कहानी
बाँस का पुल
अनुपम ओझा
एक दिन मुझे
उसका एक ई मेल मिला जिसमें पूरी घटना का तफसीलवार वर्णन था।
उस लड़की ने
उसके बाद कभी स्कूटी नहीं चलाया। उसने उसे लाहौरी टोला के अपने मामा के घर में छुपा
दिया। मामा-मामी से बताना ठीक न समझा क्योंकि वे स्कूटी खरीदने के ही खिलाफ थे।
अगले दिन लड़की बीएचयू जाने के लिए निकली जरूर, लेकिन गयी नहीं। वह दीवाने की तरह
काशी की तंग गलियों में भटकती रही। इस दुर्घटना के प्रभाव से उभर पाना आसान नहीं
था। उसने उस बुड्ढे बाबा को बचाने की कोशिश की थी। वह स्कूटी को खड़ा करके उसकी
मदद करने गई थी। पता नहीं क्या सोचकर उस इंसान ने लड़की को भाग जाने का इशारा किया
था और वह भाग गयी थी। क्यों भागी? पिछले रविवार इस बुड्ढे बाबा ने स्कूटी चलाने का अभ्यास करते देखा होगा।
अगर मरने से पहले वे पुलिस को मेरा हुलिया बता गए हों तो मुझे क्या करना चाहिए?
पुलिस में रपट या मामा को बताना या क्या ?
भटकती हुई लड़की
राजघाट पर आ पहुँची थी। रात के ग्यारह बज रहे थे और घाट सुनसान हो चले थे। जाड़े
का मौसम जा रहा था लेकिन इतनी ठंढ थी कि रात के ग्यारह बजे खुले में बैठना कंपन
पैदा कर दे। मौसम, परिवेश और नदी से निस्पृह
लड़की अपनी उदासी में डूबी हुई थी। वह बनारस के आखिरी घाट की आखिरी बेंच पर बैठी
हुई थी।
उसके बाद गठरी
घर थे जिसमें से पहला तोते वाले जुतसी का था। तोतेवाला जुतसी जाग रहा था और लड़की
के जाने का इंतजार कर रहा था। यह अनजानी उदास लड़की यहाँ क्यों बैठी हुई है, यह सवाल उसकी
नींद से अलसाई आँखों में तैर रहा था। तोता भी जाग रहा था और अपने मालिक के भावों
को पढ़ रहा था। लड़की की उदासी उसे भी छू गई थी। उसके मालिक के पास अक्सर दुखी और
उदास लोग आते थे और उम्मीद लेकर जाते थे। लोगों की उदासियाँ दूर करने में वह अपने
मालिक का सहायक था। इतने दिनों में वह भी चेहरे पढ़ने में माहिर हो गया था। जुतसी
के पास आने वालों की चाल देखकर ही तोता तय कर लेता था कि भविष्यफल का कौन सा कार्ड
उसे खींचना है। यह परेशान लड़की उसकी भी नींद खराब कर रही थी।
वह बेंच के
दक्खिनी किनारे से खिसक कर उत्तरी किनारे की तरफ आ गई थी। देर तक साथ मौन रहने पर अनजान लोगों
में भी एक मानसिक संवाद शुरू हो जाता है। कई बार तो अनजाने एक ही गीत गुनगुनाने
लगते हैं। लड़की ने कनखी से जुतसी को देखा।
वह एकटक इसे
ही देख रहा था। उसके चहरे पर एक ऐसी आभा थी जो आत्मीयता का विश्वास दिलाती थी।
लड़की ने उससे आँख मिलाए बिना पूछा, “अगर किसी के हाथों किसी का खून हो जाए तो क्या
करना चाहिए?”
“खून! क्या
गोली मार दिया?” उसने पूछा।
“नहीं।”
“चाकू मारा?”
“नहीं।”
“तो गला दबा
के मारा, जहर दिया, कैसे मारा?”
“मारा नहीं।
वो तो मैं गाडी़ सीख रही थी। सन्डे का दिन था। वो बीच में आ गए।” लड़की ने कहा।
“थांबा। थांबा।
मुलगी!”, जुतसी ने हाथ उठाकर कहा।
अब लड़की के
चौंकने की बारी थी। जुतसी मराठी था। उसके चहरे पर एक फीकी मुस्कान आई और गई।
“क्या उम्र थी
उनकी?”, उसने पूछा।
“यही कोई
अस्सी-पचासी।”
“हूँ।” जुतसी
गर्दन हिलाकर बोला।
“मुझे क्या
करना चाहिए?” लड़की कातर स्वर में बोली।
“तुमने जान
बूझकर मारा?”
“नहीं।”
“तो एक्सीडेंट
कहेंगे न इसे?”
“हाँ वही।”
“कुछ नहीं
करना चाहिए। ऐसे भी एक-दो साल में मर जाते। खुद को माफ कर दो और उनकी आत्मा से
माफी माँग लो और इस बात को एक बुरे सपने की तरह भूल जाओ...”, ज्योतिषी ने लड़की की
पूरी कहानी सुनने के बाद मुस्कुराते हुए कहा, “अगर तुम मुझे न्यायाधीश मान लो तो
मैं तुम्हें माफ करता हूँ और आदेश देता हूँ कि इस भीड़ भरे शहर में कभी स्कूटी मत
चलाओ।”
लड़की लगभग
मुस्कुराई। तोता पिंजरे में नाचने लगा।
उसने पूछा, “ लेकिन
ये गलत है न बाबा?”
“क्यों?”, जुतसी ने रुककर साँस लेते हुए कहा, “पुलिस
के पास जाकर क्या होगा? पुलिस तो अपने ऊपर हुए अत्याचारों का
समाधान नहीं कर पा रही है । न्यायालय एक सुरसा राक्षसी है जो छोटी-सी समस्या का
विस्तार नहीं अतिविस्तार कर देती है जिसमें बड़े से बड़ा बुद्धिमान समा जाए। तुमने
हत्या नहीं की है। यह महज एक संयोग है। ऐसा हो जाता है। इसे दिल, दिमाग में जगह मत दो और पुलिस और न्यायालय के पास जगह है नहीं।”
वह गौर से
लड़की के चहरे को पढ़ रहा था।
“अच्छा होता
मैं हॉस्टल ही जाकर स्कूटी ड्राइविंग का अभ्यास करती होती। उफ!” लड़की भारी
उधेड़बुन में थी।
“क्या तुम
ज्योतिष पर भरोसा करती हो?”, जुतसी ने बहुत मीठे सुर में
पूछा।
“थोड़ा-थोड़ा।”
ये बोलते हुए लड़की ने बाबा के चेहरे पर उमड़ आई असीम करुणा को नजर भर देखा था।
अब तक वह बता
चुकी थी कि पिछले दस साल से उसके माता-पिता से उसकी देखादेखी भी नहीं हुई है और वे विदेश में हैं और दोनों
अलग शादियाँ कर चुके हैं। वह अपनी पढ़ायी पूरी करने के लिए यहाँ आई है। उसे ज्योग्राफी
में रिसर्च करना है और नदियों के लिए काम करना है आदि इत्यादि। बाबा के बारे में
इतना पता चल चुका था कि बाबा महाराष्ट्र के एक गाँव के रहने वाले थे और जवानी में
पेशे से चोर थे। पशुओं की चोरी का उन्हें विशेष शगल था। एक बार गाय चुराते हुए
पकड़े गए और जाधवों ने उन्हें इतना पीटा कि हमेशा के लिए धनुष की तरह तिरछे हो गए।
भागकर वे लाहौरी टोला के एक रिश्तेदार के यहाँ आ गए। वहाँ से भी कुछ दिन बाद निकल
आए और कुछ दिन भीख माँगने के बाद किसी जुतसी से उसका साजोसामान खरीद कर तोतेवाला
जुतसी बन गए।
“कोई बात नहीं, आदमी पर भरोसा नहीं कर सकती तो इस पंछी पर
तो कर सकती हो न?”, उसने पूछा।
“हाँ।” लड़की
ने मरी-सी आवाज में कहा।
“ठीक है तो एक
सवाल पूछो।” जुतसी ने ललकारा।
लड़की ने पूछा
जिसे जुतसी ने दोहराया। कुछ पल विचार करने के बाद तोते ने एक कार्ड खींचकर सामने
रख दिया। कार्ड पर लिखा था - तुम निर्दोष हो। तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है। जल्द ही
तुम्हारा जीवन साथी तुम्हें मिलेगा।
जिस बात को
