मंगलवार, 28 सितंबर 2010
vichar
फेसबुक से मुझे पता चला की मेरी पुस्तक भारतीय सिने-सिद्धांत को हजारों लोगों ने पढ़ा और लाभ उठाया है. उसे लिखने में मुझे सात साल लगे और प्रकाशित होने में तीन साल, उसके बाद सात साल और गुजर चुके हैं और मंशा रहते हुये भी मै दूसरी किताब नहीं दे सका. सारा वक्त रोजी रोटी में चला जा रहा है. मेरी जरूरतें बहुत कम हैं जो किसी वजीफा से भी पूरी हो सकती है.फ़िलहाल अगर कहीं पढ़ाने का काम भी मिले तो मैं हिंदी की जोरदार सेवा कर पाउँगा. उम्र निकली जा रही है.किसी बड़े दल या कद की छाया भी नहीं है.टीवी, सिनेमा के काम में समय और मन अपना नहीं रहता. दोस्तो, बंधुजनों, आदरणीयों! क्या करूँ?
बुधवार, 22 सितंबर 2010
Bol - Vachan / बोल - वचन
अच्छा साहित्य भाषा को समृद्ध करता है और अच्छा इन्सान समाज को समृद्ध करता है लेकिन साहित्यकार, फ़िल्मकार या कलाकार अच्छे इन्सान भी हों तो मानवता को समृद्ध करते हैं!
शनिवार, 18 सितंबर 2010
film
अपनी प्राचीनता में या पारंपरिक कलाओं से अपने सम्बन्ध में फिल्म एक राग की तरह है और नवीनता ये है कि हर फिल्म की स्वर प्रणाली नई और भिन्न होती है .फिल्म एक राग की तरह है लेकिन हमेशा या हर बार इसका अविष्कार करना पड़ता है .
रविवार, 12 सितंबर 2010
Manoj sochate hain kyonki dimaag sahi sochane ke liye bana hai...मनोज सोचते हैं क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है ..
कॉमन मैन - एक
मनोज सोचते हैं क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है ..मनोज सोचते हैं
क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है
मनोज कोई नेता नहीं हैं
अभिनेता नहीं हैं
पीले नहीं है
हरे नहीं हैं
नोट की गड्डियाँ मुह में भरे नहीं हैं
आम इन्सान हैं
मनोज मुरारी मोहनियावाले
छोटे है
सांवले हैं बावले हैं-
गाड़ी चलाते है
साहबों की गाड़ियों के लिए ड्राइवर सप्लाई करते हैं
खाली समय में पेंटिंग करते हैं
चित्र बनाते हैं
(बम्बई की कालोनियों के छोटे उद्यानों (पार्क) में बच्चों की कल्पनाओं को मनोज ने ही दीवारों, फर्श और सीवरों पर साकार किया है )
और दुनिया के चित्र को चितवते हैं --
'अन्टार्क्टिका में मिथेन की बारिश हो रही है
ध्रुव के अँधेरे में अँधेरी जितने बड़े - बड़े बर्फ के पहाड़ टूट कर समुद्र में पिघल रहे हैं '
मनोज की पैनी नजर उस सुदूर भविष्य पर है जहाँ सब जल रहे हैं-
बाबा कहते थे सब भसम (भष्म ) हो जायेगा,
अगर दो मीटर पानी बढ़ जाये तो पृथ्वी का क्या होगा ?
सब डूब जायेगा ..रिलायंस भी और हुसैन की गैलरी भी ..
मनोज कोई उद्योगपति नहीं हैं
एक अदना इंसान हैं
आप व्यंग्य से कह सकते हैं की महान हैं ! लेकिन सवाल ये है की दिमाग सही सोचने के
लिए ही बना है न की नजर बंद कर देने के लिए ?
मनोज बी.ए., एम्. ए . नहीं हैं
पी. एच. डी. नहीं हैं, चौथी तक पढ़े है
लेकिन
आधारभूत पढाई की नसों में घोले जा रहे धर्म के विष से सांवले से बैगनी हो गए है-
"मुझे तो याद भी नहीं की जवान - जहान होने तक हमें धर्म और जाति का कुछ पता चला था ..
