ही है. हर कहानी में एक खलनायक तो होता ही है. महान मकबूल फ़िदा हुसैन को अपने जीवन के अंतिम दशक में अपना देश छोड़ने, क़तर कि नागरिकता लेने, लन्दन में अपने देश , अपने रंग, अपने सब्जेक्ट के लिए घुटकर मरने के लिए मजबूर करने वाला वह महान खलनायक समाज तंत्र, राजनीति, व्यवस्था और हम सब दोषी है. 
अगर वे अपने देश लौट आते तो कम  से कम  १२० साल की उम्र जीते ! वैसे तो उनकी उम्र का क्या हिसाब ! वे अमर हैं ! 
मेरी श्रद्द्धान्जली ! मेरा नमन !

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