इतनी देर से जुतसी समझा रहा था, वह एकदम से लड़की की समझ में आ गयी। उसने पाँच सौ का नया नोट जुतसी की तरफ
बढ़ाया और उड़ती हुई छात्रावास पहुँच गयी।
इस घटना को वह
एक दुस्वप्न की तरह भूल गई।
बाबतपुर हवाई
अड्डे से सारनाथ तक दिमाग में एक ही घंटी बजती रही... आदिकेशव! सबसे पहले आदिकेशव
घाट जाना है। गेस्ट हाउस में पहुँचते ही मैंने सीधे डाइनिंग टेबल का रुख किया।
हमेशा की तरह डॉ. जैन ने उत्साह और प्रसन्नता के साथ स्वागत किया। आँगन के साथ
जुड़े बरामदे के बड़े टेबल पर मैंने सामान रख दिया। हाथ मुँह धोकर नाश्ता करने बैठ
गया। बाटी-चोखा और मिर्च की तीखी चटनी ने मूड फ्रेश कर दिया। तीन मंजिल का यह आवास
गतिविधियों का केंद्र है। यहाँ ग्रामीण बच्चों का एक निःशुल्क स्कूल भी चलता है। नए
लोगों से मिलना, नए विचारों का आदान-प्रदान डॉ. जैन का शगल था और ऐसे ही लोग इस गेस्ट हाउस के मेहमान होते थे।
वे अपने सबसे प्रिय अतिथियों को उस पवित्र कमरे में टिकाते थे जहाँ से महाबोधि
वृक्ष और मन्दिर साफ-साफ दिखाई देते थे। लेकिन फिलहाल मेरे पास उस खिड़की से झाँकने
का अवसर नहीं था। मैंने सामान वहीं छोड़ा और आदिकेशव के
लिए चल पड़ा।
आदिकेशव घाट
पर आते ही मेरे दिल को जोर का धक्का धीरे से लगा। वरुणा-गंगा संगम का बाँस के
फट्ठे वाला पुल गायब था। उसकी जगह एक अजीब सा तपेदिक के मरीज जैसा दुबला पुल खड़ा
था। बमुश्किल बारह चौदह फुट चौड़े पुल को चार गलियारों में बाँट दिया गया था।
दोनों तरफ के किनारे वाले गलियारे पैदल यात्रियों के लिए थे और बीच के दो दोपहिया
वाहनों के लिए थे जिसमें कुछ रगड़ते,
भसड़ते ई-रिक्शा भी निकल जाता था। मैं पुल के इसी किनारे रिक्शा से
उतर गया और पैदल चलकर उस पार गया। पुल की ऊँचाई नदी तल से साठ फुट से कम नहीं होगी।
पुल से नदी बहुत दूर दिख रही थी। बाँस के लचकते पुल से पैदल जाते हुए नदी बहुत पास
होती थी। अब नदी तक जाने के लिए साठ फुट नीचे ढलान पर सम्हल के उतरना था। लेकिन
जोर का धक्का जोर से लगना अभी बाकी था। उस पार जहाँ एक कच्चा-पक्का रास्ता है, जो बचे-खुचे आनन्द वन की तरफ ले जाता है, मैं
वहाँ रुक कर नथुनों में हवा भरने लगा। मैंने आदिकेशव मन्दिर के शिखर की ओर देखा। ऊपर
से नीचे तक पूरा मन्दिर ही नग्न दिख रहा था। तुरत ही मेरे दिल को एक जोरदार धक्का
लगा। मेरी नजर और मन्दिर के बीच एक विशाल वट वृक्ष था जो वस्त्र की तरह मन्दिर को
ढँके रहता था जो अब गायब था। उसकी जगह पर व्यायामशाला बना दी गई थी। कुछ लोग तेल
लगाकर कसरत कर रहे थे। आसपास चाय के एक-दो टपरे डल गए थे। एक-दो अति लघु रूप झोपड़ियाँ
भी दृश्यमान थीं।
बनारस का यह
सबसे पुराना मन्दिर है और वह वट भी कम पुराना नहीं रहा होगा। उसकी जगह दूसरा पेड़
लगाने की कोशिश तक नहीं की गई थी।
पिछले साल की
बाढ़ में कुछ लोहे के पीपे रामनगर से बहकर यहाँ तक आ गए थे जिन्हें लोहे की मोटी
रस्सियों से वटवृक्ष से बाँध दिया गया था। बाढ़ इतनी प्रचण्ड थी कि पीपे का पुल
पूरा ही बह गया था और अनेक पीपे बहकर दूसरे जिले और राज्यों में पहुँच गए थे। ये
चार पीपे तो बच गए लेकिन पानी से लड़ते हुए पेड़ शहीद हो गया। जानकर मन भारी हो
गया।
इस घाट पर
सबसे पहले मुझे वह लायी थी।
“तुमने बनारस
के चाहे जितने भी घाट देखे हों लेकिन सबसे सुंदर घाट नहीं देखा है”, उसने
खिलखिलाते हुए कहा था। उसके लिए मजेदार बात ये थी कि वह एक बनारसी को बनारस दिखा
रही थी।
उस घाट की ऊर्जा
अलग थी। मन एक अनजाने आनन्द से भर गया था। ऐसा किसी और घाट पर कभी महसूस नहीं हुआ
था। महावृक्ष की डालियाँ झूलने
को ललचाती सी चारों तरफ फैली थीं। मैं एक डाल पकड़ के झूलने लगा। ऐसा ही होगा यह
उसे पता था। लेकिन जो नहीं पता था वह भी हुआ। मैं धड़ाम से जमीन पर आ लगा। मेरा
हाथ एक मिट्टी के पुरवे पर पड़ा और कट गया। बिल्कुल फिल्मी अंदाज में उसने अपना चम्पई
रूमाल मेरे हथेली पर लपेट दिया था। उन दिनों मैं रूमाल नहीं रखा करता था। हालाँकि इन
दिनों भी मेरी आदत वही है लेकिन वह एक चम्पई रूमाल जिसके एक किनारे एक नीला फूल
काढा़ गया है, अब भी मेरी जेब में सुरक्षित है। मैंने उसे
लौटा देने का वादा किया था लेकिन वह मिले तो सही। रूमाल में रक्त की एक लकीर बन
गयी थी जो धुलने के बाद भी बनी रही। उस दिन अचानक से हो गए इस फिल्मी सीन पर हम
दोनों मुस्कुराए थे।
हमारी पहली
मुलाकात भी एक फिल्म फेस्टिवल में फिल्मी घटना की तरह ही हुई थी। एक फ्रेन्च फिल्म
देख कर वह निकल रही थी और मैं देखने जा रहा था। गैलरी में आने-जाने वालों की भीड़
थी। उसने मेरी लम्बाई का फायदा उठाते हुए झुककर बिना रगड़ खाए आगे निकल जाने की
कोशिश की। उसका चेहरा मेरे सीने की तरफ आया तबतक एक धक्के ने उसे मेरे दिल से लगा
दिया। उसके कान की बाली का हुक मेरे कुर्ते के बटन में उलझ गया। स्थिति ऐसी थी
जिसे कुकुरगेंठ जैसा कहना गलत न होगा। वह भी जरा सी गैलरी की चपन्तम् भीड़ में।
किसी तरह हम दीवार से आ लगे और हुक को बटन से अलगाने का प्रयत्न करने लगे।
“यह तो एकदम
फिल्मी घटना हो गई”, मैंने चुहल की।
“जी !”, वह
संकोच के साथ मुस्कुराई।
“वैसे आपका
नाम क्या है?”, मैंने पूछा।
“हरीतिमा!”
“मेरा नाम
सारंग है । सारंग अग्रवाल...”
तबतक हुक निकल
गया और वह एक ऐसी चितवन लहरा कर चली गई जिसे कोई भी इंसान दिल में संजोए रखना
चाहेगा। उस फेस्टिवल में भी उससे दोबारा देखा-देखी नहीं हुई और बाद में उम्मीद
करना बेमानी था। फिर भी दूसरी बार मुलाक़ात हुई और वह भी मेरे होमटाउन बनारस में
और तीसरी मुलाक़ात की उम्मीद लेकर आया हूँ यह जानते हुए कि ज्योग्राफी से मास्टर
डिग्री लेने के बाद पिछले साल ही वह जा चुकी है। लाहौरी टोला में उसके मामा का घर था जहाँ रहकर वह बीएचयू
में पढ़ाई कर रही थी। उसके नाम से छात्रावास में भी एक कमरा था जहाँ वह बीच-बीच
में रहने चली जाती थी। छात्रावास में वह थी नहीं और लाहौरी टोला विश्वनाथ कॉरिडोर बनाने
के लिए ध्वस्त कर दिया गया था। वहाँ की धूल-मिट्टी में खोजने से क्या मिलता भला?