और यहाँ महानगर में क्यों कराई जाति है बच्चों से धार्मिक प्रार्थनाएं ? "
कभी आप मिलिए मनोज से और कहिये की आप अपने वे अनुभव सुनाएँ जिनको कवि ने भी नहीं दर्ज किया !
मनोज पर्यावरण को बचाना चाहते हैं वह चाहे बच्चों के सुकोमल मन का हो या पृथ्वी का !
मैंने मनोज को सात बंगला के उस नीम के पुराने पेड़ के बारे में बताया जिसकी आजकल चल पड़ी है ,
उसे खूब विज्ञापन मिल रहे हैं
वह सड़क के ठीक किनारे है हॉट प्वाइंट पर
सब नजरें उसकी डालियों से टकराती हैं
डालियों पर दुनिया भर के विज्ञापन लटके हैं
तने पर भी कील ठोककर दर्ज किये गए हैं घर बैठे हजारों कमाने के सुअवसर, दर्द और नपुंसकता के समाधान..
"विज्ञापन के एवज में एजेंसियां और विज्ञापनदाता नीम को खाद पानी देते होंगे ?
सूखी डालियाँ छंटवा देते होंगे ?
अडोस - पड़ोस दंतुवन बंटवा देते होंगे ? इसीलिये और पेड़ों की तुलना में उसकी चल पड़ी है! है न ?
मनोज इसी तरह के काव्यात्मक सवाल पूछते हैं और गंभीर हो जाते हैं -
सरकार इलीगल पेड़ों की छंटाई पर अड़ी है" मनोज तुक मिलाते हैं .
पेड़ कैसे एलीगल होंगे भला ?
वे तो एक आदमी के खड़े होने भर जमीन लेते हैं और सैकड़ो को छाँव देते हैं !
किसान और बाजार के बीच
अब छोटे- मोटे दलाल नहीं रिलायंस है जो केले खरीदकर पका रहा है
खून जलाकर पीले केले खिला रहा है,
खा रहा है हर महीने बिजली के बिल में चार से आठ सौ रुपये ज्यादा
क्या है इसका इरादा ?
क्या पेड़ लगवाएगा ?
ओजोन की मरम्मत करवाएगा ?
पृथ्वी को बचाएगा ?
एजुकेशन का नवीनीकरण करेगा ?
या सिर्फ अपना खाली खोपड़ा ( दिमाग ) भरेगा ?
माफ़ करना भाइयों !
मनोज नेता नहीं है
अभिनेता नहीं हैं
कॉमन मैन हैं,
आम आदमी हैं मगर सोचते हैं क्योकि .......
Manoj sochate hain kyonki dimaag sahi sochane ke liye bana hai...
मनोज सोचते हैं क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है ..
मनोज सोचते हैं
क्योंकि दिमाग सही सोचने के लिए ही बना है
मनोज कोई नेता नहीं हैं
अभिनेता नहीं हैं
पीले नहीं है
हरे नहीं हैं
नोट की गद्दियाँ मुह में भरे नहीं हैं
आम इन्सान हैं
मनोज मुरारी मोहनियावाले
छोटे है
सांवले हैं बावले हैं-
गाड़ी चलाते है
साहबों की गाड़ियों के लिए ड्राइवर सप्लाई करते हैं
खाली समय में पेंटिंग करते हैं
चित्र बनाते हैं
(बम्बई की कालोनियों के छोटे उद्यानों (पार्क) में बच्चों की कल्पनाओं को मनोज ने ही दीवारों, फर्श और सीवरों पर साकार किया है )
और दुनिया के चित्र को चितवते हैं --
"अन्टार्क्टिका में मीथेन की बारिश हो रही है
ध्रुव के अँधेरे में अँधेरी जितने बड़े - बड़े बर्फ के पहाड़ टूट कर समुद्र में पिघल रहे हैं "
मनोज की पैनी नजर उस सुदूर भविष्य पर है जहाँ सब जल रहे हैं
"बाबा कहते थे सब भसम (भष्म ) हो जायेगा,
अगर दो मीटर पानी बढ़ जाये तो पृथ्वी का क्या होगा ?
सब डूब जायेगा ..रिलायंस भी और हुसैन की गैलरी भी .."
मनोज कोई उद्योगपति नहीं हैं
एक अदना इंसान हैं
आप व्यंग्य से कह सकते हैं की महान हैं ! लेकिन सवाल ये है की दिमाग सही सोचने के
लिए ही बना है न की नजर बंद कर देने के लिए ?
