मै कवि हूँ
द्रष्टा
उन्मेष्टा
मै सच लिखता हूँ
लिख लिख कर सच झूठा करता जाता हूँ
तू काव्य
सदा वेष्टित यथार्थ
तू चिर नूतन
तू छलता है
पर हर छल में
तू और अनूठा होता जाता है .
अज्ञेय की कविता "ओ निः संग ममेतर से", याद से उकेर रहा हूँ, गलत भी हो सकता हूँ . इन पंक्तियों को वर्षों मंत्र की तरह दोहराया है. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय से मैंने करूणा और प्रेम का स्वर सीखा है. पता नहीं कितना क्या सीखा है मगर खूब गाया है और मुक्तिबोध से सीखा है सत्य और अनुसन्धान, वस्तुतः मुक्तिबोध को जपा है !
दुनिया न कचरे का ढेर कि जिसपर
दानों को चुगने चढ़ा
कोई भी कुक्कुट
कोई भी मुर्गा
बाँग दे उठे जोरदार
बन जाये मसीहा !
मुक्तिबोध की कविता "अँधेरे में" से .
गजानन माधव मुक्तिबोध और सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय इन दो महा कवियों ने अपने नाम के अनुकूल ही प्रदीर्घ साहित्य सृजन किया और हिन्दी भाषा को विश्व स्तर की भाषा बना दिया. आज कृतज्ञता वश दोनों महान सर्जकों को नमन!
डॉक्टर अनुपम ओझा