मोटी रकम लेकर टोले वालों ने कहाँ जा-जाकर महल बनाए हैं, ये बताने वाला भी वहाँ कोई नहीं था। यही हाल देर सबेर बाकी मुहल्लों का भी
होने वाला था। बनारस को क्योटो बनाया जा रहा था। क्योटो जापान का एक अति विकसित
शहर है और बनारस भारत और दुनिया का भी सबसे पुराना शहर। इतने बुड्ढे शहर को इतना
नया कर देने की कवायद चल रही थी। गलियों के पुराने पत्थर उखाड़ डाले गए थे। कुछ न
कुछ निर्माण चल ही रहा था। जो शहर पहले से ही गंगा की रेत और श्मशान की राख में
लिपटा हुआ था वह बारीक धूल के बवंडर में डूब कर संसार के सर्वाधिक प्रदूषित नगरों
से प्रतिस्पर्धा कर रहा था। गंगा का रंग काला हो गया है।
वरुणा बदबू मार रही है। असी नदी नाला हो गई है।
यही सब सोचते
हुए आदिकेशव घाट से गंगा के कच्चे किनारे को पकड़े हुए मैं खिड़िकिया नाला तक आ
गया। वहाँ मेरे कदम थम गए। मैं कुछ मिस कर रहा था। मैंने आसपास गोलाई में घूम कर
देखा कि क्या कमी दिख रही है। क्या यहाँ भी कोई पेड़ था जो नहीं दिख रहा है या कोई
मन्दिर? पन्द्रह मिनट तक कन्फ़्यूज रहने
के बाद मेरा ध्यान गया कि मैं खिड़िकिया नाला की बदबू मिस कर रहा हूँ। यानी जल
परिशोधन संयंत्र लग गया है। वरना यहाँ एक पल रुकना मुश्किल होता। मैं अपने ऊपर हँसता
हुआ आगे बढ़ा। आदतें भी अजीब होती हैं। मुसीबत लम्बे समय तक साथ रह जाए तो वह भी
आदत का हिस्सा हो जाती है। बनारस की लुहेड़ई एक आदत है तो मुम्बई का एटीकेट-मैनर
भी एक आदत ही है और दोनों का इतिहास पुराना है। खिड़िकिया
नाला को परिशुद्ध कर देना अच्छी बात है। सभी नालों को परिशुद्ध कर देना और अच्छी
बात है लेकिन नालों से नदी को अशुद्ध कर देना ही गलत है। नदियों के समानान्तर नाले
होते तो जल आज भी पीने लायक होता। बाबूजी कहते थे, “गजब
किया अंग्रेज ने! नदियों के ऊपर पुल बनाए और नीचे सीवर को नदियों से जोड़ दिया। इस
देश को मतिभ्रष्ट करने के लिए नदी को नष्ट करना जरूरी था और वे कर गए।”
सैकड़ों
नदियाँ विकास की भेंट चढ़ गईं। मुम्बई के बान्द्रा की गहरी, चौड़ी, मीठी नदी अब सिर्फ नाम की मीठी रह
गयी है। दहिसर तो उस नदी के किनारों पर की चारागाहों पर पलते मवेशियों के कारण ही
नाम पड़ गया जिनके दूध से इतनी दही बनती थी कि उसे दही का तालाब नाम दे दिया गया।
अब वह नदी भी परनाला बन गयी है। मुझे बार-बार बदबू लिखना भी अच्छा नहीं लग रहा है क्योंकि
यही मेरी समस्या है - बदबू! मुझे इससे एलर्जी है और यह अखण्ड भारत में सर्वव्याप्त
है। उस विदेशी नेता की बात में दम था जिसने भारत भ्रमण के समापन पर कहा था, “भारत
एक नाबदान है, ढक्कन उठाते ही बदबू आती है।” जहाँ तक मेरा अनुभव है, ढक्कन उठाने की जरूरत ही
नहीं है।
खिड़िकिया घाट
से होते हुए मैं राजघाट पहुँच गया। पुल के नीचे मल्लाहों की मिट्टी और प्लास्टिक की छोटी झोपड़ियाँ थीं
जिन्हें साल दो साल में प्रशासन ध्वस्त कर देता था और महीने दो महीने में ये फिर
बना लेते थे। सुना जा रहा था कि राजघाट से आदिकेशव तक पक्का घाट बनने वाला था और
ये अस्थायी झोपड़ियाँ हमेशा के लिए हटा दी जाने वाली थीं लेकिन हाल-फिलहाल ही बने
पक्के मन्दिरों और मठों पर कोई खतरा नहीं था।
घाट तो
निषादों का ही था? पहले उनसे मछली मारने का
अधिकार छीना गया और अब सरकार ने अपना पोत उतार दिया था और विदेशी सैलानियों से
होने वाली कमाई को अपनी तरफ खींच लिया था। पोत खिड़िकिया घाट से अस्सी घाट तक एक
साथ सैकड़ों यात्रियों को गंगा दर्शन करवा देता था। शुरू में पोत में शराब भी
मिलती थी लेकिन स्थानीय लोगों के विरोध के चलते रोक दिया गया। राजघाट पर सदियों पहले सिर्फ राजा का परिवार स्नान करता था। अब गाय-भैंस
भी वही धोई जाती हैं। लेकिन मैं इतना क्यों सोच रहा हूँ? मैं एक व्यवसायी हूँ और इतना सोचना हमारे पेशे के लिए ठीक नहीं है।
नवनिर्मित
भव्य रविदास मन्दिर अब राजघाट की शोभा है। गंगा के उस पार की रेत और दूर की अमराइयाँ, बाईं तरफ डफरीन पुल एक मोहक माहौल बनाते है। साफ-सुथरी, चौड़ी सीढ़ियाँ बैठने के लिए बुलाती लगती हैं। सीढ़ियों के
दहाने पर अच्छी तरह से बाँधकर रखे गए कुछ गठरी घर थे। ये घर शाम को खुल जाते हैं।
इनमें ही एक घर बाबा का भी था, जो अब गायब था।
“वो तोते वाला
जुतसी कहाँ गया?”, मैंने दोपहर में गाँजा मार के भक्कू बने, पान चबाते एक साधुनुमा भिखारी से पूछा।
“उ त मर गैलन
अयोध्या जा के...”, उसने पान की पीक को मुँह के सॉसपैन में सम्हालते हुए बताया।
“हूँ ! अच्छा
ही हुआ”, मैंने गहरी साँस लेकर कहा।
“काहे भैया?
अच्छा काहे हुआ???”, उसने पान की बेशकीमती पीक को पच्च से फेंक दिया और बंदर की
तरह लड़ने की मुद्रा बना ली।
मैंने जवाब
देना गैरजरूरी समझा क्योंकि कम से कम एक घंटे तक कहीं भी कोई भी बनारसी विवाद करने को तैयार रहता है। मैं
चलने लगा तो उसने पीछे से आवाज लगाई, “भैया! नाव चाही का?”
ओह! तो ये न
साधु है, न भीखारी। यह नाविक या नाव मालिक है।
“यह वेशभूषा
क्यों?”, नाव में सवार होने के बाद
मैंने पूछा।
दोबारा उसने
पान खा लिया था और पान की पीक से उसका मुँह लबालब भरा हुआ था।
मुँह को
कुत्ते जैसा बनाकर पान की एक बूँद पीक भी छलकाए बिना उसने जो बताया उसका मतलब था
कि सारे विदेशी यात्री अब सरकारी जहाज में सवार हो जाते हैं। होटल से ही उनकी
बुकिंग हो जाती है। अब साधु बनने के सिवा कोई चारा नहीं है।
“नदी की सफाई
की क्या जरूरत है भैया? नदी का कोई कुआँ - तालाब है?