मनोज बी.ए., एम्. ए . नहीं हैं
पी. एच. डी. नहीं हैं, चौथी तक पढ़े है
लेकिन
आधारभूत पढाई की नसों में घोले जा रहे धर्म के विष से सांवले से बैगनी हो गए है-
"मुझे तो याद भी नहीं की जवान - जहान होने तक हमें धर्म और जाति का कुछ पता चला था ..
और यहाँ महानगर में क्यों कराई जाति है बच्चों से धार्मिक प्रार्थनाएं ? "
कभी आप मिलिए मनोज से और कहिये की आप अपने वे अनुभव सुनाएँ जिनको कवि ने भी नहीं दर्ज किया !
मनोज पर्यावरण को बचाना चाहते हैं वह चाहे बच्चों के सुकोमल मन का हो या पृथ्वी का .
मैंने मनोज को सात बंगला के उस नीम के पुराने पेड़ के बारे में बताया जिसकी आजकल चल पड़ी है ,
उसे खूब विज्ञापन मिल रहे हैं
वह सड़क के ठीक किनारे है हॉट प्वाइंट पर
सब नजरें उसकी डालियों से टकराती हैं
डालियों पर दुनिया भर के विज्ञापन लटके हैं
तने पर भी कील ठोककर दर्ज किये गए हैं घर बैठे हजारों कमाने के सुअवसर, दर्द और नपुंसकता के समाधान..
"विज्ञापन के एवज में एजेंसियां और विज्ञापनदाता नीम को खाद पानी देते होंगे ?
सूखी डालियाँ छंटवा देते होंगे ?
अडोस - पड़ोस दंतुवन बंटवा देते होंगे ? इसीलिये और पेड़ों की तुलना में उसकी चल पड़ी है! है न ?
मनोज इसी तरह के काव्यात्मक सवाल पूछते हैं और गंभीर हो जाते हैं -
सरकार इलीगल पेड़ों की छंटाई पर अड़ी है" मनोज तुक मिलाते हैं .
पेड़ कैसे एलीगल होंगे भला ?
वे तो एक आदमी के खड़े होने भर जमीन लेते हैं और सैकड़ो को छाँव देते हैं !
किसान और बाजार के बीच
अब छोटे- मोटे दलाल नहीं रिलायंस है जो केले खरीदकर पका रहा है
खून जलाकर पीले केले खिला रहा है,
खा रहा है हर महीने बिजली के बिल में चार से आठ सौ रुपये ज्यादा
क्या है इसका इरादा ?
क्या पेड़ लगवाएगा ?
ओजोन की मरम्मत करवाएगा ?
पृथ्वी को बचाएगा ?
एजुकेशन का नवीनीकरण करेगा ?
या सिर्फ अपना खाली खोपड़ा ( दिमाग ) भरेगा ?
माफ़ करना भाइयों !
मनोज नेता नहीं है
अभिनेता नहीं हैं
कॉमन मैन हैं,
आम आदमी हैं मगर सोचते हैं क्योकि .......
शुक्रवार, 10 सितंबर 2010
Hindi mein Cinema sahitya हिंदी में सिनेमा-साहित्य
हिंदी में सिनेमा-साहित्य
मेरे एक पाठक ने मुझसे पूछा की क्या मेरा सिनेमा से मोहभंग हो गया है?
सिनेमा से मुझे मोह नहीं मोहब्बत है और अब मै इसे इतना जानता हूँ जितना कोई प्रेमी अपनी प्रेयसी को जानता होगा और मै सिनेमा को हिंदी में सहज उपलब्ध करा देना चाहता हूँ.