नदी का पानी खोल दो, खुदै अपने को साफ कर
लेगी। सूँस, घड़ियाल भी नहीं दिखता है। बिजली बनाने के लिए
पनिया पेर देता है सब, उसी में सब जीव का बीज पिसा जाता है,
का?”, उसने मुँह खाली कर के ये बात कही ताकि
मैं समझ सकूँ।
मैंने कहा, “हाँ, सही बात है।”
शाम तक मैं
नाव में घूमता रहा और वह मेरा ज्ञानवर्धन करता रहा।
घाट बिजली के
लट्टुओं से जगमगा रहे थे। डफरीन पुल जिसका नाम बदलकर मालवीय पुल कर दिया गया था, वह रंगे हुए खिलौने जैसा दिख रहा था। सब
चाइना लाइट्स का कमाल था। मुझे पुरानी पीली रोशनी वाले फ्लड लाइट्स अच्छे लगते थे।
ये सफेद रोशनी कुछ ज्यादा ही सस्ती चमक पैदा कर रही थी। पुराने महलों को होटलों, कैफे और रेस्टोरेन्ट में बदला जा रहा था। दुनिया के सबसे पुराने शहर को
आधुनिक रंगीन लट्टुओं से सजाया जा रहा था।
अस्सी घाट पर
जहाँ घाट संध्या का कार्यक्रम होता है,
मैं वहीं एक कुर्सी पर बैठ गया। वहाँ नृत्य-संगीत
का अच्छा कार्यक्रम चल रहा था।
एक लड़की दिखी जो बिल्कुल
उसके जैसी थी लेकिन वह नहीं थी।
उसके बिना ये सब फीका लग
रहा था। ई-रिक्शा पकड़ के मैं अपनी पुश्तैनी दुकान पर आ गया।
यह दुकान
जिसका नाम ‘सलोनी ब्रा पैन्टी’ था रिटेल प्लस होलसेल के लिए बनारस में जगत
प्रसिद्ध थी। दुकान का नाम मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैं इसे अंगवस्त्रम् या अंडर
गारमेन्ट्स जैसा कोई नाम देना चाहता था लेकिन पिताजी के रहते मैं यह नाम बदल नहीं
पाया। सलोनी मेरी माँ का नाम था। दुकान का बोर्ड देखते ही पिताजी की आँखों में एक
अजीब सी चमक आ जाती थी। रविवार को भी वे दुकान जरूर खोलते थे, भले एक-दो घंटे के लिए ही सही। यह दुकान
उनके लिए मन्दिर से कम न थी। पिताजी के जाने के बाद दुकान को उनके जमाने के
कर्मचारी लालमोहर तिवारी सम्हालते थे। पिताजी के प्रति उनकी श्रद्धा का लिहाज करते
हुए मैंने दुकान का नाम सुधारने की इच्छा को दमित कर दिया था।
रविवार के दिन
बनारस का बाजार बंद रहता है। फिर भी बनारसी साड़ी और धोती-गमछा, प्रसाद-पकवान की कुछ दुकानें और होटल-धर्मशाला,
मन्दिर -देवालय तो खुले ही रहते थे। हमारी दुकान भी पहले धोती-गमछे
की थी। हमारे यहाँ का गमछा, लंगोट और लुटकी बिहार के बाजार
तक प्रसिद्ध थी। पिताजी को यह दुकान उनके दादाजी से मिली थी। मैंने जब मुम्बई में
अंडरगारमेन्ट्स की फैक्टरी डाली तो पुरानी दुकान को बनारस के शोरूम में बदल दिया।
हमारी पुरानी दुकान का मुँहजुबानी नाम था ‘गमछा, लंगोट,
लुटकीवाला’ जो ग्राहकों का दिया हुआ था। दुकान पर कोई नाम नहीं लिखा
था। पिताजी की व्यवसायी बुद्धि ने क्या सोच कर यह नाम रक्खा होगा, उसको समझने के लिए यह इतिहास जानना जरूरी था। एक दिन एक चमाचम बोर्ड लटका
दिखा ‘सलोनी ब्रा पैन्टी’ और दाईं तरफ ब्रा पैन्टी में एक लड़की की फोटो जो चश्मा
पहने हुए थी। वह चश्मा क्यों पहने हुए थी, मेरी समझ के बाहर
था। नीचे लिखा था – ‘प्रो. द्वारिकानाथ एंड सन्स’। यहाँ सन्स क्यों लिखा गया था
जबकि मैं अकेला ज्ञात बालक हूँ अपने माता-पिता का ? रातोंरात
ट्रेडिशनल मेल गारमेन्ट्स की दुकान लेडीज गारमेन्ट्स की दुकान में बदल गयी। इस से
बड़ा सेक्स ट्रान्स्फ़ार्मेशन बस मुम्बई में हुआ था - विक्टोरिया टर्मिनस एक रात में छत्रपति
शिवाजी टर्मिनस में बदल दिया गया था। नाम बदल देने से काम का क्रेडिट भी बदला जा
सकता है?
देश भर में
नेताओं ने शहरों, सड़कों, पुलों
और स्टेशनों का नाम बदलो अभियान चला रक्खा था। बम्बई, मुम्बई हो गई थी। कुछ शहरों के पुराने बाजारों का उर्दू
नाम बदलकर संस्कृत में रख दिया गया था। बनारस में नाम बदलने की बहुत सम्भावना नहीं
थी। यहाँ के मुख्य मुस्लिम मोहल्ले का नाम मदनपुरा, जैतपुरा,
नयी सड़क, बेनिया बाग, पीली
कोठी, गोलगडुा जैसा था जिसके और हिन्दूकरण की जगह नहीं थी और
हड़हा सराय को किसी भी तरह नहीं बदला जा सकता था तो खिसियाकर किसी ने पड़ोस के शहर
मुगलसराय के स्टेशन का चार बिगहा लम्बा नाम रख दिया था जिसे इन्टरनेट पर खोजने से
कम समय में यात्री पैदल खोज लेते थे।
बहरहाल जो भी
हो, इस बोर्ड ने एक रात में
कायापलट कर दिया। अगले दिन एक भी आदमी गमछा, लंगोट खोजने
नहीं आया। वे बोर्ड पढ़कर और नयी चमकती दुकान देख कर उस पुरानी चीकट आढ़त को कहीं और
खोजने चले जाते थे। प्रतिस्पर्धियों का मुँह लटक गया। सिर्फ बनारसी ही बनारसी को
ऐसा चकमा दे सकता है और उनकी पीढ़ी तक यह खूब चलता था। पुराने ग्राहकों ने ही रातोंरात
पूरे बनारस में नयी दुकान का नाम फैला दिया। बाद में पिताजी पुराने ग्राहकों को
मिस करने लगे और एक तरफ गमछा-धोती रखने का मन बनाने लगे लेकिन उन्होंने मुझे दुकान
का नाम नहीं बदलने दिया और मैंने उन्हें लुटकी गमछा नहीं रखने दिया।
पिताजी का
नित्यप्रति उद्बोधन था, “वे भी क्या दिन थे,
गाहक नवा धोती, लंगोट, गमछा
और दुई पैसे की माटी की लुटकी खरीदते थे। गंगा स्नान कर नए वस्त्र पहन, लुटकी में गंगाजल लेकर विश्वनाथ मन्दिर जाते थे। और आज उसी आढ़त में एक
धोती का टूक नहीं मिलेगा।” उफ, हाय आदि विविध ध्वनियों का
निक्षेप करने के बाद बाबूजी पान खाकर दाँत निपोर लेते उसके बाद ही दिन की शुरुआत
होती थी। तीन मिनट तक सूरज की रोशनी भी रुककर उनके प्रलाप को रोज सुनती थी और ज्यादा
सुनने के लालच में पन्द्रह-बीस मिनट तक रुकी रह जाती थी। दुकान के चेहरे पर पड़ने
वाली सुबह की बीस मिनट की धूप में चाय, हाय और अन्त में पान बाबूजी
और तिवारी जी के बीच का नित्य उत्सव था।
तिवारी जी
दुबले-पतले और बेजान से दिखते थे। बाबूजी उनपर व्यंग्य कसते थे, “दूर से इसको आते
देखकर ऐसा लगता है जैसे अभी-अभी चिता से उठकर चला आ रहा हो।” तिवारी जी भी जबाबी शब्दवाण मारते, “इनका
मुँह देखो... मुखारबिन्दु से दाँत, जीभ, गले का लोलक यानी मानव नेत्रों से
जहाँ तक दिख सकता है सबकुछ लाल और पीला है। एतना पान खा चुके हैं।” इसके बाद दोनों
जोरदार ठहाका लगाते थे। दुकान से सटा हुआ एक बिजली का
खम्भा था जिससे लालमोहर चाचा अपनी सायकिल बाँधते थे। बाबूजी भी उसी से अपनी साठ
साल पुरानी रिले सायकिल लॉक करते थे। उसी खम्भे से टकराकर बाबूजी की मौत भी हुई थी।
इतवार ही का
दिन था। दुकानें बन्द थीं। गलियाँ सुनसान। एक लड़की स्कूटी चलाना सीख रही थी। वह
गली से सड़क की परिधि बनाती हुई स्कूटी चला रही थी। स्कूटी नयी थी और उसके हेडलाईट
के नीचे टेप से एक कागज चिपका हुआ था जिसपर बड़े अक्षरों में ‘एल’ लिखा हुआ था।
लड़की की स्कूटी मेरी दुकान के सामने से दायें टर्न लेती थी और मुख्य सड़क का एक
चक्कर लगा कर अगली गली से मुख्य सड़क के पिछवाड़े की इस सड़क पर आ जाती थी जहाँ
दोनों तरफ पुरानी पुश्तैनी दुकानें थीं। जिस समय लड़की की स्कूटी दुकान वाले मोड़
से घूमी ठीक उसी समय बाबूजी खम्भे के पास पहुँचकर सायकिल से उतरने वाले थे। लड़की
ब्रेक सम्हाल नहीं पाई और सायकिल को धक्का लग गया। बाबूजी सायकिल पर बैठे-बैठे ही खम्भे
से जा टकराए। उनका चश्मा टूट गया। बाबूजी अभी सम्हलने की कोशिश ही कर रहे थे कि
घबराहट में लड़की ने दोबारा स्कूटी को सायकिल से टकरा दिया। सायकिल बाबूजी के टाँगों
के बीच से निकलकर बीस फीट आगे जाकर गिर गयी और बाबूजी उचक कर दुकान की तरफ कूदे और
डैसबोर्ड से टकराकर जमीन पर गिर गए। उनका नोकिया मोबाइल खुलकर बिखर गया। लड़की
अपनी स्कूटी लेकर भाग चुकी थी। बाबूजी किसी तरह उठकर दुकान की गद्दी पर आकर बैठ गए
और उन्होंने पुलिस को फोन किया। हाथ में टेलीफोन का चोगा थामे हुए ही वे स्वर्ग
सिधार गए। पुलिस फाईल से यही उनकी आखिरी तस्वीर मिली थी। लालमोहर चाचा दुकान के
गोदाम में कुछ काम कर रहे थे इसलिए इस घटना के चश्मदीद गवाह नहीं बन सके। उन्हें
तो पुलिस के आने के बाद ही पता चला था। ये सारी बातें कोने की हलवाई दुकान से
उड़ती हुई जन-जन तक पहुँची थीं। लोकल टीवी चैनल पर खबरें चलाई गईं। अखबारों में
छपा। न तो इस अकारण हिंसा का पता चला, न हीं उस लड़की का। उस लड़की को खोजने के
चक्कर में मैं एक दूसरी लड़की से टकरा गया और अब वह भी नहीं मिल रही थी।
क्या आप मन की
उस कॉम्प्लेक्स दशा को समझ सकते हैं जब आपको हँसना-रोना न सूझे। जब आपको लगे कि आप
हँस भी रहे हैं और रो भी रहे हैं। एक तरफ रुलाई का झरना फूट रहा है, तो दूसरी तरफ हँसी
की विद्रूप चट्टाने हैं! बाबूजी की तेरही के बाद मेरी यही दशा थी। बाबूजी के रहते
मैं अपने मन की कर नहीं पाया और अब किसलिए,
किसके लिए का भयावह सवाल सामने था? टेक्सटाइल
इन्जीनियरिंग की पढ़ाई करते हुए मैंने बाबूजी से छुपाकर पूना फिल्म इन्स्टीट्यूट
से फिल्म एप्रिशिएसन का कोर्स भी कर लिया था। मेरा मन फिल्म निर्माता बनने का था
और मैं चोली बना रहा था। मैं अपने घर की ओर चला। शायद वहाँ कुछ चैन मिले। वहाँ आकर
खाली मकानों को देखकर उदासी और गहरी हो गई। मुझे वह आदमी सही लगने लगा था जिसने
प्रस्ताव रखा था कि पुराने बनारस को खाली कराकर संरक्षित कर देना चाहिए।
मछोदरी का
अपना पुश्तैनी घर आसपास के सैकड़ों घरों की तरह निर्जन हो गया था। अपने अगल-बगल,दायें-बायें कतार में तालाबन्द मकान!
अलबत्ता मिठाई, समोसे की सारी दुकानें आबाद थीं और उन्हीं की
वजह से थोड़ी चहल-पहल थी। अधिकतर पक्का महाल के बाशिन्दों ने नयी कॉलोनियों में
मकान बना लिए थे लेकिन इन को न तो ये किराए पर चढ़ाते थे, न
बेचते थे। नोनी लगी दीवारों की उदासी पीपल और वट के पौधे हर रहे थे जो उनकी दरारों
से उग आए थे। चिड़ियों की खेती दीवारों को फिर से मिट्टी बनने में अनथक मददगार थी।
वृक्षविहीन बनारस किसी बूढ़े आदमी के गंजे कपाल जैसा दिख रहा था।
इस घनीभूत
उदासी से उबरने के लिए मैं घाट संध्या का कार्यक्रम देखने अस्सी घाट चला गया था। वहीं
मेरी उससे मुलाकात हुई थी। उस दिन कत्थक का प्रदर्शन था। जिस लड़की को नृत्य करना
था उसके साथ के लोगों में वह भी थी। मुझे याद आया कि ये वही लड़की है जो फिल्म
फेस्टिवल में मिली थी। यों ही हुआ परिचय दोबारा मिलने पर दोस्ती में बदल गया। उसे
जानकर हैरानी हुई कि बनारस मेरी जन्मभूमि है लेकिन मैं इसे ठीक से जानता तक नहीं। मुम्बई
उसकी जन्म स्थली थी।
उसके साथ मैंने
बनारस को नए नजरिए से देखा। वही मुझे पहली बार आदिकेशव घाट पर ले आई थी। उसने
बताया था कि ये है बनारस का पहला घाट और अन्तिम है शूलटंकेश्वर। उत्तर से आए
विष्णु और आदिकेशव में अपनी प्रतिमा स्थापित की और दक्षिण से आए शिव और शूलटंकेश्वर
में अपना त्रिशूल टिकाया। न जाने कितने मन्दिर,
कितनी गलियाँ और मठ हम घूमे उसका हिसाब नहीं। वह बनारस के भूगोल और
संस्कृति पर एक किताब लिखना चाहती थी।
एक दिन जब हम
चेत सिंह घाट पर बैठे गंगा को निहार रहे थे तो मैंने छोटी सी भूमिका के साथ अपनी
बात रक्खी, “कृपया इसे भावुकता न समझा जाए क्योंकि न तो मैं टीन एज में हूँ न तुम।
क्या मेरे साथ विश्व भ्रमण करना चाहोगी?” मैंने पूरी नाटकीयता के साथ शर्ट के भीतर से डंठल समेत गुलाब निकाल कर
देते हुए कहा।
वह हँस पड़ी, “बड़ी
देर कर दिए। मैं तो कबसे इंतजार कर रही थी।” वह ऐसी व्रीडा़ से मुस्कुराई जो
स्त्री जिसके प्रेम में होती है, सिर्फ उसे ही देखने का सौभाग्य मिलता है। उस दिन महिला छात्रावास पर उसे
छोड़ने के पहले मैंने उसका आलिंगन किया। मेरे उत्साह का कोई पारावार नहीं था।
अगले तीन दिन
मेरी जिन्दगी के सबसे शानदार दिन थे। तीसरा दिन हमने सारनाथ में और रात जैन गेस्ट
हाउस में बिताया। उस पवित्र कमरे की खिड़की से महाबोधि मन्दिर को देखते, छत पर टहलते, बातें
करते हमने रात का भरपूर आनन्द लिया। दूसरी सुबह उसे अपना पुश्तैनी घर दिखाने
मछोदरी ले आया। घर देखकर वह बच्चों की तरह प्रसन्न हो गई थी।
“शादी के बाद
भी मुम्बई में ही रहोगे? मैं तो यहाँ रहना चाहूँगी”,
उसने चहकते हुए कहा।
बनारस एक
मिजाज है, एक रोग है, एक तरह का वायरस है। जिसको लग जाए वह यहीं का होकर रह जाता है। उसे लग
चुका था। बीस कमरों के इस तीन मंजिले मकान में वह अपने सपने सजाने की तैयारी करने
लगी। उसे हर कमरा खोल के देखना था। मैंने उसे चाबी दे दी। तीसरी मंजिल के खुले और
हवादार कमरे में आते ही वह किंग साइज के पलंग पर लेट गई।
“यह हमारा
बेडरूम होगा”, मैंने मुस्कुरा के कहा और अन्त में जोड़ा, “शादी के बाद।”
उसने तिरछी
नजर से देखा और उसकी नजर मुझपर फिसलती हुई दीवार पर जा लगी जहाँ मेरे माता-पिता की
तस्वीरों पर माला चढ़ा हुआ था।
“मैं गली से
तुम्हारे लिए पोहा और चाय लेकर आता हूँ,” मैंने कहा और सीढ़ियाँ उतर गया।
जाने और आने
में मुझे पन्द्रह मिनट लगे और इतने में ही मेरी दुनिया बदल गयी थी। वह पलंग पर