किसी भी भाषा का पंद्रह प्रतिशत कविता, कहानी, उपन्यास आदि होता है.बाकि के पचासी प्रतिशत में विभिन्न विषयों पर सामग्री होती है लेकिन हिंदी में पंचानबे प्रतिशत रचनात्मक साहित्य है और पाँच प्रतिशत में बाकी विषयों पर कुछ मिल जायेगा. विज्ञान विषयों, तकनीकी विषयों, दर्शन और मनो विज्ञान आदि को छोड़ दें तो भी कला विज्ञान में भी आपको ढंग का कुछ नहीं मिलेगा. चित्रकला, मूर्तिकला, नाटक, सिनेमा, संगीत(शास्त्रीय या लोक नहीं फिल्म संगीत ) आदि के तकनीकी पहलू पर शायद ही कुछ हो. सिनेमा साहित्य के नाम पर आपको सबसे ज्यादा रिव्यू मिलेगा. फिल्म निर्देशन,पटकथा, अभिनय, सिनेमैटोग्राफी, कला निर्देशन, सिनेमा का ग्रामर, फॉर्म, प्रकाश आदि पर कुछ भी नहीं है. जो न के बराबर है वह किसी काम का नहीं है. जो सार्थक है वह पुराना हो चुका है. मनोहरश्याम जोशी के पहल करने के बाद पटकथा पर कुछ किताबें मिल जायेंगी लेकिन वे भी सिर्फ शुरूआती महत्त्व की हैं. भगवती चरण वर्मा ने अपनी एक पटकथा प्रकाशित की थी जिसमें लगभग सौ पृष्ठ सिनेमा के बारे में लिखा है. वह एकमात्र गंभीर काम है जो अब काफी पुराना हो चुका है लेकिन आज भी सार्थक है . सिनेमा का अगर हिन्दीकरण करना है तो सिनेमा साहित्य का भी हिन्दीकरण करना होगा. बंगाल में इसलिए बेहतर सिनेमा उपलब्ध हो सका क्योंकि फिल्मकारों ने सिनेमा बनाने के साथ सिनेमा साहित्य भी लिखा. अपने अनुभव बांटे. हिदी में उपलब्ध सिनेमा साहित्य सिर्फ नैतिकता की पीड़ा से कुंठित पाठकों को 'गुदुराने' के काम आता है. सिनेमा-कर्मियों, प्रेमियों, छात्रों या दर्शकों को दिशा निर्देश देने में इनकी कोई भूमिका नहीं. क्या नहीं लगता की बहुत काम है जो प्रकाशकों और लेखकों के सहयोग के बिना नहीं किया जा सकता ?
१९१० में हैकल की किताब रिडल ऑफ़ यूनिवर्स छपी थी जो उस समय विज्ञान की सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक मानी गई और १९२० में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसका अनुवाद कर दिया था. पिछले सौ से भी ज्यादा साल में विश्व सिनेमा साहित्य एक-एक विषय पर अनेक ग्रंथों से 'चरचरा' रहा है और हम अब भी जज की कुर्सी पर बैठकर अच्छे बुरे का फैसला करने में लगे हैं !
भारतीय सिनेमा पर सबसे अच्छा लेखन गैस्टन रोबर्ज़ ने किया है लेकिन वह भी अंगरेजी में है और सामान्यतया अंगरेजी- भीरु हिंदी पाठक के किसी काम नहीं आता. ऐसे में मैं हर फिल्म प्रेमी लेखक और फिल्म कर्मी से आग्रह करूँगा की कम से कम एक पहलू पर एक सार्थक किताब अनुदित या सृजित कर के इस अभियान को आगे बढ़ाये.
भारतीय सिने- सिद्धांत जब प्रकाशित हुई थी तब हिंदी में सिनेमा पर सिर्फ छः किताबें थीं. अब सौ के करीब है. ये अलग बात है की अधिकतर रिव्यू, संस्मरण या इतिहास से ही सम्बंधित है.जिसमें से अधिकांश फिल्म आलोचना के सिद्द्धान्तों पर खरा नहीं उतरता है.
सत्यजित राय के शब्दों में फिल्म आलोचना का काम दर्शक और सिनेमा के बीच पुल बनाना है. न्याय कर्ता की जगह विश्लेषक की भूमिका ही सही है. विश्लेषण करने के लिए रिव्युअर के पास निर्देशक की नजर होना जरूरी है. हिंदी में ऐसे गिने चुने लेखक हैं.
तीज पर्व, गणेशोत्सव और ईद की शुभकामनायें !
तू नेक मन से टेक घुटने और सर झुका
फिर भी खुदा मिल न सके तब मुझे बता .
वो शिव हो शारदा हो अल्लमह खुदा हो
दिल से उनको सुन, दिल की उन्हें सुना .
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