बैठी बिसूर रही थी। ‘ओह! बेचारी ने माता-पिता
का सुख जाना नहीं और सास-ससुर का सुख भी इसके नसीब में नहीं बदा। औरत के आँसू बहुत
गहरी जबान बोलते हैं। शब्द जहाँ असमर्थ हो जाते हैं, आँसू
बोलते हैं। हर बून्द एक महाकाव्य है...’ क्षणांश में मैं काफी बातें सोच गया और इस
बीच पोहा और चाय परोस दिया।
वह उठकर
बाथरूम चली गई। वह आईने के सामने रो रही थी। “मेरा नसीब ही ऐसा है। अब तो मानना ही
होगा कि कोई है जो हमारी जिंदगी की स्क्रिप्ट को हमारे हिसाब से नहीं लिखने दे रहा
है।” खूब रोने-धोने के बाद चेहरा धो-पोंछ्कर वह बाहर निकली। उसका चेहरा किसी साँझ
के फूल की तरह निर्दोष और उदास था।
उसने मेरी तरफ
देखे बिना बदले स्वर में कहा, “मेरी तबीयत ठीक नहीं। तुम चाय पी लो। मैं हॉस्टल जा
रही हूँ। मेरे पीछे मत आना। और हमलोग शायद दोबारा न मिल पाएँ। हमारी यात्रा यहीं तक
थी।” जबतक मैं कुछ कहता वह तेज कदम सीढ़ी उतर गयी। मैं हाथ में चाय का कप थामे हुए
झन्डू बना खड़ा रह गया।
एक दिन बाद
मुझे मुम्बई लौटना था, यह उसे मालूम था और मुझे
उम्मीद थी कि वह जाने से पहले एक बार जरूर मिलेगी। मेरी बुद्धि में उसका व्यवहार
समझने वाला सॉफ्टवेयर नहीं था। इसलिए दिमाग का सही सदुपयोग करते हुए अगले दिन मैंने
दुकान और मकान से जुड़े जरूरी काम निपटाए और शाम के समय अस्सी पहुँच गया। पप्पू की
दुकान से एक हरी गोली छानकर, लेमन टी पीकर, हिम्मत बनाकर
उसके छात्रावास पहुँच गया। उसका रूम नम्बर पता था इसलिए उस तक संदेश पहुँच गया।
उसने लिखित संदेश भिजवाया कि कल वह स्टेशन तक साथ चलेगी। मेरे शरीर में कहीं बाँछे
थीं, वे उसी दिन खिल गईं और अगले दिन उसके आने तक मुरझाई
नहीं थीं।
“बड़े खुश लग
रहे हो!”, उसने मिलते ही कहा।
“तुमसे मिलने
की खुशी है। उनके आने से जो आ जाती हैं रुख पे रौनक... ”, मैं गजलियाने लगा था। एक
फीकी मुस्कान उसके होंठों पर चमकी।
“खुश हो लो
क्योंकि हम फिर नहीं मिलेंगे”, उसने बेलौस और ठंढे स्वर में कहा तो मेरी हँसी उड़
गई।
“तुम्हें सास-ससुर
का सुख भी चाहिए इसलिए तुम किसी और से शादी करोगी?”, शंकित स्वर में अटक-अटक के मैंने पूछा तो उसकी हँसी फूट गई।
“तो तुम ये
समझते हो? मैं इसलिए रो रही थी?” उसने मेरी आँखों में उतरते हुए कहा, “बहुत मासूम हो! काश... तुम्हें
प्रेम करने लायक होती!”
एक पल के लिए
संसार का सारा अनुराग उसके चेहरे पर लालिमा बन उतर आया था। माँ, बाबूजी, मोहल्ला,
दोस्त, मेरा निजी संसार जैसे मुझे मुकम्मल
वापस मिल गया था। मैं निहाल होने लगा। लेकिन एक काँटे की चुभन थी, “‘प्यार करने
लायक’ का क्या मतलब? ऐसा अचानक क्या हुआ?” मैंने उसका हाथ थाम के पूछा।
“और तुमने
क्या-क्या सोचा”, उसने बात बदलते हुए पूछा।
“और मैंने ये
सोचा कि तुम्हें मेरा घर पसंद नहीं आया या कोई पुराना अफेयर याद आ गया या कोई
मनोवैज्ञानिक समस्या है.. यू नो... सिंगल गर्ल चाईल्ड...”, मैं हकलाने लगा।
“डोन्ट बी वाइल्ड!”
उसने राइम बनाया। “इसमें से कोई नहीं। और?”
“और...अ...तुम्हारा
किसी से सम्बन्ध रहा हो। कभी प्रेग्नेन्सी हो गई हो।”
“ शिट! बस
काफी सोच लिया। मर्द इससे ज्यादा सोचेगा भी क्या। फिर भी जितनी बातें तुमने कहीं ये
गुनाह नहीं हैं, हैपेनिंग हैं। चलो। ट्रेन निकल
जाएगी”, उसने कहा और उठ खड़ी हुई।
“हाँ, ये तो वो चीजें हैं जो हो जाती हैं”, मैंने
सुर में सुर मिलाया।
“क्या एक दिन
हमें साथ नहीं होना चाहिए था?” मैंने मौके की नजाकत देख अनुनय किया।
“क्यों रहे न
इतने दिन साथ!”
“हाँ, मगर...लेकिन...”
“तुम जिस
चक्कर में थे वो नहीं हुआ। दो बार तो तुमने माहौल बनाया। हम साथ थे और तुमने कोई
फायदा उठाने की कोशिश नहीं की। मेरे मन के साथ संगत किया। रूफ गार्डन में टहलते
हुए मैं चाँद देखती रही और तुम मुझे...”, उसने मन्द स्मित के साथ आगे कहा, “शराफत
का वह चैप्टर अच्छा लगा। तुम गैर औरत के आत्मसम्मान को ठेस नहीं पहुँचा सकते, इस गुण ने मेरा दिल जीत लिया। तुम्हारे
व्यवसाय से अलग फिल्मों से तुम्हारा प्रेम भी मुझे अपील करता है और मैंने सोच लिया
कि फिल्म व्यवसाय में तुम्हारे साथ हाथ आजमाएँगे। कितना कुछ सोच लेता है इंसान कुछ
पल की दोस्ती में जबकि अब हम नहीं मिलने वाले हैं आज के बाद।”
“अबतक
तुम्हारा स्वभाव नहीं समझ पाया”, रास्ते में मैंने उससे कहा।
“और अब मौका
भी नहीं है”, उसने कहा।
“क्या सचमुच?”
“हाँ, यही सच है।”
“मैं तुम्हें
प्रेम कर बैठा हूँ”, मैंने सीधे कह दिया।
“अगर मैंने
गुनाह किया हो तो भी कर सकोगे?”, उसने सीधे आँखों में झाँकते हुए पूछा।
“गुनाह? कौन सा गुनाह? तुम कर
ही नहीं सकती हो। मैं बनिया हूँ, खरा-खोटा एक नजर में परखता
हूँ। तुमने क्या किया है जी? चिउँटी मारी होगी।” मैंने कहा।
“हाँ, ऐसा ही समझो।” उसने सूखे स्वर में कहा।
“पाँव के नीचे
एक चींटी दब जाए तो वह भी अपराध हुआ? बिलकुल नहीं! अगर तुमने कत्ल भी किया होगा तो
उसकी कोई वाजिब वजह होगी।” मैंने गहरे यकीन के साथ कहा।
“जानने के बाद
तुम मुझे माफ नहीं कर सकोगे”, उसने कहा।
“अगर तुमने
किसी का खून भी कर दिया हो तो मैं तुम्हें बचाने के लिए कुछ भी कर सकता हूँ”,
मैंने कहा।
“लेकिन क्या
प्रेम भी करते रह सकोगे?” उसकी प्रश्नाकुल आँखें निष्पलक
हो गयीं थीं। मेरे पास उत्तर नहीं था।
हमलोग रिक्शा
से उतर गए। सामने मन्दिरनुमा कैन्ट स्टेशन था।
औरतें इतना
संदेह क्यों करती हैं? अपने व्यवसाय के कारण मैं इस पहलू से बाखूबी वाकिफ था।
लेकिन कारण नहीं जानता था।
ट्रेन
प्लेटफार्म पर सजी-धजी खड़ी थी। गेंदे और गुलाब के फूलों से बोगी महमहा रही थी।
ट्रेन का एक ड्राइवर अवकाश प्राप्त कर रहा था। उसका विदाई समारोह था। सबको हाथ
हिलाकर अभिवादन करते हुए ड्राइवर ईंजन की तरफ गया। मैंने अपने बर्थ पर अपना सामान
जमाया। और उसके साथ प्लेटफार्म पर टहलने लगा। मेरे पास एक गिफ्ट था जो उसे देना
चाहता था।
“इतनी सजी-धजी
ट्रेन देखकर तुम्हें छोड़ कर जाने का जी नहीं कर रहा है”, मैंने कहा।
“तो क्या मुझे
भी ले जाओगे?” उसकी आवाज थर्रा रही थी।
“एक दिन पहले
तक तो ऐसा ही जानता था। अचानक हुए तुम्हारे मिजाज के बदलाव को मैं समझ नहीं पाया।
शादी के पहले तुम्हें सेक्स, रोमान्स नापसन्द हो तो भी कोई बात नहीं...”
तबतक ट्रेन चल
पड़ी बिना सीटी बजाए। मैं कूदकर चढ़ गया। वह भी विस्मित-सी दौड़ पड़ी। स्टेशन पर
भगदड़ मच गई।
वह चिल्ला कर
बोल रही थी, “सुनो ! नीचे उतर आओ। अभी बात पूरी नहीं हुई।”
“बात फोन से
पूरी कर लेंगे। तुम अपना मोबाइल नम्बर दो”, मैंने हँस के कहा।
उसने कहा, “नहीं!”
और दायें-बाएँ सिर हिलाया। उसने अपना रूम नंबर बताया, ईमेल आईडी देने को राजी थी
लेकिन फोन नम्बर बिलकुल नहीं दिया। फेसबुक, व्हाट्सअप पर वह थी नहीं।
तबतक ट्रेन
रुक गयी। ट्रेन का ईंजन जोड़ा जा
रहा था और इसी में थोड़ी स्पीड में सरक गई थी और बनारसी सब हड़कम्प मचा दिए।
नियमतः बिना व्हीसिल बजाए ट्रेन नहीं चलेगी ।
प्लेटफार्म पर
उतरकर उसे गले लगाया और माथे पर चूम लिया।
“चूम मेरा
माथा... यशस्वी कर... तेजस्वी कर”, वह होंठों
में बुदबुदाई।
उसका हर शब्द
मेरे लिए एक पूरी परिघटना थी और वह जस का तस मेरी स्मृति का हिस्सा बन जाता था।
“मैं तुम्हारे
साथ... एक रात बिताने को राजी हूँ, आज ही”, उसने पलकें मूँदे और मेरी कुहनी थामे हुए कहा। मैं ने उसकी अधमुँदी पलकों
को चूम लिया।
“भाई साहब
ट्रेन चल पड़ी!”, बेवजह हमदर्द बना कोई सहयात्री चिल्लाया। ट्रेन बिना सीटी दिए फुल
स्पीड पकड़ चुकी थी। मैंने एक छलांग में बोगी का हैन्डल पकड़ा और भीतर दाखिल हो गया।
सामान उठाकर प्लेटफार्म पर फेंका और ट्रेन की दिशा में कूद कर कुछ दूर दौड़ता गया।
मुम्बई लोकल ट्रेनों का अभ्यास काम आया नहीं तो शहीद हो जाते। आजकल ट्रेन का भरोसा नहीं रह गया है।
ताज में हमने
खाना खाया और एक शानदार सुईट में रात बिताने गए। मैंने गिफ्ट दे दिया। वह माणिक के
लाल नगों से सजा गहनों का एक सेट था। मेरे आग्रह पर उसने पहन लिया। वह संसार का
सबसे सुन्दर नजारा था जिसे आँख भर पी रहा था। लेकिन कबतक? बाँछे कहीं थीं और खिल रही थी। मैं उसके
करीब आ कर बैठ गया। गले में लाल माणिक का हार, कान में
बाला, एक बिंदी भी होनी चाहिए। बिस्तर पर गुलाब की पंखुरिया
बिखरी हुई थीं जैसे कि मेरी सुहागरात हो। मैंने एक छोटी सी पंखुरी उठाई और उसके
माथे की बिंदी बना दी। अब छटा पूरी हुई।
वह ऐसी आँखों
से मुझे देख रही थी जो “देख लो आज हमको जी भर के, कोई आता नहीं है मर के” सिनेमाई गीत के भावों की याद दिला रही
थी।
“आगे बढ़ने से
पहले मेरी एक बात सुन लो...” उसने मेरा हाथ थामते हुए कहा, “आज तुम मेरे साथ कुछ
भी कर सकते हो। उसके बदले जरूरी नहीं कि तुम मुझसे शादी भी करो। यह अबतक के
तुम्हारे अच्छे व्यवहार का पुरस्कार होगा।”
“मैं इस तरह
का कोई लाभ नहीं चाहता हूँ। और मुझे तुम्हारे अतीत से कोई टकराव नहीं है। कोई बात
तुम्हें खा रही है तो उगल दो। चाहे जो हो जाए होने दो”, मैंने उसे हिम्मत देने के
लिए कहा।
“क्या तुम
मुझे माफ कर सकते हो, अगर मैंने किसी की जान ली हो?” उसके शब्द आँसुओं में भीगे हुए थे।
“हाँ, बिल्कुल।” मैंने उसके कन्धों को थामते हुए
कहा।
“और अगर वे
तुम्हारे पिता हुए तो?” अब वह रो रही थी।
“क्या मतलब?” बिजली के झटके से मैंने उसका कंधा छोड़
दिया।
“मैं ही
तुम्हारे पिता की मौत का कारण हूँ।” अब वह सस्वर रो रही थी।
मैंने सिर थामकर
पूरी बात सुनी। उसका चेहरा देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। आँखों में खून उतर आया
था। उतरते हुए जाड़े में अभी इतनी ठंढक थी कि माथे पर चुहचुहा आया बेशुमार पसीना
अस्वाभाविक लगे।
“तुम चाहो तो
मुझे पुलिस के हवाले कर सकते हो, ये रहा मेरा ईमेल आईडी”, उसने एक कागज का टुकडा मेरी तरफ बढा़या।
मैंने उस तरफ
देखने की भी जहमत नहीं उठाई। मेरे लिए उस कमरे में बैठे रह पाना कठिन हो गया था।
मैं गर्दन झुकाए हुए बाथरूम चला गया। अपने आप को सामान्य करने की हर कोशिश के बाद
मैं झटके से बाहर आया। अपना सामान उठाया और बाहर निकलते हुए उससे कहा कि 'मैं एयर पोर्ट जा रहा हूँ। इस सुईट का
किराया पेड है। तुम सुबह तक यहाँ रुक सकती हो।' उसके ईमेल
आईडी की तरफ एक उड़ती नजर डालकर मैंने अपनी जेब से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और
उसके पास रखकर बाहर निकल गया। होटल से बाहर आकर खुली हवा में एक गहरी साँस ली और
टैक्सी लेकर एयरपोर्ट निकल चला। सबकुछ मेरी समझ से बाहर था और मुझे अपने कार्यस्थल
के सिवा अब कुछ नहीं दिख रहा था। मुम्बई पहुँच कर आठ-नौ महीने तक काम के सिवा कुछ
और मैंने दिमाग में आने ही नहीं दिया। इतना काम कि दिमाग थक जाए और दो पैग के बाद
बिस्तर के सिवा कुछ नहीं सूझे। बिस्तर पर मेरे साथ कौन है, ये
मायने नहीं रखता था। बस एक जिस्म होना चाहिए।
उसे इस तरह से
ताज में छोड़ कर आ जाना अब ज्यादती लग रही थी। मैं उसके सांयोगिक काउंसिलर जुतसी
बाबा से भी मिलना चाहता था। न्यायपालिका के एक पलड़े पर न्यायाधीश और वकील थे तो
दूसरे छोर पर बाबा भी थे। आखिर वे भूतपूर्व चोर थे। मल्लाह के उनकी मौत की खबर
देने के बावजूद मेरा मन नहीं मान रहा था। जैन गेस्ट हाउस लौटने के पहले मैं एक बार
और हेरने के लिए राजघाट आया। जुतसी अपने तोते समेत मौजूद था।
उसके पास वाली
पत्थर की बेंच पर मैं बैठ गया। वह अपने अधखुले असबाब पर अधलेटा-सा ऊँघ रहा था।
तोता पंखों की सफाई कर रहा था। यह उनका रिलैक्सिंग आवर था। मैंने सिगरेट सुलगा
लिया।
इन गठरी घरों
के अलावा कुछ ग्रामीण यात्री भी अपना प्लास्टिक सीट बिछाए हुए सर के नीचे झोला, बैग का तकिया लगाए लेटे हुए थे। दो-तीन
एकजुट होकर चिलम फूँक रहे थे। एक युवा यात्री लेटकर किताब पढ़ने की कोशिश में लगा
था।
सिगरेट के
धुएँ से जुतसी सजग हुआ और बैठकर बीड़ी सुलगाने लगा। तोते ने खाँसने की नकल उतारी तो
मेरा ध्यान गया। तोता शिकायती नजर से घूर रहा था।
“सॉरी! सॉरी!
तोता जी”, कहते हुए मैंने सिगरेट बुझा
दिया। जुतसी हँसा। जुतसी को अच्छा लगा कि ये जीव-जंतुओं के भावों की कदर करना
जानता है। मैं भी मुस्कुराया।
जुतसी के पास
लफंगे भी आते थे जिन्हें देखते ही तोता नाक-भौ सिकोड़ता था। ऐसे लोग ज्योतिष से
ज्यादा तोते को छेड़ना अपना परम करम मानते थे। यह आदमी भी उसे वैसा ही लग रहा था।
कम से कम उसके चेहरे पर ज्योतिषी या तोते के लिए कोई सम्मान भाव नहीं दिख रहा था।
उसे असली नकली जजमानों की अच्छी परख थी।
“आपके तोतवा
बहुत चालाक हौ”, मैंने जुतसी से बात करने की पहल की। तोतवा कहते ही तोते की नजर
में मैं पूरा ही गिर गया था। वह गर्दन टेढ़ी कर पंखों में चोंच दबा सोने का अभिनय
करने लगा।
क्या मैं इससे
हरीतिमा के बारे में पूछ सकता हूँ?
बिलकुल नहीं। क्या तोते की भविष्यवाणी में मेरा विश्वास है? बिलकुल नहीं। तो यहाँ क्या करने आया हूँ? मैं शायद
एक बार इस बाबा की तर्क बुद्धि का स्वाद चखने आया हूँ। थोड़ी-बहुत भूमिका के बाद
मैंने उसके सामने अपनी समस्या रख दी। वह मुझे समझा देने में सफल हो गया कि प्रेम
करने वाले लोग हत्यारे नहीं होते। प्रेम का अर्थ ही है क्षमा!
मैं जुतसी की
तर्क बुद्धि का कायल हो गया। लगभग उसी पद्धति से उसने मुझे प्रश्नों से घेरा जैसे
हरीतिमा को घेरा था। वैसे तो मैंने एक दोस्त के बहाने से बात की थी लेकिन वह सीधी
बात पर उतर आया- जाने दो ! जो लिखा है वो हो के रहेगा... जो हो गया भूल जाओ...
प्रायश्चित से बड़ी कोई सजा नहीं... पश्चाताप के आँसू सौ पाप धुल देते हैं... आदि
इत्यादि ।
मेरा मन हल्का
हो चुका था। लेकिन सबसे जरूरी प्रश्न
फाँस की तरह गले में फँसा हुआ था – क्या उस से
फिर मुलाक़ात नहीं होगी? कहते हैं कि जो बात एक बार हो, वो जरूरी
नहीं की दुबारा हो लेकिन जो दो बार हो, वह तीसरी बार भी जरूर होती है। दो बार उससे
मेरी मुलाक़ात हो चुकी है, यों ही अचानक... क्या पता फिर हो
जाए! मैंने तोते से सवाल पूछने का निश्चय किया। जुतसी के इशारे के बाद मैंने सवाल
पूछा, “क्या तीसरी बार भी उस लड़की से भेंट होगी? क्या मेरा
भाग्योदय होगा?”
“लड़की!” यह
शब्द सुनते ही तोते को यकीन हो गया कि ये आदमी पूरा लफंगा है। उसने बुरा-सा मुँह
बनाया । जुतसी के सवाल दोहराने पर वह बेमन से बाहर निकला और एक साथ दो-तीन कार्ड
खींचकर फेंक दिए। जुतसी के पुचकारने पर दुबारा तीन-चार कार्ड खींच दिए और पिंजरे
के ऊपर जा बैठा। वह सीधे मुझसे मुखातिब था मानो कह रहा हो, “ये है तेरे सवाल का
जवाब!” जुतसी ने उसे काजू का एक टुकड़ा दिया और पुचकार कर मनाने लगा, “क्या हुआ
सुगन जी! काहे नाराज हो गए?”
सुगन जी! मैं
चौंक गया। “इनका नाम सुगन जी है? बड़ा प्यारा नाम है। माफ कर द सुगन जी।” मैंने हाथ जोड़ लिए। वह काजू कुतर
कर अपने पिंजरे में जा बैठा। जुतसी ने सवाल फिर से सुनाया। सुगन जी ने आँख बन्द कर
आसमान की गहराइयों में ध्यान लगाया। गहन गंभीर चाल में बाहर आए और एक कार्ड खींचकर
कायदे से रख दिया। कार्ड पर लिखा था – प्रविसी नगर कीजै सब
काजा/ हृदय राखि कोशलपुर राजा। प्रश्न बहुत उत्तम है। कार्य शीघ्र सिद्ध होगा।
मेरे भीतर
बाँछों के खिलने का अहसास हुआ। मैंने जुतसी को पाँच सौ के दो नोट दिए लेकिन तोते
के चहरे पर खुशी नहीं दिखी। मेरे पास सुगन जी को खुश करने लायक कुछ नहीं था। अगली
बार ध्यान रक्खूँगा। मैंने मन ही मन कहा और ईरिक्शा में सवार हो पवन वेग से सारनाथ
की ओर चल पड़ा। मैंने फोन कर के बता दिया कि खाना वहीं खाऊँगा। डॉ. जैन ने अपनी
सदाखुश आवाज में कहा कि मेरे लिए उनके पास एक सरप्राइज रक्खा हुआ है। मैंने
औपचारिक हँसी से जवाब दिया, “अब मेरे लिए सारे सरप्राइजेज खत्म हो गए।”
खत्म हो गया।
मेरे लिए मेरा शहर ही खत्म हो गया। ये टूटता-फूटता बनारस मेरे भीतर की टूटी
किरचियों की चुभन का अहसास बढ़ा रहा था। आदिकेशव से शूलटंकेश्वर तक नदी किनारे सड़क
बनाने का मामला जोर पर था। सैकड़ों मकान टूटने वाले थे। टूटे हुए मकानों से मन्दिर
निकलते थे जिनका उद्धार किया गया ऐसा प्रचार किया जाता था। अब ये कौन समझाए कि इस
शहर का हर पुराना मकान एक मन्दिर ही है। मैंने रात की ही किसी फ्लाईट से उड़ चलने
का फैसला किया। अब नहीं आऊँगा बनारस...
और मैं सारनाथ
जैन गेस्ट हाउस पहुँच गया। रात काफी हो चुकी थी। डाइनिंग टेबल पर डॉ. जैन मेरा
इन्तजार करते मिले। मैं हाथ-मुँह धो कर उनके पास आकर बैठ गया। मिसेज जैन किचन में
रोटी सेंक रही थीं लेकिन ये दूसरा कौन है जो रोटी बेल रहा है? मुझे एक पल के लिए अपनी आँखों पर विश्वास
नहीं हुआ। हरीतिमा यहाँ क्या कर रही है! हैरानी से मेरा मुँह खुला रह गया जिसमें
आसानी से हनुमानगढ़ी का लड्डू पास हो सकता था। आँखों की पुतलियाँ फैल गयीं थीं।
किचन से ही उसने लड्डू फेंकने का अभिनय किया। मेरी अचंभित मुद्रा टूट गयी।
डॉ. जैन ने
बताया कि वह महाबोधि स्कूल में शिक्षक लग गयी है और यही पेइंग गेस्ट रहती है। खाली
समय में गाँव के बच्चों को भी पढ़ा देती है।
“आपने मुझे
बताया नहीं”, मैंने शिकायत की।
“अवसर ही कहाँ
दिया आपने?” डॉ. जैन ने सही कहा।
“मैं हरीतिमा
को ही खोजने गया था”, मैंने कहा।
“ये भी आपने कहाँ
बताया था?” डॉ. जैन और मैं एक साथ हँसने लगे।
हरीतिमा मेरे
आगे थाली रखने आई। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। हँसते-हँसते मैं रोने लगा था। उसने
थाली मेरे आगे से खिसका दिया। मेरे बगल में बैठ गई और मुझे हलके हाथों थाम लिया।
ऐसा लगा जैसे बाँस
का वह पुल बन गया हो और पाँवों के नीचे नदी बह रही हो।
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डॉ. अनुपम ओझा
सर्व सेवा संघ
परिसर,
राजघाट, वाराणसी,
पिन: 221001
मो. न.: 9936078029